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पाँच पड़ावों ने बदला भारत में कम्युनिस्ट आंदोलन का इतिहास

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भारत में ही नहीं यूरोप या किसी अन्य महाद्वीप में आज कम्युनिस्ट आंदोलन बहुत मजबूत नहीं रह गया है. लेकिन इस दौरान इस विचारधारा की राजनीति भारत में अपने 100 साल पूरे कर लिए हैं.अब तक के इस सफ़र के पांच सबसे अहम पड़ाव और भारतीय राजनीति में उनके मायनों पर एक नज़र:

  • जीएस राममोहन
  • ,संपादक, बीबीसी तेलुगू सेवा

1. भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की ताशकंद में स्थापना-कांग्रेस के साथ रिश्ते

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की शुरुआत 17 अक्टूबर, 1920 को ताशकंद (तब सोवियत संघ का हिस्सा था, अब उज्बेकिस्तान का हिस्सा है) में हुई थी.

पार्टी की स्थापना सोवियत संघ में बोल्शेविक क्रांति की सफलता और दुनिया भर के देशों के बीच आपसी राजनीतिक और आर्थिक संबंध बनाने के ज़ोर वाले दौर में हुई थी.

पार्टी की स्थापना में मानवेंद्र नाथ रॉय ने अहम भूमिका निभाई थी.

एमएन रॉय

एमएन रॉय, उनकी पार्टनर इवलिन ट्रेंट राय, अबानी मुखर्जी, रोजा फिटिंगॉफ, मोहम्मद अली, मोहम्मद शफ़ीक़, एमपीबीटी आचार्य ने सोवियत संघ के ताशकंद में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के गठन की घोषणा की थी.

इनमें एमएन रॉय अमरीकी कम्युनिस्ट थे जबकि अबानी मुखर्जी की पार्टनर रोजा फिटिंगॉफ रूसी कम्युनिस्ट थीं.

मोहम्मद अली और मोहम्मद शफ़ीक़ तुर्की में ख़िलाफ़त शासन को लागू करने के लिए भारत में चल रहे ख़िलाफ़त आंदोलन के पक्ष में समर्थन जुटाने के लिए रूस में थे.

ये वो समय था जब गाँधी भी ख़िलाफ़त आंदोलन का समर्थन कर रहे थे. उस वक्त में ख़िलाफ़त आंदोलन के कई कार्यकर्ता भारत की यात्रा कर रहे थे. कुछ तो पैदल ही सिल्क रूट के रास्ते भारत आ रहे थे.

ये लोग तुर्की में ब्रिटिश उपनिवेश का विरोध कर रहे थे. यह दौर एक तरह से भूमंडलीय दौर था क्योंकि ब्रिटेन की कम्युनिस्ट पार्टी ने अपनी सरकार का विरोध करते हुए भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन को समर्थन देने का फ़ैसला लिया था.वीडियो कैप्शन,फर्जी एनकाउंटर में मारे गए थे आदिवासी

उस भूमंडलीय दौर का अंदाज़ा इससे लगाया जा सकता है कि एमएन रॉय भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना करने से पहले मैक्सिको की कम्युनिस्ट पार्टी (सोशलिस्ट वर्कर्स पार्टी) की स्थापना कर चुके थे.

देश भर में ब्रिटिश उपनिवेश के ख़िलाफ़ संघर्ष कर रहे विभिन्न समूह इस पार्टी की तरफ़ आकर्षित हुए. महत्वपूर्ण यह है कि अमरीका से चल रही गदर पार्टी के सदस्यों पर इसका काफी असर देखने को मिला.

इसी वक्त में ख़िलाफ़त आंदोलन में हिस्सा ले रहे युवा बड़ी संख्या में कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़ गए. इन सबके अलावा एमएन रॉय देश भर में विभिन्न समूहों को पार्टी से जोड़ने के काम में लग गए. हालाँकि पार्टी के कोई ठोस कार्यकारी योजना नहीं थीं.

कम्युनिस्टों ने उस वक्त भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की नीतियों के साथ काम करने, उनका आंतरिक हिस्सा होने और दिलचस्पी लेने वाले लोगों को साथ लेने का काम किया.

उन्होंने मुख्य तौर पर शहरी इलाक़े के अद्यौगिक क्षेत्रों में काम किया. मद्रास के कम्युनिस्ट नेता सिंगारावेल चेट्टियार उस वक्त सुर्खियों में आ गए थे जब उन्होंने 1922 में गया में आयोजित भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस सम्मेलन के दौरान संपूर्ण स्वराज की घोषणा की थी.

