कुमार विजय
उत्तर प्रदेश के जरायम की दुनिया को रोशन करने में पूर्वांचल किसी मशाल की तरह जलता दिखता है। रोशनी इतनी कि आँखें चकाचौंध हो जाएँ और आग इतनी की ख्याल भर से दिमाग में फफोले पड़ जाएँ। इस मशाल की सबसे तेज तपिश वाली लौ को बृजेश सिंह कहते हैं। जिसने पिता की हत्या के खिलाफ जब हथियार उठाया तो पैरों के हर निशान नया रास्ता बनाते गए और वाराणसी से उठा बवंडर उत्तर प्रदेश से निकलकर झारखंड, मुंबई तक फैल गया।
कभी-कभी मंजिल के ख्वाब को रास्ते निगल जाते हैं। चलना फिर भी पड़ता है पर जाना कहाँ है यह ना दिल जानता है न पाँव जानते हैं, बस रास्ते के मोड़ जिंदगी का रुख बदलते रहते हैं। कुछ यही हकीकत है वाराणसी के बाहुबली बृजेश सिंह की। बृजेश सिंह पढ़ना-लिखना चाहते थे। इंटर तक पढ़ाई भी अच्छी चली थी। शिक्षा के माध्यम से एक बेहतर जिंदगी का सपना लेकर उदय प्रताप महाविद्यालय में बीएससी में एडमिशन ले लिया था। पिता भी चाहते थे कि बृजेश सिंह अफसर बने। बेटा पूरे मन से पढ़ाई कर रहा था इसलिए पिता रवींद्र सिंह भी सोचते थे कि कैसे भी करके जो और जितना वह पढ़ना चाहेगा उसे वह सब पढ़ाएंगे। पर 27 अगस्त, 1984 को इन ख्वाबों का कत्ल हो गया। जमीन के किसी मामले को लेकर गाँव के ही कुछ दबंगों ने गाँव में ही बृजेश सिंह के पिता रवींद्र सिंह की हत्या कर दी। इस हत्या के साथ ही पिता और पुत्र दोनों के देखे हुए सपने खत्म हो गए।
बृजेश सिंह अपराध और राजनीति की दुनिया में भले ही अन्य माफियाओं की ही तरह रहें, पर उनके व्यापार का सिंडिकेट उन्हें अन्य माफियाओं से बहुत आगे खड़ा कर देता है। बृजेश सिंह ने रेलवे के स्क्रैप बेचने के जिस कारोबार की शुरुआत की थी बाद में उसे उत्तर प्रदेश से दिल्ली, मुंबई, झारखंड और उड़ीसा तक फैलाया। जमीन के बाहर और उसके अंदर की चीजों को भी अपने कारोबार में शामिल किया। कोयला, गिट्टी, रेता के साथ शराब और रियल स्टेट के धंधे में भी जमकर धन कमाया।
बृजेश सिंह बदले की आग में जलने लगा, जो आंखे फिजिक्स-केमेस्ट्री पढ़ना चाहती थीं वह अब हथियार का हुनर समझ रही थीं। अब सिर्फ और सिर्फ एक मकसद था जिंदगी का, “पिता की मौत का बदला।” पिता के मौत की बरसी से पहले उनके हत्यारे पाँचू सिंह के पिता हरिहर सिंह को बृजेश सिंह ने सरेआम कोर्ट में घुसकर एके-47 से भून दिया। आरोप ब्रजेश सिंह पर ही लगना था सो लगा पर सबसे ज्यादा चर्चित हुई एके-47 क्योंकि पहली बार किसी ने पूर्वांचल में इस सनसनीखेज हथियार का इस्तेमाल किया था। उस दिन उस हत्या के साथ एक नए बृजेश सिंह का जन्म हो गया। इसके बाद 1986 में चंदौली के सिकरौरा में पूर्वप्रधान रामचन्द्र यादव सहित 6 लोगों की हत्या हुई और इस हत्या में भी नाम आया बृजेश सिंह का। आमने-सामने गोलीबारी हुई थी। इस गोलीबारी में बृजेश सिंह के पैर में भी गोली लगी जिसकी वजह से घायलावस्था में पुलिस ने बृजेश सिंह को पकड़ लिया और जेल भेज दिया। पहली बार जेल मिली तो जेल में मिल गए त्रिभुवन सिंह। त्रिभुवन सिंह की पूर्वांचल में अच्छी-खासी रंगबाजी चलती थी। त्रिभुवन स्थापित थे और बृजेश सिंह अभी पंख पसार रहे थे। पर चूंकि जाति एक थी इसलिए जल्दी ही दोस्ती पक्की हो गई। एक से भले दो होते ही मंसूबा बना पूरे पूर्वांचल पर अपनी धाक जमाने का। इसी बीच पिता के ही अपमान का बदला लेकर एक दूसरा माफिया भी पूर्वांचल में अपनी बादशाहत का जौहर दिखाने में लग गया था नाम था मुख्तार अंसारी। दो एक जैसी तलवारें पूर्वांचल को अपनी धार से घायल करने की उतावली के साथ मैदान में अपनी चमक बिखेर रही थीं। अंतर इतना था कि बृजेश सिंह जेल के अंदर था और मुख्तार बाहर।
