डॉ. विकास मानव
वेदों के अनुसार पुरुष गर्भाधान की क्रिया से वीर्यरूप से स्त्री के गर्भ में प्रवेश करता है। यही पुरुष समय पर गर्भमुक्त हो कर उस स्त्री का पुत्र होता है और वह स्त्री उसकी माता होती है। अतएव माता होने से पूर्व ही हर स्त्री पत्नी होती है। पिता होने से पूर्व ही हर पुरुष पति होता है।
*माता भूमिः पुत्रोऽहं पृथिव्या:।*
*पर्जन्यः पिता स उ नः पिपर्तु॥”*
~अथर्ववेद (१२ । १ । १२)
विश्व युग्ममय है। युग्म में युग्म है। सोम-सूर्य स्त्री-पुरुष = रात-दिन = कृष्ण-अर्जुन श्याम-श्वेत = माता-पिता = सुख-दुःख का युग्म ही संसार है। सगुण-निर्गुण = साकार-निराकार = प्रत्यक्ष-परोक्ष = प्रकृति-पुरुष का युग्म ही यह सृष्टि है। प्रकृति में सुख-दुःख का युग्म है। पुरुष इस सुख-दुःख से विहीन (परे) है। यह शाश्वत सत्य ही ऋत है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि सगुण साकार प्रत्यक्ष प्रकृति = सुख-दुःख रूपा तथा निर्गुण निराकार परोक्ष पुरुष द्वन्द्वमुक्त सांख्य तत्व केवल योगी के लिये बोधगम्य है। अतएव तस्मै योगिने नमः ।
यह यह जगत् विकृति है जो कि मूल प्रकृति से है। प्रकृति = सुख विकृति = दुःख प्रलयावस्था में पुरुष (जीव) अपने स्वरूप में रहता हुआ द्वन्द्व (सुख-दुःख) से दूर रहता है। यही हम जीवों का वास्तविक स्वरूप है। प्रकृति-पुरूष के सान्निध्य से सृष्टि प्रारंभ होती है- सुख-दुःख का प्रादुर्भाव होता है। जब तक सृष्टि रहती है, तब तक हर जीव इस सुख-दुःख की अनुभूति करता रहता है। वह इससे प्रलय से पूर्व मुक्त नहीं होता।
संसर्ग यानी संभोग से निर्गुण पुरुष अपने को सगुण साकार सीमित समझता है। यह अकध कहानी है। किसी में इसे कहने की सामर्थ्य नहीं है।
हर जीव के हृदय समुद्र में सुख-दुःख रूपी ज्वार-भाटा सदा विराजता है। लहरों का उठना ज्वार है। तथ लहरों का गिरना भाटा है। ज्वार = उत्थान विस्तार ।भाटा= पतन संकोच। सुख-ज्वार दुःख = भाटा। हृदय का यह ज्वार भाटा उसकी चेष्टा में हर क्षण प्रतिबिम्बित होता है। मूर्ख जीव दुःख से मुक्त तथ सुख से युक्त होना चाहता है। यह असंभव है। अपने स्वरूप में सुख (आनन्द) है। स्वरूप सिद्ध को मेरा नमस्कार। स्वरूप सिद्धि ही प्रलय है। शारीरिक चेष्टाओं का लय इन्द्रियों में, इन्द्रिय चेष्टाओं का लय मन में, मन की गति का लय अहंकार में, अहंकार का लय महत्तत्व (बुद्धि) में तथा बुद्धि का लय प्रकृति में करना स्वरूप सिद्धि है। यही मोक्ष= शाश्वत सुख = आन्नद है। इसे पाने का मार्ग योग है। योगाय नमः।
हर व्यक्ति में चाहे वह स्त्री हो वा पुरुष, सुख-दुःख की अबाध सत्ता है। जातक का सव्य (बायाँ) है भाग सुख है तथा दक्षिण भाग दुःख है। क्योंकि बायाँ = वामा= स्त्री = सौम्य = सुख, तथा दायाँ = कठिन पुरुष = दुःख। जिसमें स्त्री वा पुरुष होने का भाव है, वह मुक्त नहीं ज्ञानी नहीं, योगी नहीं, = आनन्दित नहीं सुख-दुःख की गठरी सिर पर रखे ऐसे जातक का कल्याण केवल स्वरूपसिद्धि में है।
*स्त्री में पुरुष, पुरुष में स्त्री :*
हर स्त्री में पुरुष बैठा है। हर पुरुष में स्त्री समायी है। सुख में दुःख घुसा है। दुःख में सुख तिरोहित है। सर्वत्र मिथुन में मिथुन है। कोई अकेला / केवल मात्र नहीं है। इसलिये सुख-दुःख है। कैवल्य में ही द्वन्द्व का अभाव है, सुख-दुःख का घात है।
पूर्व होने से पश्चिम की सिद्धि है। उत्तर होने से दक्षिण की सिद्धि है। ऊर्ध्व होने से अधः तथा सम / सरल होने से तिर्यग / वक्र की सिद्धि है। भौतिक/लौकिक दैहिक/ पार्थिव होने से अभौतिक/अलौकिक/मानसिक/दिव्य सृष्टि है।
इन सभी सृष्टियों/सिद्धियों में अग्नि षोमीय तत्व वा स्त्री-पुरुष भाव है। अतएव जो कुछ भी है, वह सब चतुरात्मक है। चतुरात्मा = द्वन्द्वे द्वन्द्वः!
