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निर्णायक मोड़ पर खड़ा है किसान आंदोलन

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योगेन्द्र यादव

डल्लेवाल जी का 55 दिन का अनशन इस मुद्दे को फिर से राष्ट्रीय पटल पर ले आया, लेकिन सरकार की मंशा स्पष्ट है—पहले 50 दिन तक वार्ता नहीं, फिर जूनियर अफ़सर के ज़रिए गोलमोल चिट्ठी।

अब किसान आंदोलन के सामने तीन बड़ी चुनौतियाँ हैं:

1️⃣ एमएसपी की क़ानूनी गारंटी का एक स्पष्ट और व्यावहारिक खाका तैयार करना।

2️⃣ संघर्ष को पंजाब-हरियाणा से आगे, पूरे देश के किसानों, खेतिहर मज़दूरों और छोटे उत्पादकों तक पहुँचाना।

3️⃣ सबसे बड़ी चुनौती—किसान आंदोलन की एकजुटता। संयुक्त किसान मोर्चा और अन्य संगठनों के बिना यह संघर्ष आगे नहीं बढ़ सकता।

अब सवाल यह है कि इस आंदोलन को नई दिशा कैसे मिलेगी?

किसान आंदोलन इस पड़ाव से आगे कैसे राष्ट्रीय संघर्ष को अगले पड़ाव तक ले जाने का काम कौन करेगा? यह ऐतिहासिक मुहिम अंतिम मुकाम तक कैसे पहुंचेगी? किसान नेता जगजीत सिंह डल्लेवाल द्वारा 55 दिन अनशन के बाद डॉक्टरों की सलाह मुताबिक मैडिकल सहारा लेने के निर्णय के उपरांत ये सवाल किसान आंदोलन के सामने मुंह बाए खड़े हैं।

इन सवालों पर आने से पहले यह दर्ज करना जरूरी है कि डल्लेवाल के इस ऐतिहासिक अनशन ने एम.एस.पी. के सवाल को एक बार फिर राष्ट्रीय पटल पर पहुंचा दिया है। संयुक्त किसान मोर्चे के तत्वावधान में हुए ऐतिहासिक दिल्ली मोर्चे ने देश के सभी किसानों तक ‘एम.एस.पी.’ शब्द पहुंचा दिया था। पहली बार बहुत से किसानों को पता चला कि सरकार हर साल उन्हें एम.एस.पी. नामक न्यूनतम मूल्य पर समर्थन देने का वादा करती है, जो उन्हें वास्तव में हासिल नहीं होता। लेकिन धीरे-धीरे यह सवाल जनता के मानसपटल से ओझल होने लगा था। सरकार भी एम.एस.पी. के सवाल पर एक पालतू कमेटी बनाकर सो गई।

लोकसभा चुनाव में कांग्रेस और इंडिया गठबंधन की अन्य पार्टियों द्वारा अपने घोषणापत्रों में एम.एस.पी. की कानूनी गारंटी की मांग को शामिल करने से इस मुद्दे को बल मिला लेकिन कुछ वक्त के लिए ही। एस. के. एम. (अराजनीतिक) और किसान मजदूर समिति द्वारा चलाए गए इस आंदोलन को इस बात का श्रेय जरूर दिया जाना चाहिए कि इस मुश्किल दौर में उन्होंने इस मुद्दे को जिंदा रखा और देश के किसानों के संघर्ष को इस मुकाम तक पहुंचाया।

इसके बावजूद आज एम.एस.पी. आंदोलन के भविष्य पर सवाल इसलिए है कि अब आगे का रास्ता साफ नजर नहीं आता। बेशक इस मोर्चे में शामिल किसान संगठनों ने यह स्पष्ट किया है कि आंदोलन

अब किसान आंदोलन के अगले दौर की तैयारी

स्थगित नहीं किया गया है। डल्लेवाल ने भी यह घोषणा की है कि डॉक्टर के इलाज के अलावा वह अन्न ग्रहण नहीं करेंगे। इस लिहाज से उनका अनशन जारी है। लेकिन जाहिर है कि डॉक्टरों द्वारा ड्रिप और इंजैक्शन के जरिए दिए गए पोषण से डल्लेवाल के जीवन पर मंडरा रहा संकट टल गया है, साथ ही सरकार के सिर पर लटकी तलवार भी हट गई है।

यह भी सच है कि पंजाब और हरियाणा के बीच खनौरी और शम्भू बॉर्डर पर एक साल से ज्यादा समय से चल रहा किसान आंदोलन अगर सरकार को झुकाने की स्थिति में होता तो डल्लेवाल के आमरण अनशन की नौबत ही न आती।

सवाल इसलिए और गहरा होता है क्योंकि इस मुद्दे पर सरकार की नीयत साफ नहीं है। या यूं कहें कि

