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माफ़ीवीर भी तो वीर होता है

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व्यंग्य : राजेंद्र शर्मा

मोदी जी कुछ भी करें, इन सेकुलरवादियों को तो विरोध करना ही करना है। बताइए! अमृतकाल की पहली सुबह वाली आजादी की सालगिरह पर मोदी जी ने लालकिले से बापू, सुभाष और अम्बेडकर के साथ वीर सावरकर जी का नाम क्या ले दिया, इन्हें इसमें भी आब्जेक्शन हो गया। कह रहे हैं कि मोदी जी ने देश के प्रात:स्मरणीयों में बापू, सुभाष और अम्बेडकर की बगल में, सावरकर को कैसे बैठा दिया। वह स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास को क्यों तोड़-मरोड़ रहे हैं?

नेहरू, पटेल को तीसरी लाइन में श्यामाप्रसाद मुखर्जी, दीनदयाल उपाध्याय, नानाजी देशमुख वगैरह की बगल में बैठाना क्या कम था, जो सावरकर को भगतसिंह, आजाद, अशफाक, बिस्मिल जैसे बेशुमार शहीदों से भी आगे की लाइन मे बैठा दिया! और सावरकर को स्वतंत्रता सेनानी पेंशन देने, ताम्रपत्र वगैरह देने तक तो फिर भी ठीक था; पर पीएम जी ने सावरकर को इकलौता वीर कैसे बना दिया? अब क्या माफीवीर को भी वीर कहना होगा? क्या यही अमृतकाल है!

जी हां! यही अमृतकाल है। अब सावरकर की सीट तो सबसे आगे की लाइन में ही लगेगी, बल्कि सबसे आगे वाले सोफों पर। एक तरफ बापू, दूसरी तरफ सुभाष बाबू और बीच में सावरकर। और हां जरा हटकर, सुरक्षित दूरी पर डा. अम्बेडकर। बाकी सब पीछे की लाइनों में। जगह कम पड़ जाए तो नेहरू-वेहरू सबसे पीछे खड़े रह सकते हैं या फोटो से बाहर भी किए जा सकते हैं, 76वीं सालगिरह पर कर्नाटक और बंगाल की सरकार के विज्ञापनों के फोटो की तरह। वैसे हो सकता है कि अपनी इज्जत बचाकर, नेहरू जी खुद ही उन तस्वीरों से बाहर चले गए हों। खैर! क्या फर्क पड़ता है। अमृतकाल में ले जाने वाली रेलगाड़ी में हर किसी को सीट थोड़े ही मिल सकती है। बिना सीट के भी लोग सफर करते ही हैं। अगर नेहरू जी में अब भी इतनी अकड़ है कि खड़े होकर या पायदान पर लटक कर अमृतकाल में नहीं जाएंगे तो, उनकी मर्जी। ड्राइविंग सीट पर मोदी जी हैं, नेहरू जी के नखरे अब थोड़े ही उठाए जाएंगे!

फिर मोदी जी ने तो 2014 में आते ही एलान कर दिया था कि जो सत्तर साल में नहीं हुआ, वही-वही होगा! और पिछले साल, अमृत वर्ष का फीता काटते समय तो साफ-साफ कह दिया था कि आजादी की लड़ाई को अब नये अंदाज में याद किए जाएगा। जिनका नाम पहले नहीं आया, उनका नाम लिया जाएगा। जिनको मान नहीं दिया गया, उनको मान दिया जाएगा। जिन्हें गिनती में नहीं लिया गया, उन्हें गिनती में लिया जाएगा। जिन्हें सबसे पीछे रखा गया, उन्हें सबसे आगे बैठाया जाएगा, वगैरह।

इसीलिए तो अमृत काल की पहली सुबह, सिर्फ नेहरू ही नहीं पटेल को भी श्यामा प्रसाद मुखर्जी ही नहीं, दीनदयाल उपाध्याय और नानाजी देशमुख की भी बगल में बैठा दिया है और बापू को सावरकर की बगल में। और यह तो पहली सुबह यानी शुरूआत थी। आगे-आगे देखिए, अमृतकाल में आगे आता है कौन-कौन और पीछे ठेला जाता है कौन-कौन? अब कोई आगे आएगा, तो कोई न कोई पीछे भी जाएगा ही। कतार का यही नियम है। 2047 में जब भारत अपनी स्वतंत्रता के सौ साल मनाएगा, तब तक बापू कहां होंगे, यह तो नहीं पता, पर सावरकर का आसन जरूर और आगे आ जाएगा!

