~डॉ. विकास मानव
महाकवि कालिदास ने रघुवंश में लिखा है कि वसिष्ठादि महर्षि ध्रुव के पास वाले तारों में भी रहते हैं। ये वहाँ के भूपों के यज्ञों में आकाश और पृथ्वी दोनों स्थानों से आते हैं।
दिग्भ्यो निमन्विताश्चैनमभिजग्मुर्महर्षयः।
न भीमान्येव धिष्ण्यानि हित्वा ज्योतिर्मयान्यपि॥
~रघुवंशम (१५ /४६)
किन्तु सत्य यह है कि आकाश के सुन्दर तारों के नाम पर महर्षियों के नाम बाद में रखे गये हैं और वे सब मांगलिक हैं। आचार्य वराहमिहिर ने सप्तर्षियों के विषय में यहाँ लिखा है कि उत्तर दिशा एक सौभाग्यवती हँसती हुई युवती है। वह एकावली आभूषण और श्वेतकमल की माला पहने है और ध्रुव तथा सप्तर्षियों को देख कर नाच रही है।
सैकावलीव राजति ससितोत्पलमालिनी सहासेव।
नाथवतीय च दिग्यैः कौबेरी सप्तभिर्मुनिभिः॥
हमारे ज्योतिषशास्त्र में दक्षिणायन अशुभ है और पूरा हिन्दूसमाज दक्षिण दिशा से भयभीत है। किसी को साहस नहीं है कि गृह का द्वार दक्षिण और कर दे। हमें ऐसा प्रतीत होता है कि रावण अभी भी दक्षिण में बैठा है और उधर जाने पर खा जायेगा। वह यमराज की दिशा है।
कई पुराणों ने भी लिख दिया है कि सब भीषण नरक दक्षिण में हो हैं (देखिए, आगे भूगोल वर्णन) उत्तर में ध्रुव और सप्तर्षि हैं इसलिये वह शुभ है पर हमें जानना चाहिए कि दक्षिण में अगस्त्य और मृगव्याध शंकर हैं, मलयाचल नरतुरंग और शिखावल (Mensa. Cantaurus, Pavo) हैं तथा मृग, आद्रा, हस्त, आषाढ़ा और रेवती आदि नक्षत्र हैं।
आकाश में ये तारे हैं तो धरती पर सागर, कृष्णा कावेरी, नर्मदा, गोदावरी, रामेश्वर, विष्णुकांची शिवकांची, घुष्मेवर, वैद्यनाथ, मीनाक्षी, मलिकार्जुन, नागेश्वर, भीमशंकर, त्रयम्बकेश्वर और पञ्चवटी हैं।
शंकराचार्य, रामदास समर्थ, शिवजी, तुकाराम, महर्षि रमण तथा महान् ज्योतिर्विदों को जन्मभूमियों हैं और भारतमाता का पूरा शरीर है तो दक्षिण दिशा भयावह कैसे हो सकती है। यहाँ लिखा है कि युधिष्ठर के समय में सप्तर्षि मघा में थे और उन्हें एक नक्षत्र पार करने में सौ वर्ष लगते हैं पर नक्षत्रों में इतनी गति नहीं है।
ये हैं चार नक्षत्रों की विकलात्मक वार्षिक गतियाँ :
आसन्मघासु मुनयः शासति पृथ्वीं युधिष्ठिरे नृपतौ॥३॥
एकैकस्मिनृक्षे शतं शतं ते चरन्ति वर्षाणाम्॥ ४॥
लुब्धक( १.३२)
स्वाती( २.२८)
अभिजित्( ०.३६ )
चित्रा( ०.०६)
यहाँ मरीचि, वसिष्ठ, अंगिरा, अत्रि, पुलस्त्य, पुलह और ऋतु ऋषियों में कुछ द्रव्य और गन्धर्व, देव दानव, शक, यवन ब्राह्मण आदि बाँट दिये गये हैं और लिखा है कि आकाश में जिस ऋषि की आकृति निर्मल रहेगी उस वर्ग का कल्प होगा और जो ऋषि, उल्का आदि से आहत होगा अथवा मलिन होगा उसका वर्ग विनष्ट हो जायेगा, पर सत्य यह है कि उल्काएँ सप्तर्षियों से बहुत नीचे हैं और सप्तर्षियों के मलिनत्व में हमारे नेत्रों का दोष है। वे मलिन होते ही नहीं और सप्तर्षियों का भिन्न भिन्न देशों में एवं वर्गों में बँटवारा अप्राकृतिक और अज्ञानजन्य है।
खगोलाध्याय में यहाँ तक ग्रहों के वैज्ञानिक, वैदिक, पौराणिक और ज्योतिष सम्बन्धी स्वरूपों का उनसे उत्पन्न भयों का तथा धूमकेतु, उल्का, इन्द्रधनुष, गन्धर्वनगर, अगस्त्य आदि खेचरों सम्बन्धी काल्पनिक भयों का संक्षिप्त वर्णन हुआ।
आचार्य वराहमिहिर के कथनानुसार उन्होंने अपने समय में उपलब्ध ग्रहों और शकुनादिकों के फलों (भय) का एक छोटा सा भाग लिखा है किन्तु उन्होंने जितना लिखा है उसका एक शतांश भी सत्य होता तो धरती पर प्राणियों का कहाँ दर्शन ही नहीं होता भयों के कुछ विषय आगे यथास्थान लिखे हैं।
आचार्य ने प्राचीन ग्रन्थों के अनेक शकुनों को छोड़ दिया है और स्वरशास्त्र छौंकशास्त्र, स्वप्नशास्त्र, पाशिकशास्त्र, ताजिकशास्त्र आदि को छुआ हो नहीं है। खंजन, छिपकली और गिरगिट सम्बन्धी भी कुछ ही बातें लिखी हैं। मैंने यहाँ उनके तलवार, मुकुट, मुर्गा, बकरा, हाथी, घोड़ा आदि के अशुभ लक्षणों और उनसे उत्पन्न भयों को नहीं हुआ है।
सबका संग्रह करने पर भयों का एक सागर बन जायेगा ताजिक, जातक, मुहूर्त, प्रश्न और गोचर की पोथियाँ भी इसी लेखनी इसी स्वाही और इसी मस्तिष्क से लिखी गयी हैं. अतः उनमें भी उतनी ही सचाई है जितनी इन भर्यो में ग्रहों सम्बन्धी कुछ अन्य विषय हैं।