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उत्तर प्रदेश भाजपा में ज़बरदस्त खींचतान,सहयोगियों के वार और योगी के पलटवार

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सैयद जै़ग़म मुर्तज़ा

उत्तर प्रदेश भाजपा में इन दिनों ज़बरदस्त खींचतान चल रही है। उप-मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य की मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से तल्ख़ी अब कोई ढकी-छिपी बात नहीं रह गई है। हालांकि देखने में अभी यह नाराज़गी सिर्फ सतही बयानबाज़ी तक सीमित है लेकिन मामला इतना हल्का भी नहीं है। भारतीय जनता पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व के अलावा राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (आरएसएस) इस मनमुटाव को ख़त्म करने की कोशिश कर चुका है। मगर सूत्र कह रहे हैं कि अभी तक की तमाम क़वायद नाकाम साबित हुई हैं। इसका प्रमाण यह कि योगी आदित्यनाथ ने गत 25 अक्टूबर को समाजवादी पार्टी की विधायक पल्लवी पटेल से मुलाकात की, जिन्होंने सिराथु विधानसभा क्षेत्र में केशव प्रसाद मौर्य को पटखनी दी थी।

दरअसल, केशव प्रसाद मौर्य और योगी आदित्यनाथ के बीच रस्साकशी अब बयानबाज़ी से काफी आगे निकल चुकी है। पार्टी में पिछड़े समाज का चेहरा माने जाने वाले केशव प्रसाद मौर्य अब आर-पार की लड़ाई के मूड में नज़र आ रहे हैं। हालांकि वे विपक्ष के कटाक्षों का जवाब भी दे रहे हैं, लेकिन अपनी ही सरकार को घेरने में भी कोई कोर-कसर नहीं छोड़ रहे।

इसकी बानगी हाल ही में संविदा कर्मियों की भर्ती में आरक्षण के सवाल पर लिखी गई एक चिट्ठी से मिलती है। हुआ यह कि उत्तर प्रदेश सूचना एवं जनसंपर्क विभाग में आउटसोर्सिंग और संविदा के ज़रिए 676 कर्मी भर्ती किए गए। इसपर केशव प्रसाद मौर्य ने कार्मिक विभाग से पूछ लिया कि इस भर्ती में आरक्षण नियमों का कितना अनुपालन हुआ है। ज़ाहिर है कि यह सवाल अपनी ही पार्टी की सरकार को मुश्किल में डालने के लिए पूछा गया, क्योंकि इस तरह की भर्तियों में आरक्षण का कोई प्रावधान या नियम प्रदेश में नहीं है।

अब आमने-सामने : योगी आदित्यनाथ व केशव प्रसाद मौर्य

वैसे सरकार की तरफ से भी जवाब आ सकता था कि आउटसोर्सिंग के लिए आरक्षण नियमों के अनुपालन का कोई आधार नहीं है। लेकिन सरकार ने न सिर्फ वायरल हुई इस चिट्ठी का जवाब दिया, बल्कि बाक़ायदा आंकड़ों के साथ कहा कि इस भर्ती में पिछड़ों को आरक्षण की सीमा से अधिक हिस्सेदारी मिली है। प्रदेश के कार्मिक विभाग के मुताबिक़ भर्ती किए गए 676 में से कुल 512 कर्मचारी आरक्षित श्रेणी के हैं। यह कुल भर्ती का लगभग 75 फीसद है। लेकिन सवाल है कि आख़िर सरकार को इस तरह का जवाब देने की ज़रूरत क्यों पड़ी? ऐसा इसलिए, क्योंकि प्रदेश में संविदा पर आउटसोर्स की गई भर्तियां न सरकार करती है और न ही संबंधित विभाग। यह काम उन निजी क्षेत्र की एजेंसियों के ज़िम्मे है, जिन्हें सरकार ने इस काम का ठेका दे रखा है।

ओबीसी बनाम अगड़े के बहाने

केशव प्रसाद मौर्य का पिछड़ों के लिए अचानक उमड़ा प्रेम लोगों के लिए हैरानी भरा है। इस मुद्दे पर लगभग सात साल वे तक़रीबन ख़ामोश रहे हैं। आरएसएस कहता रहा है कि “सभी हिंदू एक हैं और जातियां, अगड़ा-पिछड़ा करके उनको बांटने की साज़िश होती रही है।” केशव प्रसाद मौर्य ने भी अक्सर इस बात का समर्थन किया है। ऐसे में जब वे पिछड़ों के आरक्षण और हिस्सेदारी की बात कर रहे हैं तो सवाल उठना लाज़िमी है। इस मामले पर नज़र रखने वाले लोगों का कहना है कि उप-मुख्यमंत्री इस लड़ाई को अगड़ा बनाम पिछड़ा बनाने की जुगत में हैं।

स्थानीय वरिष्ठ पत्रकार यासिर रज़ा के मुताबिक़, “हाल के लोकसभा चुनाव में जिस तरह पिछड़ा वर्ग के कई समूहों ने समाजवादी पार्टी को लामबंद होकर वोट दिया है, उससे केशव प्रसाद मौर्य को हिम्मत मिली है। हालांकि अभी दस विधानसभा सीटों पर होने वाले उपचुनाव तक कुछ नहीं होगा, लेकिन पार्टी में गुटबाज़ी जिस स्तर तक पहुंच गई है, अब दोनों पक्षों में समझौता होने की उम्मीदें कम हैं।”

