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आस्था और अंधविश्वास:बाबाओं की पौ-बारह

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शैलेन्द्र चौहान

एक नौ साल का बच्चा अपने स्कूल के हॉस्टल में सोया हुआ था। तभी एक शिक्षक ने उसे गोद में उठाने की कोशिश की। इससे बच्चे की नींद खुल गई और उसने शोर मचा दिया। स्थिति बिगड़ती देख बच्चे का गला दबाने की कोशिश की गई। लेकिन शोर मचने की वजह से दूसरे बच्चे जाग गए और उस बच्चे की जान बच गई।

मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक, यह घटना छह सितंबर की रात को हाथरस के डीएल पब्लिक स्कूल में हुई।

कुछ दिन बाद इसी स्कूल के एक दूसरे छात्र की संदिग्ध परिस्थितियों में मौत हो गई। उस 11 साल के बच्चे का शव स्कूल प्रबंधक की गाड़ी में मिला। हाथरस पुलिस ने बच्चे की हत्या के आरोप में स्कूल प्रबंधक दिनेश बघेल, उसके पिता यशोदन समेत पांच लोगों को गिरफ्तार किया।

कई मीडिया रिपोर्ट्स में पुलिस के हवाले से बताया गया कि आरोपी यशोदन तांत्रिक क्रिया करता था। उसने स्कूल की तरक्की और कर्ज से उबरने के लिए बच्चे की बलि देने का फैसला लिया था। एक बच्चा तो उनके चंगुल से बच गया लेकिन कुछ दिन बाद एक दूसरे बच्चे की कथित तौर पर बलि दे दी गई। उसे गला दबाकर मार डाला गया।

जिस स्कूल की तरक्की के लिए मासूम बच्चे की हत्या की गई, अब उसके गेट पर ताला पड़ा है। सभी बच्चे हॉस्टल छोड़कर जा चुके हैं। इस मामले में पुलिस की जांच अभी जारी है। ऐसे में और नए तथ्य सामने आ सकते हैं। लेकिन इस घटना ने दिखा दिया है कि हमारे समाज में अंधविश्वास की जड़ें कितनी गहरी हैं।

उत्तर प्रदेश के हाथरस जिले में हुआ यह अपराध मानव बलि का पहला या इकलौता मामला नहीं है। देश के अलग-अलग हिस्सों से इस तरह के मामले सामने आते रहते हैं। एनसीआरबी के डेटा के मुताबिक, भारत में 2022 में मानव बलि के आठ मामले सामने आए थे।

साल 2014 से 2022 तक नौ सालों में मानव बलि के कारण 111 लोगों की जान चली गई। इनमें बच्चे और बड़े दोनों शामिल थे। मानव बलि अंधविश्वास के चरम पर पहुंचने का उदाहरण है।

मानव बलि देने वाले लोग बहुत अंधविश्वासी होते हैं। वे उस बारे में तर्क के साथ नहीं सोचते हैं। उन्हें बस लगता है कि नरबलि देने से उनकी इच्छा पूरी हो जाएगी, जबकि असल में ऐसा कुछ नहीं होता है।

पहले ऐसी कहानियां ज्यादा सुनने को मिलती थीं। अंग्रेजों के जमाने में भारतीय ठेकेदार रेलवे लाइन या पुल बनाने से पहले नरबलि दिया करते थे। इसकी कई रिपोर्ट्स गजट में भी मिलती हैं। लेकिन अब ऐसे मामलों की संख्या काफी कम हो चुकी है।

अवैज्ञानिक सोच का एक और उदाहरण है जादू टोना। अगर एक साल में नरबलि के 10 मामले सामने आते हैं तो जादू-टोने की वजह से लोगों को मार देने के मामले इसके 10 गुना ज्यादा होते हैं। एनसीआरबी के आंकड़े इस बात को सही साबित करते हैं।

2022 में जादू-टोने के चलते 85 लोगों की मौत हुई थी। 2021 में यह संख्या 68 थी। साल 2013 से 2022 तक दस सालों में जादू-टोने की वजह से 1,064 लोगों ने अपनी जान गंवाई।

इसमें बड़ी संख्या उन महिलाओं की थी, जिन्हें डायन बताकर और जादू-टोना करने का आरोप लगाकर मार डाला गया। डायन प्रथा के चलते सबसे ज्यादा हत्याएं छत्तीसगढ़, ओडिशा, मध्य प्रदेश और झारखंड में होती हैं।

भारत में ऐसे काफी मामले सामने आते हैं, जिनमें किसी व्यक्ति को सांप के काटने पर अस्पताल की बजाय झाड़-फूंक करवाने ले जाया जाता है। वहां स्थिति नहीं सुधरती, तब परिजन पीड़ित को अस्पताल लेकर जाते हैं। लेकिन तब तक देर हो चुकी होती है और पीड़ित की जान चली जाती है।

ऐसे मामलों में अगर पीड़ित को सीधे अस्पताल ले जाया जाए तो जान बचने की ज्यादा संभावना होती है। लेकिन झाड़-फूंक पर अंधविश्वास होने के चलते कई लोग ऐसा नहीं करते।

