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हिमांशु कुमार पर जुर्माना बनाम भारत की विकृत राजनैतिक व्यवस्था !

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अजय असुर

आम लोगों की ही तरह हिमांशु कुमार जी को भी ये भ्रम है कि ये लोकतंत्र, संविधान और न्यायालय आम जनता के लिए है ! इसलिए वो इसको बचाने और न्याय की उम्मीद में न्यायायल का दरवाजा खटखटाने की बात कर रहे हैं !यदि भारत की कथित लोकतांत्रिक व्यवस्था में बने जेल /अदालत /सेना /पुलिस /नौकरशाही वाकई में जनता के हितों के लिए बने होते, तो भारत के किसी भी प्रदेश के किसी भी थाने में, एक गरीब मेहनतकश की सुनवाई तक क्यों नहीं होती ? इसी कथित लोकतांत्रिक व्यवस्था के भारत महान में अपना दुख-दर्द और व्यथा सुनाने के लिए और प्राथमिकी दर्ज कराने के लिए गए हुए गरीब लोगों को यहीं के स्वर्ण थानेदार माँ-बहन की गाली देकर थाने से भगा देते हैं,यदि कोई गरीब बलात्कार पीड़िता महिला थानों में फरियाद लेकर जाती है तो उन्हीं थानों में उन्हीं बलात्कारियों और पुलिस वालों द्वारा पुनः उसके साथ दोबारा बलात्कार भी हो जाया करता है ! और साथी हिमांशु जी ! आप तो आदिवासियों के बीच काम करते हैं, वहाँ तो “पुलिस और सेना आदिवासियों के घर में घुसकर उनकी स्त्रियों के साथ बलात्कार करती है ! ” यह बात तो आपको बताने की जरूरत ही नहीं है, क्योंकि आपने ही कई बार पुलिस और सेना के इस घिनौने चरित्र को उजागर भी किया है ! 

        आप ने ही एक केस में बताया था कि एक बलात्कार पीड़िता आदिवासी महिला के साथ दोबारा थाने के अन्दर पुलिस वाले और वही बलात्कारी जो पहले बलात्कार किए थे पुनः दोबारा थाने में लगातार 5 दिनों तक बलात्कार करते रहे

 कथित भारतीय न्यायिक व्यवस्था केवल धनी लोगों के लिए ही है ! 

           अब बात अदालत की करते हैं,तो आप यह बताइये कि कभी किसी गरीब के मुँह से किसी रईस गुंडे से आजीज और परेशान होकर यह धमकी देते हुए आपने कभी सुना है कि “हम तुम्हें अदालत में देख लेंगे ! ” जाहिर है कभी नहीं !तो फिर ये अदालत में देख लेने की धमकी कौन देता है ? वही धनी और रईस गुंडे और व्यभिचारी लोग,जो महलों में रहते हैं और मँहगी कारों में घूमते हैं ! क्योंकि उन्हें अच्छी तरह से मालूम है कि भारतीय न्यायालयों में वास्तव में न्याय मिलता ही नहीं है, अपितु पैसेवालों और रसूखवालों के पक्ष में ही हमेशा फैसला सुनाया जाता है और वे पैसे वाले, रसूखदार गुंडे और बलात्कारी इस बात को बहुत ठीक से समझते हैं कि वे अपने पैसे और रसूख के बल पर अदालती फैसला निश्चित रूप से अपने हक में करवा ही लेंगे ! तभी पैसेवाले इतने आत्मविश्वास से अदालत में किसी गरीब इंसान को अदालत में घसीटने की धमकी दे देते हैं

 “कानून के साथ बहुत लंबे होते हैं ” आदि बातें केवल जुमले बाजी हैं !

             आप किसी भी केस को देख लें, जीत उसी की होती है जो सम्पति के मामले में सामने वाले से भारी होता है ! भारतीय न्यायालयों में अपवाद स्वरूप दिखाने के लिए और नज़ीर स्थापित करने के लिए दो-चार केस मे गरीबों के हक में भी फैसले दे दिए जाते हैं और उन्हीं फैसलों को नजीर बनाकर समाज में भारत की कथित न्याय व्यवस्था को प्रचारित किया जाता है,कि “कानून के हाथ बहुत लंबे होते हैं..,अदालत में देर से ही सही पर न्याय जरूर मिलता है…आदि-आदि “

           ऐसे ढेरों गलत धारणाएं मेहनतकश जनता के दिलो-दिमाग में बैठाई गईं हैं !ऐसे अपवाद स्वरूप फैसलों पर ढेर सारी फिल्में भी बनाई जाती हैं अभी हाल ही में “जय भीम ” फिल्म एक आदिवासी के साथ होनेवाली न्याय के ऊपर बनाई गयी थी और ऐसी फिल्में न्यायालय में विश्वास स्थापित करने के लिए ही बनाई जातीं हैं ! भारत में ऐसी कोई भी फिल्म नहीं बनतीं जो अदालत के वास्तविक चरित्र को उजागर करतीं हों,अक्सर ऐसी छद्म फिल्मों के आखिर में गरीबों को न्याय मिलना भी दर्शा दिया जाता है ! इन फिल्मों का एक ही उद्देश्य रहता है कि किसी भी तरह इस छद्म,भ्रामक कथित इस भारतीय न्याय प्रणाली में आम जनता का विश्वास कायम रहे ! जबकि वर्तमान समय के न्यायालयों में वास्तविकता बहुत ही कटु और खुरदुरा है ! 

