अग्नि आलोक
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सुब्रतो चटर्जी की पांच कविताएं

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1. मेरा आना

मेरा आना
एक बहस का आग़ाज़ था
और ये बहस बेमानी नहीं थी

मेरे आने से टूट गए कई विंब
ज़रख़रीद ग़ुलामों के चिकने चुपड़े चेहरे
जो तुम्हारे ज़ेहन में समा कर
सदियों से बनाते रहे तुम्हें क्लीव

मैं एक नुकीली पहाड़ की चोटी सा
उकेरता रहा आसमान की छाती पर नई नई तस्वीरें
और गुम भी होता रहा
गोधूली की किरणों की तरह
झोंपड़ों से उठते
शाम के धुएँ की ओट में

धत् तेरे की
इतने बोझिल शब्दों का भार लिए
मैं कैसे उतर पाऊँगा उस ढलान पर
जो रास्ता
सीधे उतरता है दिल में तुम्हारे

बस इसी बहस के आग़ाज़
और अंजाम में उलझा रहा ता उम्र…

2. अस्ताचल

धीरे-धीरे
दूर हो रहीं हैं
पथरीली ज़मीन पर
नाल ठुके
दौड़ते हुए
घोड़ों के टापों की दस्तकें

पथरीले किले के
सुनसान परकोटे पर
पसर गई है शाम

चुपके से
हाथ छुड़ा गया है दिन

इच्छाओं
आकांक्षाओं
आशा
निराशा की आवर्जनाएं
दूर पहाड़ों की तलहटियों में
जल रहीं हैं
झरे हुए पत्तों की तरह

परित्यक्त
पुराने किले के अनगिनत खोहों में
सरसराते हुए सांपों की तरह ही
खेलती है बसंती पवन
और
मुस्कुरा देता हूं मैं
अपने फेफड़ों में भरते हुए उन्हें

कभी
इन्हीं हवाओं पर सवार
आए थे तुम
जंगली फूलों का तीक्ष्ण गंध लिए
याद आता है

याद आता है
आंधियों के खिलाफ
मेरा दोनों बांहों को फैला कर
खुले मैदानों में दौड़ते हुए
किसी बाज़ सा
खुद को महसूस करना

याद आता है
रस्सियों के सहारे
किले की दीवार पर चढ़ना
अपने दांतों के बीच थामकर
एक गुलाब
सिर्फ़ तुम्हारे लिए

क्या मृत्यु का अर्थ
आकांक्षाओं के प्रति निरपेक्षता है ?

परित्यक्त किले के
अंधेरे परकोटे पर नृत्य रत है
बुझती हुई मशाल की
आखिरी लौ.

3. केंदू

क्यों फलते हो केंदू
क्यों झरते हो केंदू
जंगल के इस विशाल फैलाव में
झर झर झरते हुए
झरने सा
किस विशाल अस्तित्व को
जन्म देती तुम्हारी मृत्यु

महज़ तीन इंच की उंगलियों में थामी
ऊर्जा़
कब सेठों की गोदाम के रास्ते चलकर
छलनी कर जाती हैं अनगिनत छातियां
तुह्मे नहीं मालूम
तुह्मे नहीं मालूम
बेतरा में पलती
आने वाली पीढ़ियां
किस कदर कर्ज़दार हो रही है तुम्हारी
पतली उंगलियों के बीच ढलते हुए
बांसुरी सा
कब तक छेड़ोगे तान
मृत्यु का
केंदू !!

4. ख़त कहीं नहीं जाते

ख़त कहीं नहीं जाते
काग़ज़ से निकल कर
फूलों में ढल जाते
गोधूली की उड़ती धूल में
शाम के सिरहाने
सुर्ख़ रू चादर बिछा कर
रुपहले कंगन की तलाश में
वृत्त में घूमते
छू जाते हैं मुझे

ख़त कहीं नहीं जाते

आभासी स्वेद विंदुओं पर
परावर्तित फलक की ढलती रोशनियाँ
और श्वास प्रश्वास के छंद में बंधे
समंदर के खुलते और बंद होते होंठ
जिन्हें हम किनारा समझ बैठे
उन पर बिछे मृत सीपियों के बज़्म में
क़ैद हवाओं ने अपनी अंजलि में
थामा है तुम्हें

ख़त कहीं नहीं जाते

इसी तरह
अदिति तुम भी कहीं नहीं जाती

समयातीत
शब्दातीत
अदिति

ख़त कहीं नहीं जाते

तुम मेरी आख़िरी हिचकी में रहोगी
पृथ्वी के गर्भ से उठ कर
आकाश के अंतिम छोर तक
फैली हुई एक चिट्ठी
जिसे बांचेंगी मरुस्थल में मेरे नज़्म
उम्मीदों की तरह

ख़त कहीं नहीं जाते प्रिया…

5. धीरे धीरे

देखना
एक हरा पेड़
धीरे धीरे
ओढ़ लेगा शाम
अपनी जगह खड़े खड़े
चला जाएगा
बहुत दूर
डूबती रोशनी के साथ
ओझल होते किसी नाव की तरह
सफ़ेद किनारे हिलते रहेंगे
सफ़ेद हथेलियों की तरह
मैं समझ जाऊंगा
तुम्हें इंतज़ार रहेगा
पेड़ के अपनी जगह लौटने का
आसमान की तरफ़ हाथ उठाए
झूमने का
आंधियों के ताल पर
मैं जानता हूं
शाम को
तुम याद करती हो
मुझे

  • सुब्रतो चटर्जी 

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