कम्युनिस्ट आंदोलन

पाबंदियाँ और षड्यंत्र के मामले

आज जब हम पाबंदियों और षडयंत्रों की बात करते हैं तो हमें इंदिरा गांधी के आपातकाल की याद आती है. लेकिन ब्रिटिश शासन के दौरान कम्युनिस्टों पर लगा प्रतिबंध इसकी तुलना में बेहद भयावह था.

कम्युनिस्टों पर षड्यंत्र करने के मामले अंग्रेजों के जमाने में लगे थे.

पेशावर, कानपुर और मेरठ षड्यंत्र मामले इनमें प्रमुख थे. पूरे शीर्ष नेतृत्व को कानपुर षड्यमंत्र मामले में फँसाया गया था. हर कोई यह समझ गया था कि ब्रिटिश सरकार एमएन रॉय और हर भारतीय कम्युनिस्ट के बीच होने वाले पत्राचार पर नजर रख रही थी.

इन पत्राचारों पर नज़र रखने के साथ ही षड्यंत्र के मामलों की शुरुआत हुई थी. एक तरह से हम कह सकते हैं कि ब्रिटिश शासन के बाद भारतीय सरकारों को ना केवल ब्रिटिश क़ानून बल्कि उनके नज़र रखने के तरीके विरासत में मिले थे.वीडियो कैप्शन,क्सल प्रभावित गढ़चिरौली की एक आशा वर्कर की क्या है नई सरकार से उम्मीद

कानपुर में बैठक और पार्टी का गठन

कानपुर वोल्शेविक षड्यंत्र मामले में जेल से बाहर आने के बाद नेताओं की दिसंबर, 1925 में कानपुर में बैठक हुई.

इस बैठक में तय किया गया कि ताशकंद में बनी पार्टी संचालन में आने वाली मुश्किलों को दूर करने के लिए कम्युनिस्टों को अखिल भारतीय स्तर पर एकजुट करने की ज़रूरत है. इसलिए एक बार फिर से कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया के गठन की घोषणा की गई.

इस बैठक के आयोजन में सत्यभक्त की अहम भूमिका रही थी. उन्होंने अपील की थी कि पार्टी का नाम इंडियन कम्युनिस्ट पार्टी रखा जाए लेकिन पार्टी के दूसरे नेताओं ने कवेंशन ऑफ़ इंटरनेशनल कम्युनिस्ट मूवमेंट का हवाला देते हुए कहा कि देश का नाम अंत में रखा जाएगा.

सिंगारावेल चेट्टियार को पार्टी का अध्यक्ष और सच्चिदानंद विष्णु घाटे को सचिव चुना गया. कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया के गठन के साल को लेकर विभिन्न मतों वाले लोगों में मतभेद है.

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) और विभिन्न मार्क्सवादी-लेनिनवादी दल ताशकंद में बनी पार्टी को भारत की पहली कम्युनिस्ट पार्टी के रूप में मान्यता देते हैं, लेकिन मौजूदा भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई) 1925 में बनी पार्टी को भारत की पहली कम्युनिस्ट पार्टी मानते हैं.यह मतभेद की स्थिति आज तक बनी हुई है.

पी सुंदरैया
इमेज कैप्शन,भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन के शुरुआती नेताओं में पी. सुंदरैया

श्रमिकों और किसानों की पार्टी

पार्टी के संचालन के लिए विभिन्न जगहों पर कम्युनिस्टों ने श्रमिकों और किसानों को जोड़ना शुरू किया. सरकार ने कार्रवाई शुरू की और लोगों को गिरफ़्तार किया. इसी दौर में भगत सिंह जैसे क्रांतिकारी साम्यवाद के प्रभाव में आए.

चिट्गांव में स्थानीय कम्युनिस्टों के संघर्ष को इतिहास में जगह मिली. नयी पीढ़ी के नेताओं में पुछलपल्ली सुंदरैया (हैदर ख़ान के शिष्य), चंद्र राजेश्वर राव, ईएमएस नंबुदिरापाद, एके गोपालन, बीटी रणदीवे जैसों ने उभरना शुरू किया.

मेरठ षड्यंत्र मामले में रिहा होने के बाद नेताओं ने कलकत्ता में 1934 में बैठक की और देश भर में आंदोलन को बढ़ाने के लिए संगठन को मज़बूत करने पर बल दिया. ब्रिटिश सरकार ने इन सबको देखते हुए 1934 में पार्टी पर पाबंदी लगा दी.

