शशिकांत गुप्ते
प्रगतिशीलता को कुछ लोग अतिप्रगतिशीलता के रूप में परिभाषित कर रहें हैं। ये लोग इस सूक्ति भूल जातें हैं,अति सर्वत्र वर्जते अति का अंत निश्चित होता है।
100% प्रगतिशीलता को कुछ बुद्धिजीवियों द्वारा 20:80 प्रतिशत के अनुपात में विभाजित किया जा रहा है।
इस संदर्भ में सन 1960 में प्रदर्शित फ़िल्म जिस देश में गंगा बहती है के गीत इन पंक्तियों का स्मरण होता है। इस गीत को लिखा है,गीतकार शैलेंद्रजी ने।
कुछ लोग जो ज़्यादा जानते हैं
इन्सान को कम पहचानते हैं
ये पूरब हैं, पूरब वाले
हर जान की कीमत जानते हैं
मिलजुल के रहो और प्यार करो
एक चीज़ यही जो रहती है
हम उस देश के वासी हैं
जिस देश में गंगा बहती है
सांस्कृतिक मोर्चा ( Front) सांस्कृतिक गतिविधियों द्वारा जनसामान्य को शिक्षित करने का मोर्चा है। सांस्कृतिक गतिविधियों द्वारा नाटक,फ़िल्म,लोकनाट्य,
प्रहसन,आदि माध्यम से मनोरंजन के साथ शिक्षाप्रद संदेश देना होता है।
दुर्भाग्य से हरएक क्षेत्र व्यापारीकरण से प्रदूषित ही गया है। सबसे ज्यादा चिंता का विषय है,धर्म, राजनीति और व्यापार का आपस में तालमेल होना है? तालमेल जब घालमेल में परिवर्तित हो जाता है तब हरक्षेत्र में विकृति आना संभव हो जाता है।
बीसवीं सदी के पचास,साठ लगभग सत्तर के दशकों में बाईस्कोप का स्मरण होता है।
एक मजदूर अपने सिर पर लादकर बाईस्कोप नामक डिब्बे में पूरे भारत के दर्शनीय स्थलों के दर्शन करवाता था।
बाईस्कोप वाला शहर,गाँव गलियों में घूमता था। बाईस्कोप दिखाने वाला ताजमहल कुतुबमीनार या किसी तीर्थस्थल का दर्शन करवाने के पूर्व सभी दर्शकों भारतीय ही समझता था।
मजदूरी कर अपना जीवनयापन करने वाला कोई भी श्रमिक अनपढ़ होने पर भी मानव के खून के रंग को बखूबी पहचानता है।
सड़क,पुल, मकान,दुकान,शासकीय आवास,कार्यालय या एहतिहासिक स्मारकों का जीर्णोद्धार करने वाला मजदूर जब अपना पसीना बहाता है तब यह नहीं सोचता कि,पुल पर सड़क पर चलने वाला मानव किस मज़हब का होगा? शासकीय, आवास या कार्यालय के निर्माण के लिए श्रम करने वाला श्रमिक यह नहीं सोचता है कि कार्यालय में कार्य करने वाला मानव कौनसे धर्म का होगा?
फर्नीचर का निर्माण करने वाला बढई कभी यह नहीं सोचता है कि,उसके द्वारा बनाई कुर्सी पर अगड़ा बैठेगा या कोई पिछड़ा बैठेगा? इसतरह के असंख्य उदाहरण दिए जा सकतें हैं।
बहरहाल मुद्दा है प्रगतिशीलता का? प्रगतिशीलता के व्यापक स्वरूप को राजनीति की परिधि में जकड़ने की चेष्ठा करेंगे तब तो प्रगतिशीलता को 20:80 के अनुपात में विभाजित होने से कोई रोक नहीं सकता है।
इनदिनों देश के रहबरों के सामने जनता की बुनियादी समस्याएं गौण हो गई है। एक फ़िल्म महत्वपूर्ण हो गई है।
पुनः जिस देश में गंगा बहती है इस फ़िल्म के गीत की पंक्तियों का स्मरण होता है।
तुम से तो पतंगा अच्छा है
जो हंसते हुए जल जाता है
वो प्यार में मिट तो जाता है
पर नाम अमर कर जाता
हम छोटी सी वो बून्द सही है
सीप ने जिसको अपनाया
खारा पानी कोई पी न सका
एक प्यार का मोती काम आया
इस प्यार की बाज़ी में हँसकर
जो दिल हारा वो सब जीता
आज दिल की बातें मिथ्या लग रही हैं।
काल्पनिकता भी सियासत के रंग में रंग गई है।
आमजन जब स्वयं के जहन में झाँककर देखता है,तब वह ठगा सा महसूस करता है।
इस संदर्भ में सन 1962 में प्रदर्शित फ़िल्म सन ऑफ इंडिया के गीत यह पंक्तियां स्वाभविक रूप से याद आ जाती है। इस गीत को लिखा है, शकील बदायुनी ने।
दिखला के किनारा मुझे मल्लाह ने लूटा
कश्ती भी गई, हाथ से, पतवार भी छूटा
अब और न जाने मेरी तक़दीर में क्या है?
पूर्व की फिल्मों की कहानी फिल्मों के गाने फिल्मों के संवाद
अविस्मरणीय होतें थे। प्रेरणादायी होतें थे।
आज फ़िल्म का प्रचार भी निहितस्वार्थी हो गया है।
परिवर्तन संसार का नियम है। होकर रहेगा।
वो सुबह जल्दी आएगी।
शशिकांत गुप्ते इंदौर