आदिम मनुष्य अनेक क्रियाओं और घटनाओं के कारणों को नहीं जान पाता था। वह अज्ञानवश समझता था कि इनके पीछे कोई अदृश्य शक्ति है। वर्षा, बिजली, रोग, भूकंप, वृक्षपात, विपत्ति आदि अज्ञात तथा अज्ञेय देव, भूत, प्रेत और पिशाचों के प्रकोप के परिणाम माने जाते थे।

ज्ञान का प्रकाश हो जाने पर भी ऐसे विचार विलीन नहीं हुए, प्रत्युत ये अंधविश्वास माने जाने लगे। आदिकाल में मनुष्य का क्रिया क्षेत्र संकुचित था इसलिए अंधविश्वासों की संख्या भी अल्प थी। ज्यों-ज्यों मनुष्य की क्रियाओं का विस्तार हुआ त्यों-त्यों अंधविश्वासों का जाल भी फैलता गया और इनके अनेक भेद-प्रभेद हो गए।

अंधविश्वास सार्वदेशिक और सार्वकालिक हैं। विज्ञान के प्रकाश में भी ये छिपे रहते हैं। अभी तक इनका सर्वथा उच्छेद नहीं हुआ है। जादू-टोना, शकुन, मुहूर्त, मणि, ताबीज आदि अंधविश्वास की संतति हैं। इन सबके अंतस्तल में कुछ धार्मिक भाव हैं, परंतु इन भावों का विश्लेषण नहीं हो सकता।

इनमें तर्कशून्य विश्वास है। मध्य युग में यह विश्वास प्रचलित था कि ऐसा कोई काम नहीं है जो मंत्र द्वारा सिद्ध न हो सकता हो। असफलताएं अपवाद मानी जाती थीं। इसलिए कृषि रक्षा, दुर्गरक्षा, रोग निवारण, संततिलाभ, शत्रु विनाश, आयु वृद्धि आदि के हेतु मंत्र प्रयोग, जादू-टोना, मुहूर्त और मणि का भी प्रयोग प्रचलित था।

मणि धातु, काष्ठ या पत्ते की बनाई जाती है और उस पर कोई मंत्र लिखकर गले या भुजा पर बांधी जाती है। इसको मंत्र से सिद्ध किया जाता है और कभी-कभी इसका देवता की भांति आह्वान किया जाता है। इसका उद्देश्य है आत्मरक्षा और अनिष्ट निवारण।

योगिनी, शाकिनी और डाकिनी संबंधी विश्वास भी मंत्र विश्वास का ही विस्तार है। डाकिनी के विषय में इंग्लैंड और यूरोप में 17वीं शताब्दी तक कानून बने हुए थे। योगिनी भूतयोनि में मानी जाती है। ऐसा विश्वास है कि इसको मंत्र द्वारा वश में किया जा सकता है।

फिर मंत्र पुरुष इससे अनेक दुष्कर और विचित्र कार्य करवा सकता है। यही विश्वास प्रेत के विषय में प्रचलित है। फलित ज्योतिष का आधार गणित भी है। इसलिए यह सर्वांशतः अंधविश्वास नहीं है। शकुन का अंधविश्वास में समावेश हो सकता है। अनेक अंधविश्वासों ने रूढ़ियों का भी रूप धारण कर लिया है।

अंधविश्वासों का सर्वसम्मत वर्गीकरण संभव नहीं है। इनका नामकरण भी कठिन है। पृथ्वी शेषनाग पर स्थित है, वर्षा, गर्जन और बिजली इंद्र की क्रियाएं हैं, भूकंप की अधिष्ठात्री एक देवी है, रोगों के कारण प्रेत और पिशाच हैं, इस प्रकार के अंधविश्वासों को प्राग्वैज्ञानिक या धार्मिक अंधविश्वास कहा जा सकता है।

अंधविश्वासों का दूसरा बड़ा वर्ग है मंत्र-तंत्र। इस वर्ग के भी अनेक उपभेद हैं। मुख्य भेद हैं रोग निवारण, वशीकरण, उच्चाटन, मारण आदि। विविध उद्देश्यों की पूर्ति के लिए मंत्र प्रयोग प्राचीन तथा मध्य काल में सर्वत्र प्रचलित था. मंत्र द्वारा रोग निवारण अनेक लोगों का व्यवसाय था।

विरोधी और उदासीन व्यक्ति को अपने वश में करना या दूसरों के वश में करवाना मंत्र द्वारा संभव माना जाता था। उच्चाटन और मारण भी मंत्र के विषय थे। मंत्र का व्यवसाय करने वाले दो प्रकार के होते थे-मंत्र में विश्वास करने वाले, और दूसरों को ठगने के लिए मंत्र प्रयोग करने वाले।