गणितीय भाषा में समानुपातिक सूत्र में :
स्त्री ….पुरुष….सुख….दुःख
पत्नी….पति….वाम….दक्षिण
*सत्यामाशिरं परमे व्योमनि. चत्वारि अन्या भुवनानि निर्णेजे।*
~सामवेद (१/५६०, २/७७३)
एक भुवन में अन्य सभी तीन भुवन होते हैं। स्त्री में पुरुष, पुरुष में दुःख । पुरुष में स्वी स्त्री में सुख। एक से अन्य तीन की उपस्थिति का भान होता है।
यह द्वन्द्वात्मक विश्व अग्निषोमीय है। पुरुष क्रूर है। इसमें सोम (वीर्य) है। स्त्री सौम्य है, अग्नि (रज) है। अग्नि कठोर (पुरुष) है। सोम सौम्य (स्त्री) है। स्त्री की परुषता (कृच्छ्रता) पुरुष में विक्रमित होती है।
पुरुष उसकी इस शक्ति को सोम (वीर्य) के रूप में स्त्री को लौटा देता है। निरन्तर ऐसा करता हुआ पुरुष निर्वार्यता को प्राप्त होता है। वास्तविक पुरुष वीर्यशक्ति को धारण किये रहता है. जो पुरुष स्त्री को स्खलित करने से पूर्व कभी स्खलित नहीं होता, वह ही वीर्यवान् है।
सृष्टि क्या है ? एक का दो में विभाजन। यह हिंसा है। क्योंकि इसमें विखण्डन है। प्रलय क्या है ? दो का एक में संश्लेषण। यह भी हिंसा है। क्योंकि इसमें विलयन है। हर हिंसा में आनन्द है। इस आनन्द को अहिंसा कहते हैं। अहिंसा को श्रेष्ठ धर्म निरुपित किया गया है।
व्यास वाक्य है- ‘अहिंसा परमो धर्मः’ (महाभारत)। हिंसा ही अहिंसा का आधार है। हिंसा = सिंह ।अहिंसा = आनन्द = परमाशक्ति देवी भगवती। इसलिये इसे सिंहवाहिनी कहते हैं।
सोम सिंह है। अग्नि दुर्गा है। अग्निषोमीय विश्व =सिंहारूढ़ दुर्गा= हिंसा एवं अहिंसा का युग्म।
जातवेदसे सुनवाम सोमम्
अरातीयतो नि दहाति वेदः।
स नः पर्षदति, दुर्गाणि विश्वा
नावेव सिन्धुं दुरिताति अग्निः।।
~ऋग्वेद (१।९९ । १)
षु प्रसवैष्वर्ययोः + मन् = सोमन्। जो स्वयं उत्पन्न होता है, अन्यों को उत्पन्न करता है, अद्भुत सामर्थ्य से युक्त है, उसी को सोम यानी वीर्य-अमृत कहते हैं।
सोम = चन्द्रमा, मन, वीर्य, शुक्र, बारस, आनन्द, अमृत, ब्राह्मीलता, आकाश मन स्वयं भू हैं। मन से चन्द्रमा की उत्पत्ति हुई है। ‘चन्द्रमा मनसो जात: ।’ मन अमृत है। आकाश स्वयं भू है। मन से काम (वीर्य) उत्पन्न होता है। वीर्य से शुक्र (तेज) उत्पन्न होता है। मन मे आनन्द उत्पन्न होता है।
‘सर्वेषामेव सोमानां पत्राणि पञ्चदश च तानि शुक्ले च कृष्णे च जायन्ते निपतन्ति च।
एकैकं जायते पत्र सोमस्याहरहस्तथा
शुक्लस्य पौर्णमास्यान्तु भवेत्पञ्चदशच्छदः।
शीर्षते पत्रमेकैकं दिवसे पुनः पुनः कृष्णपक्षक्षये चापि लता भवति केवलः॥
न तान् पश्यन्त्यधर्मिष्ठाः कृतघ्नाश्चापि मानवाः।
भेषजदेषिणश्चापि ब्राह्मणद्वेषिणस्तथा॥”
~सुश्रुत संहिता (२९ । ३१)
विश्वा अपश्यद् बहुधा ते अग्ने जातवेदस्तन्वो देव एक।
~ऋग्वेद (१० । ५१ । १)
जातवेद = जातप्रज्ञ = प्रज्ज्वलित अग्नि = ज्योति जातवेद तत्व (सूक्ष्म वा कोमल) है। सम्पूर्ण रूप से इसे एक देव (प्रजापति) ही देखता /जानता है। जिसे इसका पूर्णज्ञान है जिसने इसे सम्यक् देखा है, वह ऋषि है.