एक साथ सात हत्या करने की वजह से बृजेश सिंह का टेरर तो बन ही चुका था त्रिभुवन सिंह का साथ पाकर यह टेरर पूरे पूर्वांचल में काम करने लगा था। उस समय पूर्वांचल में दो गैंग हुआ करती थी एक साहिब सिंह की दूसरी मजनू सिंह की। हत्या, अपराध और ठेकेदारी, हर जगह दोनों गैंग आमने-सामने खड़े दिखते। त्रिभुवन सिंह, साहिब सिंह गैंग का था जिसकी वजह से बृजेश सिंह की इंट्री भी साहिब सिंह गैंग में हो गई। त्रिभुवन भी अपराध के इस खेल में इसीलिए आया था क्योंकि उसे भी अपने परिवार के कुछ लोगों और कांस्टेबल भाई राजेंद्र सिंह की हत्या का बदला लेना था। राजेन्द्र की हत्या का आरोप था मजनू गैंग के साधू सिंह और उनके नए-नए बने शिष्य मुख्तार पर।
एक दिन बृजेश सिंह और त्रिभुवन सिंह जेल से फरार हो गये। फरार होने के बाद दोनों ने एक अस्पताल में साधू सिंह की हत्या कर दी। साधू सिंह को मुख्तार अपना गुरु मानता था इसलिए अब मुख्तार का सबसे जरूरी काम था बृजेश सिंह और त्रिभुवन सिंह को रास्ते से हटाना। इसी बीच कुछ दिन के लिए बृजेश सिंह पूर्वांचल से बाहर हो गया। दरअसल, अब बृजेश सिंह पूर्वांचल से निकलकर अपने कारोबार को नई ऊंचाई देना चाहता था और पैसे भी कमाना चाहता था, इसी सोच के साथ वह झारखंड के कोल माफिया और विधायक सूर्यदेव सिंह के पास पँहुच गया और सूर्यदेव का कारोबार देखने लगा। इस काम से बृजेश सिंह ने जमकर पैसा कमाया और हत्या के छह मामलों का आरोपी भी बना। इसी बीच वह अपनी सीमा बड़ी करने के लिए शूटर के रूप में उस डॉन के पास मुंबई पँहुच गया, जिसकी सीमाएं देश के बाहर तक फैली हुई थी और नाम था दाऊद इब्राहिम।
दाऊद ने सुने हुए किस्से के साथ बृजेश सिंह का स्वागत जरूर किया पर दाऊद का भरोसा जीतने के लिए जरूरी था कि बृजेश सिंह कुछ करतब भी दिखाते। दाऊद ने परखने के लिहाज से बृजेश सिंह को पहला काम सौंपा, अपने बहनोई पारकर के हत्यारों की हत्या करने का। सितंबर 1992 में दाऊद के इशारे पर बृजेश सिंह ने गवली गैंग के शैलेश हलदरकर समेत चार लोगों को जेजे अस्पताल के अंदर गोलियों से भून दिया। इस घटना के चार मृतकों में दो पुलिस के जवान भी थे, जो अस्पताल की सुरक्षा में तैनात थे। इस घटना ने बृजेश सिंह की धाक को बड़ी पहचान दे दी। पुलिस ने बृजेश सिंह पर टाडा और मकोका के तहत कार्यवाही की लेकिन सबूत के अभाव में 2008 में कोर्ट ने उसे बरी कर दिया।
झारखंड और मुंबई के बीच बृजेश सिंह अपने कारोबार को पूर्वांचल में भी बढ़ा रहा था। इसे और बढ़ाने के लिए उसने अपने सबसे बड़े दुश्मन मुख्तार पर जुलाई 2001 में उस समय हमला कर दिया, जब मुख्तार मुहम्मदाबाद से मऊ जा रहा था। रास्ते में उसरी चट्टी गाँव में बृजेश गैंग ने मुख्तार के काफिले पर ताबड़तोड़ गोलियां चलाई। मुख्तार अंसारी किसी तरह बचने में कामयाब रहा, लेकिन उसके दो गनर मारे गए। यहीं से बृजेश सिंह को यह भी समझ में आ गया कि अगर अब भी इस काली दुनिया में बने रहना है तो सफेद पोशाक राजनीति से दोस्ती करनी पड़ेगी।