असल में भारत में केंद्रीय स्तर पर अंधविश्वास के खिलाफ कोई कानून मौजूद नहीं है। लेकिन कई राज्यों ने अपने स्तर पर इसके खिलाफ कानून बनाए हैं। महाराष्ट्र, कर्नाटक और गुजरात में मानव बलि, काला जादू और अमानवीय दुष्ट प्रथाओं को खत्म करने के लिए कानून बनाए गए हैं।

वहीं बिहार, छत्तीसगढ़, झारखंड, ओडिशा, राजस्थान और असम में डायन प्रथा को रोकने के लिए कानून मौजूद हैं। हालांकि, यह सवाल जरूर उठता है कि ये कानून जमीनी स्तर पर किस हद तक लागू हुए हैं और कितने कारगर हैं। महाराष्ट्र में 2013 में जादू-टोना विरोधी कानून बना।

उस समय राज्य में कांग्रेस और एनसीपी की सरकार थी। तब इस कानून को लागू करने और इसके प्रचार-प्रसार के लिए एक समिति गठित की गई थी। लेकिन राज्य में भाजपा सरकार आने पर इसका काम रोक दिया गया।

2019 में सरकार बदली तो काम शुरू होते-होते कोविड आ गया। फिर 2022 में दोबारा से सत्ता परिवर्तन हो गया। तब से उस समिति का काम पूरी तरह से बंद हैं।

भारत के कई प्रमुख टीवी चैनल और समाचार चैनलों पर दरबार लगा है। बड़ी संख्या में भक्तों के बीच चमत्कारी शक्तियों का दावा करने वाले शख्स सिंहासन पर विराजमान हैं। लोग प्रश्न पूछते हैं और बाबा जवाब देते हैं। सामान्य परेशानी वाले सवालों के असामान्य जवाब।

एक छात्रा पूछती है, बाबा मैं आर्ट्स लूं, कॉमर्स लूं या फिर साइंस। बाबा कहते हैं, पहले ये बताओ आखिरी बार रोटी कब बनाई है, रोज एक रोटी बनाना शुरू कर दो। एक और हताश और परेशान व्यक्ति पूछता है, बाबा नौकरी कब मिलेगी। बाबा कहते हैं क्या कभी सांप मारा है या मारते हुए देखा है।

ये है निर्मल बाबा का दरबार। जनता मस्त है और बाबा भी। बाबा की झोली लगातार भर रही है। बाबा के नाम प्रॉपर्टी भरमार है। होटल हैं, फ्लैट्स हैं, बड़ी-बड़ी गाड़ियां हैं। कई अखबार दावा करते हैं कि जनवरी से बाबा के बैंक खाते में हर दिन एक करोड़ रुपए आ रहे हैं।

ये है 21वीं सदी का भारत। आधुनिक भारत। अग्नि-5 वाला भारत। कौन कहता है भारत में पैसे की कमी है। गरीब से गरीब और धनी से धनी लोग, बाबा के लिए अपनी संपत्ति कुर्बान कर देना चाहते हैं।

बाबाओं को लेकर भारतीय जनता का प्रेम नया नहीं है। कभी किसी बाबा की धूम रहती है तो कभी किसी बाबा की। ये बाबा भी बहुत सोच-समझकर ऐसे लोगों को अपना लक्ष्य बनाते हैं, जो असुरक्षित हैं। आस्था और अंधविश्वास के बीच बहुत छोटी लकीर होती है, जिसे मिटाकर ऐसे बाबा अपना काम निकालते हैं।

लेकिन नौकरी के लिए तरसता व्यक्ति या फिर बेटी की शादी न कर पाने में असमर्थ कोई गरीब इन बाबाओं का टारगेट नहीं। इनका टारगेट हैं मध्यमवर्ग, जो बड़े-बड़े स्टार्स और व्यापारिक घराने के लोगों की ऐसी श्रद्धा देखकर इन बाबाओं की शरण में आ जाता है।

बच्चन हों या अंबानी, राजनेता हों या नौकरशाह, इन बड़े लोगों ने जाने-अनजाने में इस अंधविश्वास को बल दिया है। ऐश्वर्या राय की शादी के समय अमिताभ बच्चन का ग्रह-नक्षत्रों को खुश करने के लिए मंदिरों का दौरा, अंबानी बंधुओं में दरार पाटने के लिए मोरारी बापू को मिली अहमियत।

चुनाव जीतने के लिए बाबाओं के चक्कर लगाते नेता। दरअसल समृद्धि अंधविश्वास भी लेकर आती है। वजह अपना रुतबा, अपनी दौलत कायम रखने का लालच। जो जितना समृद्ध, वो उतना ही अंधविश्वासी। और फिर समृद्धि के पीछे भागता मध्यमवर्ग, इस मामले में क्यों पीछे रहेगा।

इसलिए इन बाबाओं की पौ-बारह हैं। फिर क्यों न ये बाबा डायबिटीज से पीड़ित व्यक्ति को खीर खाने की सलाह देंगे। आखिर हमारी मानसिकता ही तो ऐसे तथाकथित चमत्कारियों को मनुष्येतर और संपन्न बना रही है।

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