केशव प्रसाद मौर्य की शिकायतें

उप-मुख्यमंत्री और उनका समर्थन कर रहे कई विधायकों का आरोप है कि “मुख्यमंत्री किसी की नहीं सुनते। किसी का भी अपमान कर देते हैं। और तो और, अधिकारियों को निर्देश है कि उनके अलावा किसी की न सुनी जाए। ऐसे में कब तक सबकुछ शांत रहेगा?” हालांकि जब मनमुटाव होते हैं तो इस तरह के आरोप लगते ही हैं, लेकिन केशव प्रसाद मौर्य की नाराज़गी के पीछे कई और वजहें भी हैं। एक तो केशव प्रसाद मौर्य को लगता है कि 2017 के विधानसभा चुनाव में भाजपा को पिछड़ों के दम पर भारी-भरकम जीत मिली। चूंकि उस समय वे पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष थे, इसलिए मुख्यमंत्री बनने का पहला अधिकार उनका था। उनके साथ के लोग दावा भी करते हैं कि 2017 में केशव प्रसाद मौर्य को मुख्यमंत्री बनाने का वादा केंद्रीय नेतृत्व की तरफ से किया गया था। लेकिन ऐन मौक़े पर अमित शाह और योगी के बीच कुछ समझौता हुआ और केशव प्रसाद मौर्य को उप-मुख्यमंत्री पद से संतोष करना पड़ा।

इसके बाद 2022 के विधानसभा चुनाव में केशव प्रसाद मौर्य कौशांबी की सिराथु सीट से चुनाव हार गए। उनके समर्थकों ने आरोप लगाया कि भाजपा के ही कुछ लोगों ने उन्हें हराने की साज़िश रची।

हालांकि उत्तर प्रदेश में इस तरह की लड़ाई पहली बार नहीं हो रही है। कल्याण सिंह और राजनाथ सिंह के बीच की खींचतान कौन भूला होगा भला? सन् 1999 में कल्याण सिंह को इस कारण मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ा था। वर्ष 2002 का चुनाव उन्होंने राष्ट्रीय क्रांति पार्टी बनाकर लड़ा। लेकिन इस लड़ाई में न कल्याण सिंह बचे थे और न भाजपा सत्ता में काबिज रह पाई। आख़िरकार 2004 के लोकसभा चुनाव से पहले भाजपा ने कल्याण सिंह को दोबारा पार्टी में शामिल किया। लेकिन इस बीच पिछड़े वर्ग के लोग पार्टी से छिटककर दूर हो गए।

शायद इसीलिए अगड़ा बनाम पिछड़ा की बहस की शुरुआत करके केशव प्रसाद मौर्य भाजपा को मुश्किल में डाल रहे हैं। यह तथ्य किसी से छिपा नहीं है कि प्रदेश में भाजपा की लगातार जीत पिछड़ा वर्ग के मतदाताओं के बल पर ही होती रही है।

सहयोगियों के वार और योगी के पलटवार

केशव प्रसाद मौर्य के अलावा पार्टी के सहयोगी दलों में भी असंतोष साफ दिख रहा है। सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी (सुभासपा) के ओम प्रकाश राजभर और निषाद पार्टी के संजय निषाद लोकसभा चुनाव के बाद अपनी नाराज़गी जता चुके हैं। दोनों गुटों के नेता आपस में बैठकें कर रहे हैं। संजय निषाद जहां योगी की कार्यप्रणाली पर सवाल उठा चुके हैं, वहीं ओमप्रकाश राजभर केशव प्रसाद से मिलकर अपने इरादे ज़ाहिर कर चुके हैं। लेकिन इस बीच एक घटना और हुई है, जिससे तय हो गया है कि अब दोनों ख़ेमों में युद्धविराम होने वाला नहीं है। नौकरियों पर मौर्य की वायरल हुई चिट्ठी का जवाब देने के अलावा पूर्व विधायक उदयभान करवरिया की रिहाई बड़ा मुद्दा बनने वाली है।

उदयभान करवरिया समाजवादी पार्टी के विधायक रहे जवाहर यादव उर्फ जवाहर पंडित की हत्या के मामले में जेल में थे। 13 अगस्त, 1996 को जवाहर यादव की हत्या कर दी गई थी। इस घटना में एके-47 का इस्तेमाल हुआ था। प्रयागराज में करवरिया बंधु केशव प्रसाद मौर्य के प्रतिद्वंद्वी माने जाते हैं। ज़ाहिर है इस रिहाई से न सिर्फ क्षेत्र के राजनीतिक समीकरणों पर असर पड़ेगा, बल्कि केशव प्रसाद मौर्य की नाराज़गी में भी इज़ाफा होगा। अब देखना यह है कि उत्तर प्रदेश भाजपा की लड़ाई किस हद तक जाती है? इससे भी बड़ा सवाल यह है कि केंद्रीय नेतृत्व अब क्या केशव प्रसाद मौर्य के दबाव में मुख्यमंत्री बदलेगा, या उप-मुख्यमंत्री को केंद्र में समायोजित किया जाएगा? या फिर इस लड़ाई का कोई रामप्रकाश गुप्ता जैसा तीसरा निष्कर्ष निकलेगा, जैसा कि कल्याण सिंह और राजनाथ सिंह के विवाद में हुआ था?

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