पर सेकुलरवादियों का यह इल्जाम सरासर झूठा है कि मोदी जी, अपने वैचारिक कुनबे के लोगों की छवि चमकाने में लगे हैं, जबकि स्वतंत्रता की लड़ाई में उनके कुनबे वाले तो शामिल ही नहीं थे। ऐसा हर्गिज नहीं है। उल्टे मोदी जी तो कुनबापरस्ती के एकदम खिलाफ हैं। इतने खिलाफ कि अपना कुनबा ही नहीं बनाया। न होगा कुनबा, न होगी कुनबापरस्ती। अगर सारी राजनीतिक पार्टियां और राजनीतिक नेता, मोदी जी के आदर्श को अपना लें, तो एक ही झटके में इस देश से कुनबापरस्ती का नाम ही मिट जाएगा। और रही बात वैचारिक कुनबे को जबर्दस्ती स्वतंत्रता सेनानी बनाकर बैठाने की, तो मोदी जी को भी ताम्रपत्रों के घपलों का खूब पता है। पर मजाल है, जो मोदी जी ने संघ के एक भी बड़े नेता का लाल किले से नाम तक लिया हो। न हेडगेवार न गोलवलकर, एक सरसंघचालक तक नहीं। क्यों? क्योंकि मोदी जी भाई-भतीजावाद के ही नहीं, वैचारिक भेदभाव के भी खिलाफ हैं। उनका पक्का विश्वास है कि देशभक्त तो देशभक्त होता है, वह देश सब का मानता हो, तो भी और देश को सिर्फ हिंदुओं का मानता हो, तो भी। इसी एकता का नमूना पेश करने के लिए तो उन्होंने ‘‘हिन्दू राष्ट्र”’ वाले सावरकर को, सबका राष्ट्र वाले बापू की बगल में बैठाया है। अमृत काल में सबका साथ नहीं होगा, तो सब का विकास कैसे होगा?

बापू और सावरकर में ये सेकुलरवादी जो झगड़ा लगाने की कोशिश करते हैं, अब नहीं चलने वाली। व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी की रिसर्च में पता चला है कि दोनों में पक्की दोस्ती थी। बल्कि सावरकर, तो बापू की हर बात मानते थे। माफी-वाफी की जो भी चिट्ठियां उन्होंने लिखी बताते हैं, सावरकर ने कौन-सी अपनी मर्जी से लिखी थीं। माफी की चिट्ठियां तो सावरकर ने बापू के कहने पर ही लिखी थीं। वह बापू की बात टाल जो नहीं पाते थे। बापू की बात तो सावरकर इतनी मानते थे, इतनी मानते थे कि, उनके जरा से इशारे पर उन्होंने आठ-आठ चिट्ठियां लिख डालीं।

वह तो तब तक चिट्ठियां लिखते रहे, जब तक अंगरेजों ने ही आजिज़ आकर, और चिट्ठी नहीं लिखने की शर्त पर, उन्हें छोड़ नहीं दिया। सुनते हैं कि उनकी चिट्ठियों से बचने के लिए ही अंगरेजों ने उन्हें, जब तक उनका राज बना रहा, सावरकर को महीना-दर-महीना पेंशन भी दी थी।

माफी की सावरकर की जिन  चिट्ठियों से अंगरेज थर-थर कांपते थे, दुश्मन को कंपाने वाली ऐसी चिट्ठियां लिखने को वीरता नहीं, तो क्या कहेंगे? और माफी की चिट्ठियां लिखने के लिए सावरकर को भले ही माफीवीर कहा जाए, पर माना तो वीर ही जाएगा।

रही गांधी मर्डर वाले मुकद्दमे की बात, तो वह सब नेहरू-पटेल की गलतफहमी का नतीजा था। बाद में अदालत ने सबूत पेश नहीं होने से उन्हें बरी भी तो कर ही दिया था। अदालत में गोडसे ने खुद कहा था कि उसने गुरुजी के कहने पर गांधी का वध नहीं किया था! और अगर सावरकर के कहने से किया भी हो तो, अगर कहने भर के लिए सावरकर को गांधी वध के लिए जिम्मेदार माना जा सकता है, तो सावरकर की माफी की  चिट्ठियों के लिए, गांधी को जिम्मेदार क्यों नहीं माना जाना चाहिए? फिर असली माफीवीर कौन हुआ? तब सावरकर की ही वीरता पर सवाल क्यों? माफीवीरता भी वीरता का ही एक भारतीय प्रकार है। माफीवीर भी वीर होता है।

*(इस व्यंग्य के लेखक वरिष्ठ पत्रकार और ‘लोकलहर’ के संपादक हैं। संपर्क : 09818097260)*

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