~ रीता चौधरी
औरत का कोई घर नहीं होता
ना मायका ना ससुराल!
जहां पैदा होती है, बड़ी होती हैं
पढ़ती है, लिखती हैं
जी जान से सब की सेवा करतीं हैं।
घर को सजाती हैं, सब सांवरती हैं
पिता का सर दबाती हैं,l
थक जाए मां तो पैर दबाती हैं!
बाबजूद इतनी सेवा के
कोई उसे घर में रखना नहीं चाहता हैं
मां-बाप हर समय यही सोचते हैं
कब इसके हाथ पीले होंगे
कब घर से विदा होगी?
और एक दिन कन्यादान के नाम पर
हमेशा हमेशा को अपने कलेजे के टुकड़े को
आंखों के तारे को विदा कर देते हैं।
और खुश होकर बार-बार कहते हैं
चलो एक जिम्मेदारी से मुक्त हुए।
और ऊपर से तंज कसते हैं
बेटियों से नहीं बेटों से वंश चलते हैं!
ससुराल में जाकर भी सुकून नहीं मिलता
पल भर को भी दम लेने को चैन नहीं मिलता
सबकी पसंद का, खाना नाश्ता बनाना
उनके बाद पूरे घर के कपड़े धोना
हर समय घुंघट की ओट में रहना
ऊंची आवाज में ना बोलना गलत सही सबकी सुनना!
शाम होते ही फिर वही क्रम दोहराना
चूल्हा चौका करना सबका खाना बनाना
साथी बच्चों की देखभाल करना पड़ता है!
हर तरह से उनका ख्याल रखना पड़ता है
खिला पिलाकर सुलाना पड़ता है
बीमारी की हालत में जग-जग के रात बिताना पड़ता है!
सब कुछ सह जाती है हंस-हंसकर
औरत भी न जाने किस मिट्टी की बनी होती है
ससुराल हो चाहें मायका
उसकी हर जगह दुर्गति होती है!
औरत कितनी भी पढ़ी लिखी हो
चाहे किसी पद पर हो,उसका काम यही है
यकीन मानों सच कह रहा हूं
औरत को कभी भी आराम नहीं है!
औरत सबकी चिंता करती है
सबके लिए जीती, सब के लिए मरती है
पर उसकी कोई परवाह नहीं करता
उसकी कोई चिंता नहीं करता!
एक औरत का फर्ज सबके लिए है
लेकिन औरत के लिए किसी का कोई फर्ज नहीं है
क्या पत्थर की बनी है
उसके अंदर तुम्हारी तरह जान नहीं है?
क्या वह तुम्हारी तरह एक इंसान नहीं है?
तुम्हारे दिल में हजारों अरमान है
क्या उसके दिल में तुम्हारी तरह अरमान नहीं है?
किस बात से डरते हो, क्यों नहीं देते औरत को
अपने बराबर का अधिकार
अगर औरत को सम्मान नहीं दे पाए तो सारी मान मर्यादा, इज्ज़त प्रतिष्ठा, पढ़ाई लिखाई है बेकार!
अगर जरा सी गलती हो जाए तो
घर बालें कहते हैं, कहीं और ठिकाना ढूंढ लो
तुम्हारा है ही क्या यहां ?
अपने रहने के लिए
कोई और आशियाना ढूंढ लों
एक औरत की नहीं
यह हर औरत की कहानी है.