इसी साल जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में राष्ट्रीय कांग्रेस से जुड़ी कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी का सोशलिस्ट विंग के तौर पर गठन हुआ. लेकिन महत्वपूर्ण यह है कि देश के दक्षिण हिस्से में कम्युनिस्टों का नियंत्रण था.

इन लोगों ने कांग्रेस की पार्टी के साथ समाजवादी आंदोलन को बढ़ाने की रणनीति चुनी. वो कांग्रेस के साथ काम करने के अलावा कांग्रेस पार्टी के भीतर भी अपनी विचारधार को बढ़ाने की रणनीति को अपनाते थे. लेकिन जयप्रकाश नारायण और उनके साथी कम्युनिस्टों के प्रति अच्छी राय नहीं रखते थे और उन्होंने रामगढ़ में 1940 में आयोजित कांग्रेस बैठक में कम्युनिस्टों को बाहर का दरवाजा दिखा दिया.

बीटी रणदीवे

समाजवादियों की अपनी यात्रा में आज तक एक दूसरे प्रति आपसी अविश्वास की झलक मिलती है. यही बात कांग्रेसा के लिए भी कही जा सकती है.

कम्युनिस्टों के साथ कांग्रेस के रिश्तों को मापने के लिए कोई इस उदाहरण को देख सकता है- ऑल इंडिया स्टुडेंट्स फेडरेशन (एआईएसएफ) का गठन 1936 में पंडित जवाहर लाल नेहरू द्वारा किया गया था.

हालाँकि आने वाले वर्षों में उनके संबंधों में खटास आ गई थी. इसी दौर में न केवल छात्र संगठन की स्थापना हुई बल्कि महिला यूनियन, रैडिकल यूथ यूनियन और अखिल भारतीय प्रगतिशील लेखक संघ का गठन भी हुआ.

1943 में ही इंडियन पीपल्स थिएटर एसोसिएशन (इप्टा) का गठन किया गया. इस नाट्य समूह से मुल्कराज आनंद, कैफी आज़मी, पृथ्वीराज कपूर, बलराज साहनी, ऋत्वक घटक, उत्पल दत्त, सलिल चौधरी जैसी साहित्यिक और सांस्कृतिक हस्तिया जुड़ी हुई थीं. इन सबका सिनेमा के शुरुआती दौर में बहुत प्रभाव था.

वहीं दूसरी ओर, सुंदरैया, चंद्रा राजेश्वरा राव और नंबूदरीपाद जैसे नेताओं के नेतृत्व में सामाजिक आर्थिक आंदोलन को आगे बढ़ाया गया. सुंदरैया और नंबूदरीपाद पर गांधी का असर था और यह उनकी जीवनशैली और कामकाजी शैली से भी जाहिर होता है.

भारत छोड़ो आंदोलन

2. भारत छोड़ो आंदोलन और वो ऐतिहासिक ग़लती

कांग्रेस ने महात्मा गाँधी के नेतृत्व में 1943 में भारत छोड़ो आंदोलन का आह्वान किया था. लेकिन उस वक्त कम्युनिस्टों की सोच अलग थी. यह एक ग़लत फ़ैसला था और यह तबसे उन्हें सताता रहा है.

उन्होंने अपने आधिकारिक दस्तावेज़ों में यह स्वीकार किया है कि उस वक्त लिया गया फ़ैसला सही नहीं था. यह दूसरे विश्व युद्ध का समय था. तब नाज़ी सेनाएं सोवियत संघ को निशाना बना रही थीं. इसका असर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी पर भी साफ़ था जो उस वक्त सोवियत संघ के गहरे प्रभाव में थी.

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने विश्व युद्ध को ‘जनता का युद्ध’ कहा. इस युद्ध में जर्मनी, इटली और जापान की सेनाएं एक तरफ थीं तो दूसरी तरफ सोवियत संघ, ब्रिटेन, फ्रांस और अमरीका की सेनाएं थीं. यानी ब्रिटेन सोवियत संघ का सहयोगी था.

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी विश्लेषणों के बाद इस नतीजे पर पहुंची कि ब्रिटेन के ख़िलाफ़ भारत छोड़ो आंदोलन चलाने से नाजी सेनाओं को हराने के लिए मित्र राष्ट्र की सेनाओं की कोशिशों को धक्का लगेगा.वीडियो कैप्शन,वजूद तलाशता लेफ़्ट

ब्रिटिश सरकार से यह अनुरोध किया गया था कि नाज़ी सेनाओं से संघर्ष के लिए एक राष्ट्रीय सरकार का गठन किया जाना चाहिए.

