व्यंग्य : राजेन्द्र शर्मा
ये तो एकदम रांग है जी। कर्नाटक वाले ईश्वरप्पा जी अब तो गद्दी छोडऩे के लिए भी तैयार हो गए हैं, फिर भी विरोधी हैं कि इसी का शोर मचा रहे हैं कि ‘‘ना खाऊंगा ना खाने दूंगा’’ का वादा क्या हुआ? हम पूछते हैं कि मोदी जी ने खाने दिया क्या? खाने देते तो ईश्वरप्पा का इस्तीफा लेते या डबल प्रमोशन देते! पर भाई लोगों को तो इसमें भी नेगेटिविटी ही सूझ रही है — पूछ रहे हैं कि अब रोकने से क्या होगा; अब तक जो खाने दिया उसका क्या?
लेकिन ये तो रांग है। मोदी जी पर अब तक खाने देने का इल्जाम तो एकदम ही रांग है। और मोदी जी पर अब तक खाने देने का ही क्यों, ईश्वरप्पा जी पर अब तक खाने का इल्जाम भी कौन सा साबित हो चुका है? मोदी जी के इस्तीफा लेने और ईश्वरप्पा जी के इस्तीफा देने से ही, यह मान लेना तो सही नहीं होगा कि मोदी जी ने खाने दिया हो या नहीं पर, ईश्वरप्पा जी अब तक खा जरूर रहे थे! उल्टे न तो मोदी जी के अब हटाने का कोई सबूत है और न ईश्वरप्पा जी के अब तक खाने का। सब कही-सुनी बातें हैं, जिनकी कानून की नजरों में कोई कीमत नहीं है। कानून की आंखों पर पट्टी बंधी है और उससे यह देखने की उम्मीद कोई नहीं करे कि ईश्वरप्पा जी पर खाने का इल्जाम लगाने वाला ठेकेदार खुद भगवाई था, इसलिए उसके इल्जाम में सचाई होगी। कानून किसी का सच-झूठ कपड़ों से नहीं पहचानता है। और ईश्वरप्पा जी के खाने के इल्जाम को सिर्फ इसलिए सच मानने का तो सवाल ही नहीं उठता है कि यह इल्जाम पाटिल ने, आत्महत्या से पहले लिखी अपनी चिट्ठी में लगाया है। कानून ऐसे किसी के मरने-जीने से प्रभावित नहीं हुआ करता है। कानून ऐसे भावनाओं में बहने लगे, तब तो चल लिया राम राज्य! राम राज्य में तो छोटे बोम्मई का सर्टिफिकेट ही चलेगा–ईश्वरप्पा जी का इस्तीफा तो बस नैतिक आधार पर है!
बेचारे मोदी जी, न खा रहे हैं और न खिला रहे हैं, सिर्फ ईश्वरप्पाओं से इस्तीफे लिखवा रहे हैं। और वह भी खाली-पीली नैतिकता के चक्कर में। बहुत नाइंसाफी है भाई!
*(व्यंग्यकार वरिष्ठ पत्रकार और ‘लोकलहर’ के संपादक हैं।)*