मुनेश त्यागी
आजकल "कश्मीर फाइल्स" फिल्म को लेकर देश में काफी हंगामा मचा हुआ है। क्या कश्मीर में प्रत्येक मुसलमान घृणित, क्रूर और कृतघ्न है? यह गलत है। क्या कश्मीरी मुसलमानों की इंसानियत मर चुकी है? यह गलत है। कश्मीर फाइल पर हर कोई अपने जैसा सुनना चाहता है, वह सच्चाई को जानना ही नहीं चाहता, सारे सांप्रदायिकों की यही दशा है। किस्सों के आधार पर बनाई गई है फिल्म हकीकत से बहुत दूर है। यहां पर हम यह कहना चाहेंगे कश्मीरी पंडितों या मुसलमानों के साथ आतंकवाद की जो भी घटनाएं हुई थी उनको किसी भी तरह से जायज नहीं ठहराया जा सकता एकदम से देश विरोधी संविधान विरोधी और कानून विरोधी थी उनका हमारे देश की रक्षा या जनता या विकास से कुछ लेना-देना नहीं था वह एकदम आतंकवादी घटना थी जिसका सर्वसम्मति से विरोध किया जाना चाहिए
निर्देशक फिल्म दिखाने से ज्यादा अपना कुछ दिखाना चाहता है जो हकीकत और सत्यता पर आधारित नहीं है, वह मनगढ़ंत और झूठ है और कश्मीर में घटी घटनाओं के खिलाफ है। यह लोगों पर अच्छा प्रभाव छोड़ने वाली फिल्म नहीं है इस फिल्म में अभिव्यक्ति की आजादी का गलत प्रयोग किया गया है सच के लिफाफे में गलत परोसा गया है।
उस समय 1990 में कश्मीर में कई सालों से आतंकवाद फैला हुआ था मगर बहुत सारे मुसलमानों ने हिंदुओं को बचाया, रक्षा की और शरण दी, मगर यह सब बातें और हकीकत इस फिल्म में सिरे से गायब है। फिल्म असली आतंकवाद पर निशाना नहीं लगाती, आतंकवादियों की निशानदेही नहीं करती, बल्कि खास धर्म के लोगों के खिलाफ नफरत फैलाती है यह फिल्म नफरत से भरी हुई है घटना से भरी हुई है मुसलमानों को खलनायक दिखाया गया है कि सारे मुसलमान और इस्लाम धर्म इंसानियत से दूर हैं।
इस फिल्म को प्रधानमंत्री और राज्य सरकारें प्रमोट कर रही हैं और ये लोग हिटलर के तौर-तरीकों को आगे बढ़ा रहे हैं। फिल्म में वामपंथियों, प्रगतिशील, धर्मनिरपेक्ष बुद्धिजीवियों पर जमकर कीचड़ उझाली गई है जो हकीकत के विपरीत है। कोई भी प्रगतिशील वामपंथी बुद्धिजीवी आतंकवाद में शामिल नहीं था बल्कि उसके खिलाफ लड़ रहे थे और वह मर रहे थे। यह सरकार की नाकामी और असफलता थी, जनता या मुसलमानों की नही। हमारे देश में और जम्मू-कश्मीर में अच्छे मुसलमान भी हैं अच्छे हिंदू हैं, बुरे मुसलमान भी हैं, मगर पूरी की पूरी कौम खराब नहीं हो सकती।
इस फिल्म के द्वारा सोसाइटी को चार्ज किया जा रहा है उसे उकसाने की कोशिश की जा रही है ताकि जनता की मूलभूत समस्याओं से जनता का ध्यान हटाया जा सके। 1990 का आतंकवाद कानून व्यवस्था की समस्या थी, मुसलमानों या हिन्दुओं की नही यह फिल्म लोगों में ज़हन में जहर भर्ती है। कश्मीरी पंडितों को निकाला जाना सरकार की नाकामी थी, समाज के लोगों के नही। उस समय जगमोहन राजपाल थे नोन-कांग्रेसी सरकार थी। वी पी सिंह नेतृत्व में सरकार बनी हुई थी, जिसे बीजेपी समर्थन दे रही थी, यह एक संयुक्त सरकार थी। सरकार ने उस समय के आतंकवाद को रोकने के लिए क्या किया, इस पर फिल्म कोई रोशनी नहीं डालती।
वह आतंकवाद था सीमा पार से आतंकवाद था जिससे समय रहते मुकाबला नही किया गया इस बात को भी फिल्म में नहीदिखाया गया। उस आतंकवाद में हिंदुओं की रक्षा करते हुए हजारों मुसलमान और सिख मारे गए थे उनकी मौतों को क्यों नहीं दिखाया गया है इस पर बहुत बड़ा सवालिया निशान उठता है। बीजेपी की 12 साल की सरकारों ने कश्मीरी पंडितों के पुनर्वास का कोई काम नहीं किया है। अब अपनी नाकामी को छुपाने के लिए, समस्याओं को मुसलमानों के सर मढा जा रहा है जो सरासर गलत है, देशद्रोह है, अनैतिक है और देश की बुनियाद के खिलाफ है।
गोधरा पर बनी फिल्म "पर्जानिया" फिल्म पर आज तक रोक लगी है, "गुजरात फाइल्स" किताब जो आयोग राणा अय्यूब ने कई साल पहले लिखी थी और जिस में मोदी सरकार की दंगों में संलिप्तता पाई गई थी आज तक भी प्रतिबंधित किया हुआ है, ये कौन सी मानसिकता और नीतियां हैं? पुलिस को इस फिल्म को देखने के आदेश दिए जा रहे हैं हिटलर की नाजी आवाज को फिर से बोलने की कोशिश है।
