डॉ. विकास मानव
_इमं जीवेभ्यः परिधिं दधामि मैषां नु गादपरो अर्थमेतम्।_
_शतं जीवंतु शरदः पुरूचीरन्तर्मृत्युं दधतां पर्वतेन।।_
(ऋग्वेद 10/18/4)
भावार्थ:
परमात्मा ने मनुष्य की आयु सौ वर्ष से भी अधिक बनाई है। इसलिए मनुष्य संयम और ब्रह्मचर्य से रहे और अकाल मृत्यु को प्राप्त न हो।
स्रष्टा ने अपने अदभुत कौशल से इस सृष्टि की रचना की है। वह सर्वत्र व्याप्त है। वही सबका नियंता है, विधाता है। सब कुछ उसी के विधान एवं नियमों के अनुसार चलता है।
कहीं कोई व्यवधान नहीं होता। संसार में चौबीस करोड योनियों में जीव जंतुओं की उत्पत्ति भी उसी ने की है। एक से एक अलौकिक शरीर रचना, कोई इतना छोटा की आंख से दिखाई भी न दे और कोई मनुष्य के भार से भी दस, बीस, पचास गुणा भारी।
प्रत्येक के जीवन क्रम की भी एक निश्चित आयु सीमा। किसी का जीवन पल दो पल का, किसी का कुछ घंटो का, कुछ दिनों का या फिर कुछ वर्षों का। चारों ओर आंख खोलकर देखें तो यह नियमबद्धता देखकर मन अभिभूत हो जाता है।
परमेश्वर ने सभी जीव जंतुओं को जो असंख्य अनुदान वरदान दिए हैं उनमें से आयु का वरदान भी है। हर एक की आयु सीमा निश्चित है। पेड़-पौधों की भी आयु उसने निश्चित कर रखी है। गेहूं के पौधे की आयु लगभग चार माह है।
उसी अवधि में वह बीज से बढकर पल्लवित, पुष्पित और फलित होता है और फिर सूख जाता है। हम चाहें कि एक महीने में पककर गेहूं तैयार हो जाए या फिर वह पौधा साल भर तक हरा भरा बना रहे, तो यह प्रकृति के नियमों के विरूद्ध है और संभव ही नहीं है। यही दशा सारे पेड़ पौधे और जीवधारियों की है।
इसी प्रकार उसने मनुष्य की आयु सीमा भी सौ वर्ष की निश्चित की है और उससे यह अपेक्षा की है कि वह उस परिधि को न तोडे, उसका उलंघन न करे। सभी मनुष्य सौ वर्ष तक और उससे भी अधिक जीवित रहें और इससे पूर्व न मरें।
अकाल मृत्यु को हम अपने पुरूषार्थ से दूर कर दें। यह परमेश्वर का अपने प्रिय पुत्रों को वरदान भी है और आदेश भी।
हमें भगवान ने कृपापूर्वक यह सर्वगुण संपन्न मानव शरीर कुछ विशेष प्रयोजन के लिए ही दिया है। उसकी पूर्ति तभी संभव है जब शरीर को पूरी तरह से परिपुष्ट व निरोग रखा जाए। यह तभी होगा जब हम अपना खान पान, आहार विहार और समस्त दिनचर्या इस प्रकार की रखें कि रोगी ही न हों। संसार में कोई भी जीव जंतु कभी भी बीमार नहीं पडता।
सब प्रकृति के साथ तालमेल रखते हुए अपनी पूर्ण आयु का भोग करते हैं। वे समय पर मरते तो हैं पर कभी रोगी नहीं होते। इसके विपरीत मनुष्य हर समय प्रकृति के प्रतिकूल आचरण करता है और कोई न कोई रोग उसे घेरे ही रहता है।
भोजन पर जितना व्यय होता है उससे भी अधिक औषधियों पर। भार स्वरूप जीवन का बोझ ढोते हुए वह असमय ही मर जाता है।
मनुष्य को चाहिए की संयम और ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए श्रम, तप व पुरूषार्थ को अपने जीवन का अंग बनाए जिससे मृत्यु भी यदि उसके द्वार पर आए तो यह देखकर लौट जाए कि अभी तो यह व्यक्ति कार्य में व्यस्त है और इसे चलने का अवकाश नहीं है।