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“इन गलियों में”…..एक फिल्म में कई फिल्मों का “फ्लैश बैक” 

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अमरेंद्र कुमार राय

पिछले मंगलवार को दिल्ली के जवाहर भवन में एक फिल्म देखी। “इन गलियों में”। फिल्म का नाम और पोस्टर देखकर ऐसा लगा कि फिल्म “कला फिल्म” होगी। “कला फिल्म” मतलब संदेश देने वाली पर साथ ही “नीरस” भी। लेकिन फिल्म देखने के बाद लगा फिल्म कला फिल्म तो है ही “कॉमर्शियल” भी है। कॉमर्शियल मतलब इंटरटेनमेंट। हालांकि कुछ कला फिल्में इंटरटेनिंग भी होती हैं। यह फिल्म उन्हीं फिल्मों में से एक है।

“इन गलियों में” फिल्म लखनऊ की गलियों में घूमती है। इसका निर्देशन अविनाश दास ने किया है जिन्हें आप “शी”, “रात बाकी है” और “अनारकली ऑफ आरा” जैसी फिल्मों के लिए जानते हैं। फिल्म का निर्माण विनोद यादव और नीरू यादव ने किया है। अल्कोर प्रोडक्शंस इसके सह निर्माता हैं। फिल्म में मुख्य भूमिका जावेद जाफरी ने निभाई है। लेकिन विवान शाह और नई अभिनेत्री अवंतिका दास भी कम नहीं हैं। सच कहिये तो हमेशा भांग खाए रहने वाला कलाकार भी अपनी छाप इन्हीं लोगों की तरह प्रमुखता से छोड़ता है। फिल्म में एक और जाने – पहचाने चेहरे राजीव ध्यानी भी हैं जिनके सटायर आपने ज़रूर देखे होंगे।

फिल्म में सब कुछ है। प्रेम है, नफरत है, चुनाव है, हिंदू और मुस्लिम समाज के रहने वालों को अलग-अलग करती एक गली है, गली की नुक्कड़ पर चाय की दुकान है, नफरत फैलाकर वोट कैसे हासिल किया जाता है, देसीपन है और इंटरटेनमेंट है। लेकिन आखिर में सबसे बड़ा संदेश है कि जैसे हमेशा न सही पर आखिर में सत्य की जीत होती है “सत्यमेव जयते” वैसे ही आखिर में प्रेम की ही जीत होती है।

गली की नुक्कड़ पर चाय की दुकान है जहां हिंदू-मुस्लिम दोनों समुदायों के “यार” सुबह-शाम बैठते हैं और अड्डेबाजी करते हैं। उसी गली में सब्जी के दो ठेले भी हैं जिनमें से एक नायक और दूसरा नायिका का है। नायक अपनी दुकान पर कम ध्यान देता है और नायिका पर ज्यादा। इस बात को दोनों मुहल्लों के लोग, चाय पर अड्डेबाजी करने वाले और नायक की मां भी बखूबी जानती है। ज्यादातर लोग इनके प्यार और विवाह के खिलाफ होते हैं लेकिन आखिर में जीत इनके प्यार की होती है।

फिल्म के गीत और डॉयलॉग बहुत ही शानदार हैं। सब देसी अंदाज में। एक डॉयलॉग तो ऐसा है कि उसका आखिरी शब्द बोला नहीं जाता पर समझ सब जाते हैं। बिना शब्द सुने ही हॉल में जोरदार ठहाका लगता है। “अपने नेता चौड़े से, बाकी सब …..”

फिल्म के गीत अच्छे हैं। आवाज भी अच्छी है। गीत के नृत्यों को देखते हैं तो उसमें फिल्म “नदिया के पार” और “सत्या” की याद आती है। नदिया के पार में भी होली पर एक गीत है… “जोगी जी…..धीरे-धीरे “ इसमें भी वैसे ही दृष्य हैं, उसी अंदाज में हैं। “सत्या” में जिस मस्ती में मनोज वाजपेयी नाचते हैं उसी अंदाज में इस फिल्म में भी नायक नाचता है। फिल्म में नायक की मां जो हिंदू है और उच्च पंडित जाति की है, मुस्लिम समाज की नायिका से शादी करने के सख्त खिलाफ है लेकिन जब जावेद जाफरी की मौत होती है तो उसे भी लगता है कि यह सब गलत है, गलत हुआ, प्रेम से बड़ी कोई चीज नहीं और वह भी धर्म, जाति त्यागकर शादी के पक्ष में खड़ी हो जाती है। कुछ वैसे ही जैसे मैक्सिम गोर्की के चर्चित उपन्यास “मां” की मां अपने बेटे के कार्यों को ठीक से नहीं समझती लेकिन जब उसका बेटा पकड़ा जाता है तो वो भी उसके विचारों के प्रचार-प्रसार में लग जाती है।

चर्चित फिल्म जब “सत्यम शिवम सुंदरम” आई तो राजकपूर ने उसका प्रीमियम रखा। उसमें खुशवंत सिंह शामिल नहीं हो पाये। तब राजकपूर ने खुशवंत सिंह के लिए अलग से एक शो रखा। हॉल में सिर्फ खुशवंत सिंह और राजकपूर थे। खुशवंत सिंह ने एक जगह लिखा – राजकपूर फिल्म के दौरान मुझे उसकी बारीकियों, पहलुओं और अपनी सोच के बारे में बताते रहे। हम लोग विस्की की चुस्कियां लेते हुए फिल्म देखते रहे। फिल्म जब समाप्त हुई तो आखिर में राजकपूर ने कहा “समझदार लोगों के लिए फिल्म का कंटेट है और नासमझ लोगों के लिए जीनत अमान है।“ उसी तरह से इस फिल्म का कंटेंट समझदारों को बांधे रखेगा और नासमझों को इंटरटेनमेंट।

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