वहीं महात्मा गाँधी का विचार था कि ब्रिटिशों को उनके घुटने पर लाने के लिए यह सबसे उपयुक्त समय है. हालाँकि भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने सोवियत संघ का पक्ष लिया और भारत छोड़ो आंदोलन का विरोध किया था.

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने उस वक्त इसकी वजह बताते हुए कहा था कि जापान की सेना बर्मा तक पहुंच गई थी और इस आंदोलन के चलते जापानी सेनाओं को रोकने में मुश्किल होगी. लेकिन भारत के लोगों पर इस तर्क का अच्छा प्रभाव नहीं पड़ा.

पार्टी के नेता भी इस बात पर सहमत होते हैं कि स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान कांग्रेस के साथ कई तरीकों से काम करने के बाद स्वतंत्रता संघर्ष की सबसे अहम लड़ाई भारत छोड़ो आंदोलन का विरोध करना पार्टी की ऐतिहासिक भूल थी.

1942 में ही ब्रिटेन ने भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी पर लगाई पाबंदी को हटा लिया था. इसके बाद पार्टी (जिसे आज कांग्रेस कहा जाता है) की पहली राष्ट्रीय बैठक का आयोजन तत्कालीन बंबई में 1943 में किया गया.

जाहिर है कि पार्टी अपनी स्थापना के 23 साल तक अपनी पहली बैठक का आयोजन नहीं कर सकी थी. स्थितियां ही ऐसी थीं, पार्टी और पार्टी के लिए काम करने वाले समूहों पर कई तरह की पाबंदियां लगी हुई थीं.

तेलंगाना का सशस्त्र संघर्ष
इमेज कैप्शन,तेलंगाना के सशस्त्र संघर्ष का प्रतीकात्मक चित्रण

3. पार्टी में विभाजन और आंदोलन का शहरों से ग्रामीण इलाक़ों में पहुंचना

भारत को 1947 में आज़ादी मिली. नेहरू खुद को समाजवादी भी मानते थे और यह कहा जाता था कि उन्होंने एक तरह की समाजवादी सरकार चलाई.

1949 में चीन में माओ के नेतृत्व में क्रांति हुई और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चीन ने सोवियत संघ की जगह लेनी शुरू कर दी. इसके अलावा किसानों के तीन आंदलोनों ने लोगों को चीन की साम्यवादी नीति की तरफ आकर्षित किया.

स्वतंत्रता के चलते भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी में उलझन की स्थिति बनी थी तो चीन की क्रांति ने कार्यक्रमों और रास्तों को लेकर कई सवाल और संदेह उत्पन्न किए.

आज़ादी मिलने के शुरुआती दिनों में सबसे बड़ी दुविधा यही थी कि कांग्रेस पार्टी के नेतृत्व में हासिल की गई स्वतंत्रता को कैसे समझा जाए. इसके साथ नेहरू सरकार को समझने की दुविधा भी थी.

आज़ादी के शुरुआती दिनों में कम्युनिस्टों ने प्रस्ताव पास करते हुए कहा था कि जो हासिल किया गया है वह केवल सत्ता का हस्तांतरण था कि ना कि स्वतंत्रता.

सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी ने भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी को कांग्रेस सरकार के ख़िलाफ़ लड़ाई न करने की सलाह देते हुए कहा कि यह राष्ट्रीय ‘बुर्जुआ वर्ग’ (अभिजात्य) के हाथ में ही नेतृत्व है.

इस कारण भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी में दो विचारधारा और खेमा बन गया है. सोवियत संघ की साम्यवादी नीति के मुताबिक पार्टी के अंदर एक समूह का तर्क यह था कि नेहरू स्वतंत्र भी हैं और स्वघोषित समाजवादी भी हैं.ऐसे में वामपंथियों को कांग्रेस के साथ काम करना चाहिए और उन्हें अपने पक्ष में करना चाहिए.वीडियो कैप्शन,गीता माओवादी दस्ते के लिए काम कर चुकी हैं, लेकिन अब उन्होंने नई शुरुआत की है.

वहीं दूसरा समूह इससे असहमत था और उसका मानना था कि भारत को पूरी आज़ादी नहीं मिली है और सरकार साम्राज्यवादियों की एक कठपुतली है और इसलिए चीन की नीतियों का अनुपालन करते हुए संघर्ष करना चाहिए.