इस फिल्म के साथ साथ "दा शूद्र" और "जय भीम" फिल्म भी देखी जानी चाहिए, तभी इस फिल्म को बनाने वालों की जहनियत और सोच का सही पता चलेगा और जनता को फिल्म बनाने का मकसद समझ में आएगा। एक आरटीआई खुलासे में पता चला है कि 1990 के कश्मीर के दंगों में 1635 से ज्यादा मुसलमान और सिख मारे गए थे जबकि इस्लामिक आतंकवादियों द्वारा 89 कश्मीरी पंडितों की हत्या की गई थी। यह संख्या इस फिल्म में क्यों नहीं दिखाई गई क्योंकि ऐसा बताने से फिल्म के इतने जहरीलापश और सोच पर पानी पड़ जाता। उस समय के दंगों में बहुत सारे मुसलमानों और सिखों ने हिंदुओं की जान बचाई थी, उन्हें शरण दी थी उनकी मदद की थी और ऐसा करते हुए उन्होंने अपनी जान बचाई थी अपनी जान की कुर्बानी दी थी ताकि जनता की एकता देश की रक्षा अखंडता और कश्मीर की हिफाजत की जा सके यह सब जानबूझकर इस फिल्म में नहीं दिखाया गया है।
यह फिल्म भाजपा और संघ द्वारा बनाई गई है, फिल्म के निर्देशक, कलाकार, प्रोमोटर्स सब के सब भाजपा से जुड़े हुए हैं। यह इतिहास का मिथ्याकरण है, मनगढ़ंत घटनाओं का पुलिंदा है।
राजनीतिक संकट को सांप्रदायिक नजरिए से पेश किया जा रहा है। फिल्म मुसलमानों और कम्युनिस्टों की विरोधी है। आजादी के आंदोलन बे भी हिन्दू महासभा और rss के लोग कम्युनिस्टों, मुसलमानों और ईसाइयों को भारत का आंतरिक दुश्मन बता रहे थे यह फिल्म भी ऐसा ही कर रही है, जो कि हकीकत के विपरीत है।
इस देश की रक्षा करते हुए इस देश के आजादी के आंदोलन में बहुत सारे कम्युनिस्ट और मुसलमानों ने, आजादी की प्राप्ति के लिए अपनी जानें कुर्बान की थीं जो इस फिल्म में नहीं बताई और दिखाई गई है। यह फिल्म नहीं दिखाती कि काश्मीर और पाकिस्तानी सांप्रदायिक आतंकवादियों के पीछे कौन से ताकतें खड़ी थीं और आज भी खड़ी हुई हैं। यह एक सांप्रदायिकता ताने बाने को तोड़ने वाली और मुसलमानों के खिलाफ नफरत फैलाने वाली गलत तथ्यों पर आधारित फिल्म है, जिसे हिंदुत्ववादी सांप्रदायिक ताकतों और सरकार का संरक्षण और शह प्राप्त है जिसे स्वीकार नहीं किया जा सकता।
आइए देखें, कश्मीर विस्थापितों का इस फिल्म के बारे में क्या कहना है? उनका कहना है कि इस पिक्चर बनने से न तो घर वापसी होगी न देश और कश्मीर का भला हो सकता है। यह फिल्म हिंदू और मुसलमान में खाई पैदा करने के लिए बनाई गई है। मोदी सरकार ने हमारे लिए आज तक भी कुछ भी नहीं किया है। हकीकत यह है कि वहां पर हिंदू और मुसलमान दोनों को मारा गया था जिसे फिल्म में नहीं दर्शाया गया है। यह फिल्म नफरत फैलाने के लिए बनाई गई है। इससे ना किसी की घर वापसी होगी ना किसी का भला होगा और हमें आज भी राजनीतिक उद्देश्यों के लिए यूज किया जा रहा है। हमारी दूरियों को बढ़ा बढ़ाया जा रहा है और यह फिल्म राजनीतिक लाभ के लिए बनाई गई है। हिंदू मुसलमानों के खिलाफ नफरत फैला कर दोनों तरफ के पहलुओं को नहीं दिखाया गया है। वहां पर हमारा दो तरफा जनसंहार हुआ था, दोनों तरफ के हिंदू और मुसलमान मारे गए थे, दोनों के जख्मों को दिखाएं। पाकिस्तानी आतंकवादियों ने हिंदू मुसलमान दोनों को मारा था, यह फिल्म में नहीं दिखाया गया है। इस सरकार ने हमारी आज तक भी सुध नहीं ली है। यह फिल्म असली हकीकत को नहीं दिखा रही है और हिंदू और मुसलमान में नफरत फैला रही है हमें ऐसी फिल्म स्वीकार नहीं है।
इस देश के मीडियाकर्मियों, बुद्धिजीवियों लेखकों, कवियों, वामपंथियों और देश को चाहने वाले लोगों की और तमाम बुद्धिजीवियों की जिम्मेदारी है कि इस फिल्म की नियत और सोच को जानें और जनता को अवगत कराएं कि इस फिल्म का और कोई मकसद नहीं है, यह फिल्म सिर्फ और सिर्फ मुसलमानों और कम्युनिस्टों के खिलाफ जहर उगलना चाहती है और नफरत का माहौल बनाए रखना चाहती है, इसे कतई भी स्वीकार नहीं किया जा सकता है। इस फिल्म को बनाने वाले तमाम के तमाम लोग कानून विरोधी देश विरोधी संविधान विरोधी और भारत की एकता और अखंडता और गंगा जमुनी तहजीब के विरोधी हैं और वह इस देश के अम्नोअमान में विश्वास नहीं रखते।