यह साफ है कि केंद्र सरकार एम.एस.पी. की मांग को स्वीकार करने वाली नहीं है। पहले 50 दिन तक सरकार ने किसान आंदोलन से बात करना भी गवारा नहीं समझा। फिर किसी राजनीतिक प्रतिनिधि या कृषि विभाग के सचिव को भेजने की बजाय सिर्फ एक ज्वॉयंट सैक्रेटरी रैंक के अफसर को भेजा। जो चिट्ठी दी, वह भी इतनी गोलमोल है कि उससे यह भी पता नहीं चलता कि किसानों की वार्ता किससे होगी और किन मुद्दों पर होगी।

यूं भी पिछली बार किसानों को लिखी चिट्ठी के वादों से मुकरने वाली सरकार पर किसान कैसे भरोसा करें? वार्ता में पंजाब के मंत्रियों को बुलाने से यह अंदेशा होता है कि केंद्र सरकार इसे राष्ट्रीय मुद्दे की

बजाय पंजाब के किसानों के विशेष पैकेज तक सीमित रखने की चाल चल सकती है। ऐसी वार्ताओं के इतिहास से यही सबक मिलता है कि तारीख पर तारीख लगती जाएगी, सरकार चाय-बिस्किट पेश करती रहेगी, मीटिंग और मिनट्स से फाइलों का पेट भरता रहेगा।

मुद्दे की बात, यानी एम.एस.पी. की कानूनी गारंटी को छोड़कर सरकार बाकी सब मुद्दों पर बात करेगी – फसल चक्र का डाइवर्सिफिकेशन, पराली जलाने की समस्या, पंजाब की फसल खरीदी की सीमा आदि। सरकार को वार्ता का स्वांग करना है, इससे न कुछ निकलना है, न कुछ निकलेगा।

यानी एक बात साफ है। किसान आंदोलन के नवीनतम प्रयास से जो हासिल हुआ है, वह कोई छोटी बात नहीं है। लेकिन सिर्फ इसके सहारे देश भर के किसानों के लिए एम.एस.पी. की कानूनी गारंटी हासिल करना मुमकिन नहीं। इस संघर्ष को अंतिम मुकाम तक ले जाने के लिए एक और भी बड़े और राष्ट्रव्यापी आंदोलन की जरूरत होगी। ऐसे आंदोलन की योजना बनाते वक्त निम्न चुनौतियों का सामना करना होगा।

पहली, एम. एस.पी. की कानूनी गारंटी की मांग लागू करने का एक सोचा-समझा खाका पेश करना होगा। अक्सर किसान आंदोलन में इस मांग को या तो सिर्फ एम.एस. पी. से नीचे खरीद-फरोख्त पर कानूनी बंदिश लगाने या फिर सभी फसलों की सारी मात्रा की सरकारी खरीद की मांग के रूप में पेश किया जाता है। इससे किसान आंदोलन के विरोधियों को इस मांग को खारिज करने का मौका मिल जाता है।

पिछले कुछ समय से कई किसान संगठन (जिनसे इन पंक्तियों का लेखक भी जुड़ा है) इस मांग का

एक व्यावहारिक मॉडल पेश कर रहे हैं, जिसे अपनाने से किसी भी तार्किक चर्चा में किसान आंदोलन के हाथ मजबूत हो जाएंगे।

दूसरी, आंदोलन के अगले पड़ाव में इस संघर्ष को देशव्यापी बनाना पड़ेगा पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश और पूर्वोत्तर राजस्थान के किसानों के साथ-साथ बाकी देश के किसानों, गेहूं और धान के अलावा मोटे अनाज, दलहन, तिलहन, फल-सब्जी और दूध-अंडे के उत्पादकों तथा छोटी जोत वाले किसान, बटाईदार और खेतिहर मजदूर को भी इस संघर्ष से जोड़ना होगा।

तीसरी और सबसे बड़ी चुनौती इस निर्णायक संघर्ष के लिए किसान आंदोलन की एकता बनाने की है। अब तक दिल्ली के ऐतिहासिक मोर्चे का नेतृत्व करने वाला’ संयुक्त किसान मोर्चा’ खनौरी-शम्भू बार्डर पर चल रही इस मुहिम के साथ नहीं जुड़ा, हालांकि वह पूरी तरह इस मांग के साथ है। यानी कि देश में किसानों के सबसे बड़े संगठनों की ताकत अभी भी पूरी तरह इस संघर्ष में नहीं लगी। ‘संयुक्त किसान मोर्चा’ के जुड़े बिना यह आंदोलन सफलता के मुकाम तक नहीं पंहुच सकता।

बातचीत के कई दौर के बावजूद अनेक सांगठनिक और रणनीतिक कारणों से किसान आंदोलन के दोनों हिस्से जुड़ नहीं पाए हैं। जाहिर है, सरकार यही चाहती है। इतिहास के इस निर्णायक मोड़ पर किसानों, किसान नेताओं और किसान संगठनों को बड़े दिल और बड़ी सोच से काम लेते हुए अब इस आंदोलन को नई दिशा देनी होगी।

(लेखक जय किसान आंदोलन के संस्थापक हैं)

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