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स्कूली बस्ते चेक करवाए तो सबकी आंखें फटी रह गईं

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ललित वर्मा
हाल ही में आई एक खबर ने सबको चौंकाया। बेंगलुरु के एक स्कूल में प्रिंसिपल को शिकायत मिली कि बच्चे बैग में मोबाइल फोन छिपाकर ला रहे हैं। बैग चेक करवाए तो सबकी आंखें फटी रह गईं। 8वीं, 9वीं और 10वीं क्लास के स्टूडेंट्स के बैग में कंडोम, गर्भ निरोधक गोलियां, लाइटर, सिगरेट, वाइटनर जैसी चीजें निकलीं। पानी की बोतलों में शराब थी। कुछ स्कूलों ने पैरंट्स को स्कूल बुलाया और उनसे बात की। ज्यादातर ने कहा कि बच्चों के साथ बैठकर बात करेंगे। इससे ज्यादा वे बोल भी नहीं सकते थे। आखिर उनसे किसी ने पूछा भी नहीं होगा कि अब तक बात नहीं कर रहे थे क्या!

आपको इस खबर से हैरानी हो सकती है, मुझे नहीं हुई। इसलिए कि यह नई बात नहीं है। 2004 में दिल्ली के एक स्कूल में हुआ एमएमएस कांड सबको याद होगा। मोबाइल फोन में कैमरा और ब्लूटूथ आने लगे थे। स्कूली बच्चों के बीच क्या चल रहा था, यह कैमरे में आ गया था। आप कहेंगे कि मोबाइल फोन आने से बच्चों पर खराब असर पड़ने लगा। ऐसा भी नहीं है। उससे पीछे चलते हैं। मैं अपनी आठवीं क्लास की बात करता हूं।

1995-96 के आसपास वीसीआर का चलन था। हम छोटे शहरों के बच्चे दो-तीन महीने में एक बार केवल तभी वीसीआर पर फिल्में देख पाते थे, जब कोई किराए पर इसे लाता था। लेकिन दिल्ली में तब घर में वीसीआर/वीसीपी रखे जाने लगे थे। मैं कभी छुट्टियों में आता था तो मेरी उम्र के ही बच्चों के पास ऐसा कुछ देख लेता था कि झुरझुरी छूट जाती थी। जैसे एक बार मुझे पता चला कि यहां तो 8वीं-9वीं क्लास के बच्चे अडल्ट या पोर्न फिल्मों की विडियो कैसेट तक अपने बैग में लेकर स्कूल चले जाते हैं। ये कैसेट साइज में एक किताब जितनी बड़ी होती थीं, उसके बावजूद उनको इसे बैग में रखते घबराहट नहीं होती थी। स्कूल में ये एक्सचेंज की जाती थीं।

यह बताने का मकसद केवल इतना है कि इस उम्र में बच्चों की जिज्ञासाएं क्या होती हैं। हो सकता है अब वे और कम उम्र में आने लगी हों। लेकिन आप सोचिए कि समस्या का पता होने के बाद भी हमारी शिक्षा प्रणाली और पैरंट्स के बच्चों के साथ व्यवहार में क्या बदलाव आया है। क्या इन दोनों में से किसी ने इस समस्या को खत्म करने के लिए कोई खास कदम उठाया? सेक्स एजुकेशन पर कोई बात होती है तो विरोध के स्वर पहले सुनाई देने लगते हैं। बच्चों के मनोविज्ञान से जुड़ी समस्याओं पर कोई खुलकर बात नहीं करता। आप कितने स्कूलों में ऐसे काउंसलर देखते हैं, जिनके पास जाकर बच्चे बिना डर और झिझक के अपनी समस्या शेयर कर सकें। और तो और, पैरंट्स खुद कितना बच्चों से इन मामलों पर बात करते हैं? बिल्ली को देखकर कबूतर आंखें बंद कर लेगा तो खतरा टल जाएगा क्या?

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