उसने भाजपा नेता कृष्णानन्द राय का दामन थाम लिया। मुख्तार के भाई के खिलाफ चुनाव जीतने के लिए कृष्णानन्द को भी बृजेश सिंह के टेरर की जरूरत थी। यह साथ रंग लाया और 2002 के विधानसभा चुनाव में कृष्णानन्द ने मुख्तार के भाई अफजल अंसारी को हरा दिया। अब बृजेश सिंह ने कृष्णानन्द को चुनाव जिता दिया था तो स्थिति यह बन गई थी कि सैयां भये कोतवाल, अब डर काहे का । अब ठेकेदारी और रंगदारी, हर जहग बृजेश सिंह की हनक चल रही थी और मुख्तार जेल में था। इसे मुख्तार बर्दाश्त नहीं कर पा रहा था, जिसकी वजह से 29 नवंबर को मुख्तार गैंग के लोगों ने कृष्णानन्द की हत्या कर दी। इस हत्याकांड में कृष्णानन्द के कई और लोग भी मारे गए उसके बाद से बृजेश सिंह जान बचाने के लिए उत्तर प्रदेश से भाग गया।
2003 में कोल माफिया सूर्यदेव सिंह के बेटे राजीव रंजन के अपहरण और हत्या में भी बृजेश सिंह का नाम आया था, पर बाद में वहाँ से भी नाम हट गया था। 2005 के हत्याकांड के बाद से तीन साल तक बृजेश सिंह का कहीं कोई अता-पता नहीं था। साल 2008 में दिल्ली पुलिस की स्पेशल टीम ने बृजेश सिंह को उड़ीसा के भुवनेश्वर से गिरफ्तार कर लिया। वहाँ वह अरुण कुमार बनकर रह रहा था। 13 साल तक जेल में रहने के बाद 2022 में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने बृजेश सिंह को रिहा कर दिया।
बृजेश सिंह के परिवार से राजनीति में सबसे पहले इनके बड़े भाई उदयभान सिंह उर्फ चुलबुल सिंह 1995 में आए। वह जिला पंचायत सदस्य बने और बाद में जिला पंचायत अध्यक्ष भी चुन लिए गए। वह वाराणसी सीट से दो बार भाजपा के टिकट पर एमएलसी भी चुने गए। बाद में इसी सीट पर उनकी पत्नी अन्नपूर्णा सिंह बसपा के टिकट पर चुनी गईं, इसके बाद जेल से ही बृजेश सिंह ने निर्दलीय चुनाव लड़कर इस सीट को अपने नाम भी किया। 25 साल से यह सीट इनके ही परिवार के कब्जे में है। त्रिस्तरीय चुनाव, ब्लाक प्रमुखी से लेकर चंदौली की सैयदराजा सीट और वाराणसी की एमएलसी सीटों पर परिवार का दबदबा आज भी बना हुआ है। 2008 में जेल भले हो गई थी पर जज़्बा कम नहीं हुआ था।
बृजेश सिंह अपराध और राजनीति की दुनिया में भले ही अन्य माफियाओं की ही तरह रहें, पर उनके व्यापार का सिंडिकेट उन्हें अन्य माफियाओं से बहुत आगे खड़ा कर देता है। बृजेश सिंह ने रेलवे के स्क्रैप बेचने के जिस कारोबार की शुरुआत की थी बाद में उसे उत्तर प्रदेश से दिल्ली, मुंबई, झारखंड और उड़ीसा तक फैलाया। जमीन के बाहर और उसके अंदर की चीजों को भी अपने कारोबार में शामिल किया। कोयला, गिट्टी, रेता के साथ शराब और रियल स्टेट के धंधे में भी जमकर धन कमाया। अब जब की वह जेल से रिहा हो चुके हैं तो ज्यादातर लो प्रोफ़ाइल रहकर ही काम करते हैं ताकि जरायम की दुनिया में नाम के साथ जुड़ी अपराधों की लिस्ट से उनका नाम जल्दी से जल्दी बाहर आ सके।
हाई प्रोफ़ाइल बृजेश सिंह कब तक लो प्रोफ़ाइल रह सकेंगे यह तो वक्त बताएगा। फिलहाल, अभी एक शांतिपूर्ण राजनीतिक जीवन जीने का इरादा तो दिखा ही रहे हैं। बृजेश सिंह के बदले की आग जब बवंडर बनी थी तब जो डर उनके नाम से कायम हुआ था वह आज भी वाराणसी को उनके होने का एहसास तो कराता ही रहता है।