जातवेदसे सुनवाम सोमम् = हम जातवेद (स्त्रीअग्नि) के लिये सोम (वीर्य) को निचोड़ें। हमारे सम्मुख न तो प्रज्ज्वलित यज्ञाग्नि है और न ही सोमलता जिसे कि अग्नि के लिये निचोड़े/रस निकालें। ज्योति/सूर्य का ध्यान कर सोम/मन को निचोड़ना/लगाना है। अर्थात् ज्योति का ध्यान कर उसे अपना मन समर्पित करना है।
स्त्री जातवेद अग्नि है। पुरुष शरीर सोम है। गर्भाधान संस्कार में जातवेदसे (कामासक्त स्त्री के लिये) पुरुष सोमम् (अपनी देह लता को निचोड़ता है वा वीर्य को निकालता है। इस वीर्य की आहुति अग्निमयी स्त्री ग्रहण करती है।
_स्थानपात्र समयभेद से तीन अर्थ :_
१. याज्ञिक के लिये, यज्ञानि एवं सोमलता है।
२. ब्रह्मचारी / साधक के लिये, ज्योति एवं सात्विकमन।
३. गृहस्थ / भोगी के लिये, कामासक्त तरुणी भार्या एवं वीर्यवान् स्वदेह जिससे निषेक सार्थक हो। सोम का उत्पादन करने से पुरुष देह सोमलता है तथा अग्निवर्ण रक्त पुष्प से होने के कारण स्त्री का शरीर जातवेद है। सोम का अभिषवन ही वीर्य स्खलन है।
अरातीयतः निहाति वेद: = सः अग्निः शत्रुवत् आचरतः मनुष्यस्य धनं ज्ञानं वा नितरां दहतु।वह अग्नि (स्त्री / ज्योति) शत्रुसदृश व्यवहार करने वाले मनुष्य वा बलात्कारी पुरुष के धन ज्ञान वा वीर्य / शक्ति को जला दे, नष्ट कर दे।
स अग्निः नः विश्वा (नि) दुर्गाणि नावाइव अति पर्यत् दुरिताति सिंधुम् = वह अग्नि (ज्योति/स्त्री) हमारे सभी दुःखों वो नाव के समान पाप समुद्र से पार कर दे हम विघ्न बाधाओं से मुक्त होकर जीवन यापन करें। दुरितातिदुः= इता अति। दुः इता = पापों को। अति = तरें। अग्नि की ज्योति में ज्ञान एवं धन है। ज्योति को देखने / जलाने/ ध्याने वाला ज्ञान से दुःख सागर पार कर जाता है।
यहाँ ज्ञान नाव सदृश है। याज्ञिक ब्राह्मण यज्ञ से प्राप्त धन से दुःख से मुक्त होता है। यहाँ धन नाव है, कष्ट से पार जाने के लिये। गृहस्थ की स्त्री अग्नि है। स्त्री रूप अग्नि से प्राप्त पुत्र द्वारा पिता संसार समुद्र से पार होता है। यहाँ उसके लिये पुत्र नाव है जो उसे नरक के सिन्धु में गिरने नहीं देता।
_अग्नि से तीन प्रकार की नौकाएँ दुःखसिन्धु से पार होने के लिये मिलती हैं :_
१. घन
२. ज्ञान
३. पुत्र
धन से दानकर्म होता है। इस पुण्य से जातक का उद्धार होता है। पुत्र से अमरत्व मिलता है वंश नहीं मिटता। ज्ञान से सम्पूर्ण दुःखों का नाश होता है। ज्ञान सर्वोपरि है।
दुर्गाणि = दुः गानि = अगणित दुर्ग। इसे सीमित करें तो ये सीमित दुर्ग भी अपार हैं। कुण्डली के १२ भाव ही १२ दुर्ग हैं। ज्ञान की नाव से ही इन दुर्गों को पार करना सम्भव है। धनदान एवं पुत्रलाभ से नदी रूप सीमित दुर्ग को भले ही पार कर लिया जाय, भव सिन्धु (भाव सागर) अर्थात् द्वादश दुर्गों को पार करना इनके द्वारा सम्भव नहीं। यहाँ केवल ज्ञान पोत ही एकमात्र साधन है। भाव १२ ही हैं।
यदिद्र ते चतस्रो यच्छूर सन्ति तिस्रः।
यद् वा पञ्च क्षितीनामवस्तत् सु न आ भर॥
~ऋग्वेद (५ । ३५ । २)