             वैसे भी देश की बहुसंख्यक मेहनतकश  किसी भी व्यक्ति की आर्थिक हैसियत ही नहीं है कि वह अपनी याचिका देश की सबसे बड़ी अदालत मतलब सुप्रीम कोर्ट,नई दिल्ली में ले जाये ! सुप्रीम कोर्ट तो बहुत दूर की बात है, विभिन्न राज्यों के उच्च न्यायालयों तक में जाने की उनकी हैसियत नहीं है, परन्तु कोई गरीब आदमी हिम्मत कर, कहीं से कर्जा लेकर,अपनी जमीन जायदाद बेचकर हाई कोर्ट्स मेंचला भी जाता है,तो अंत में पराजित होकर अपनी थोड़ी-बहुत संपत्ति को भी गंवाकर,वह खुद को ठगा सा ही महसूस करता है ! यज्ञप्रश्न है कि आखिर ये अदालतें किसके लिए बनाई गई हैं ? जहां एक आम गरीब आदमी की पहुँच ही न हो !यदि ये सर्वोच्च अदालत भारत की बहुसंख्यक जनता के लिए होती तो उसके लिए आसानी से सुलभ भी होती !प्रश्न यह भी है कि आप जैसे लोग लाखों रूपयों की फीस देकर सर्वोच्च न्यायालय चले जाते हैं ! यदि उन 17 आदिवासियों को,जिनकी पूंजीवादी पिट्ठुओं की सेना और पुलिस ने नृशंस हत्या कर दी है,उनके परिजनों को सर्वोच्च न्यायालय में अपनी याचिका डालनी होती और आप ना होते तो क्या वे लोग सर्वोच्च न्यायालय में याचिका भी डाल पाते केस लड़ना तो बहुत दूर की बात है ! 

 इस कथित न्यायिक व्यवस्था में गरीब को जेल और धनिकों को बेल क्यों ? 

            ये कैसी भारतीय न्यायालय की व्यवस्था है, जहां कोई भी धनी और रसूखदार व्यक्ति एक गरीब और बेबस व्यक्ति पर उल्टा-सीधा आरोप लगाकर FIR दर्ज करवा दे और उस FIR के बेसिस पर एक आम गरीऊ आदमी को गिरप्तार कर जेल भेज दिया जाता है ! उन गरीबों को ताकतवर गुंडे गाली-गलौज, मार-पीट, बलात्कार और हत्या तक भी अक्सर करते ही रहते हैं !वही FIR या फिर उससे भी बड़ी धारा एक बड़े आदमी पर लगाकर दर्ज कराने पर उसके साथ पुलिस विशेष सम्मान जनक व्यवहार करती है और उसे हाई कोर्ट तक से एंटीसेपेट्री बेल यानी अग्रिम जमानत उसे बहुत आसानी से मिल जाती है ! चाहे वह बलात्कार की धारा लगी हो या मर्डर की हो ! अपने धन और रसूख के बल पर अग्रिम जमानत ले लेने के बाद वह पैसे और रसूख वाला गुंडा अब अपना सीना और चौड़ा करके सरेआम बाजार में घूमता है ! आखिर एक ही धारा के लिए न्यायालयों और पुलिसिया महकमें में अलग-अलग व्यवहार क्यों ? अलग-अलग व्यवस्था क्यों ? 

            बिना जुर्म साबित हुये पुलिस उस आम गरीब आदमी को तो मुजरिम की तरह ट्रीट कर जेल भेज देती है ! यदि आखिर में उसे न्याय मिल भी जाये और वह निर्दोष साबित होकर बाईज्जत बरी भी हो जाये तो प्रश्न है कि जो दो-चार-दस साल उसने जेल में समय काटा उसका कौन हिसाब देता है ? जेल में उसके काटे उसके अपमानजनक समय और स्थिति का आखिर कौन जिम्मेदार है ? इसको कोर्ट और कथित लोकतांत्रिक व्यवस्था के रखवाले सत्ता के कर्णधार इसका जबाब देंगे ? और गिरप्तारी के दौरान उसकी व उसके परिवार की जो सामाजिक प्रतिष्ठा को ठेस पहुंची उसका क्या होगा ? उसके जेल में रहने के दौरान उसके परिवार ने जो सामाज के ताने सहे और बेइज्जती हुई उसका क्या कोई हिसाब है ? और यदि पूरे परिवार में कमाने वाला वही व्यक्ति हो,जो जेल चला गया तो उस दु :स्थिति में उस परिवार के गुजर-बसर का कैसे हुई होगी ? यह कल्पनातीत है !इन सबका जिम्मेदार कौन है ? उसके निर्दोष साबित होने के बाद न्यायालय द्वारा अपनी गलती मानकर माफी मांग लेने से क्या उसको न्याय मिल गया ? ये ढेर सारे अनुत्तरित प्रश्न हैं,जिनका इस कथित लोकतांत्रिक व्यवस्था वाली सरकारों के कर्णधारों के पास कोई जवाब ही नहीं है ! यह कटु सच्चाई है !

– श्री अजय असुर,राष्ट्रीय जनवादी मोर्चा, लखनऊ, संपर्क –  88404 50621, ईमेल – ajaiasur@gmail.com

संकलन – निर्मल कुमार शर्मा, गाजियाबाद, उप्र संपर्क -9910629632, 

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