तेलंगाना में सशस्त्र किसानों के संघर्ष, तेभागा किसान आंदोलन और पुन्नपा-वलयार किसान आंदोलनों का नेतृत्व कम्युनिस्टों ने किया था और इन आंदोलनों में जिस तरह से ग्रामीण किसानों से हिस्सा लिया, इससे पार्टी का बड़ा तबका चीन की नीतियों की तरफ आकर्षित हो गया.

यहाँ यह भी ध्यान देना होगा कि तेलंगाना सशस्त्र किसान संघर्ष के दौरान क़रीब 3,000 गांवों को निजाम के अधिकार से मुक्त कराया गया था और उसका संचालन कम्युनिस्ट गांवों की तरह किया गया जहां चीन की नीतियों की वकालत की गई.

उन लोगों का अनुमान था कि अगर इसी तरह का आंदोलन, इतनी ही ताक़त से पूरे देश भर में चलाया जाए तो भारत में क्रांति होगी. इस तरह का विचार रखने वाले लोगों को जल्दी ही यह महसूस हो गया कि निजाम की सेना से लड़ना एक बात है और देश की सेना से लड़ना एकदम दूसरी बात.

इस समय तक अंतरराष्ट्रीय कम्युनिस्ट संस्था ने अपना नाम बदल कर कॉमइंटरनेशनल से बदलकर कॉमनीइंफोर्म रख लिया और यह भी चीन की नीतियों की वकालत कर रहा था. इसलिए नेतृत्व में भी बदलाव दिखा.

चीन की नीतियों की वकालत करने वाले लोगों को भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी में तरजीह मिलने लगी. 1951 में चंद्र राजेश्वर राव ने बीटी रणदीवे की जगह पार्टी प्रमुख की जगह ली.

ईएमएस नंबूदरीपाद
इमेज कैप्शन,केरल के पहले वामपंथी मुख्यमंत्री ईएमएस नंबूदरीपाद

,केरल के पहले वामपंथी मुख्यमंत्री ईएमएस नंबूदरीपाद

तब तक तेलंगाना का सशस्त्र आंदोलन थम गया था. पार्टी के नेताओं में सशस्त्र आंदोलन को जारी रखने या बंद करने के लिए लंबी और व्यापक चर्चा हुई. पार्टी के चार नेताओं का समूह मास्को गया और इस मामले में स्टालिन से सलाह ली गई.

इस समूह में एम. बासवापुनैया, अजॉय घोष, एस.ए. डांगे और चंद्र राजेश्वर राव शामिल थे. सोवियत संघ से लौटने के बाद सशस्त्र आंदोलन की समाप्ति की घोषणा की गई और इससे 1952 के आम चुनाव में भागीदारी का रास्ता साफ़ हुआ.

हालांकि इस दौरान चीन की नीतियों को अपनाने की घोषणा करने में कोई बाधा नहीं थी यहां तक यह भी कहा जा सकता था कि चीन में पार्टी का चेयरमैन ही भारत में पार्टी का चेयरमैन है लेकिन तत्कालीन परस्थितियों को देखते हुए और दमन की आशंका जताते हुए पिछले अनुभवों के आधार पर दो धाराओं का प्रस्ताव रखा गया.

संरक्षित गुरिल्ला संघर्ष को रणनीतिक रूप में प्रस्तावित किया गया और संसदीय मार्ग को राजनीतिक सिद्धांत के तौर पर. इसी दौरान मदुरै में आयोजित पार्टी कांग्रेस में सत्तारूढ़ कांग्रेस सरकार के ख़िलाफ़ मज़बूती से लड़ने का फ़ैसला किया गया क्योंकि चीन की नीतियों वाला धड़ा प्रभुत्व में था.

दोनों धाराओं में किसे अपनाया जाए इसको लेकर असहमति के चलते पार्टी को नुकसान उठाना पड़ रहा था. जो भी प्रभुत्व रख रहा था पार्टी उसकी नीतियों को अपना रही थी.

1952 के आम चुनाव के दौरान भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी मुख्य विपक्षी दल बनकर उभरी. पार्टी के अधिकांश नेताओं को भरोसा था कि 1955 में हुए आंध्र प्रदेश के चुनाव में पार्टी को जीत मिलेगी लेकिन पार्टी के ख़िलाफ़ लोगों को डराने वाले और मिथ्या प्रचार अभियान और दूसरे मुद्दों के चलते वास्तविकता उम्मीदों से अलग साबित हुईं.

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