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लोकसाहित्य : कहब त लागि जाइ धक् से

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        रिया यादव, भोपाल 

एगो छाक्छात्कार पढ़त रहलीं ह। एगो कबीजी के। का जाने का का कहत रहलें। ससुर कुच्छो बुझइबे ना कइल। फेर असल बात ई बुझाइल कि सब हवाबाजी ह। 

     सगरी बात घचर-पचर। मारकस, गरामसी, लकान, फूको, उत्तर-सत्य, उत्तर-मनुष्य… का जाने का का मिलाइके बनावल गइल बैदजी क चूरन! एतना गरदा उड़वलें कि कुच्छो ना लउके।

     एतना गरदा उड़वले क बादो कवनो अभगवा ससुरा ‘अवांगारद’ नइखे मानत। अइसन महापंडित ‘नयका अवांगारद’ क अइसन उपेच्छा! ईहे त कलेस बा! 

“जा ससुर लोगन, सबजनि क मूँहे में लकवा मारि जाई। बामपंथी हईं त का! बाम्हनो हईं। ई बाम्हन क सराप ह। कबहूँ बाँव ना जाई।” ई हम आपन नाहीं, कबीजी क मन क बात कहत बानी। 

    सब खाली  कढ़ाई-बुनाई, साज-सँवार, बनाव-सिंगार अउर इस्टाइल क बात, आ ऊपर से ललका राजनीति क लँहगा क झलक। कला के संगे संभोग के बाद बिचार के समाधी में डूबि गइलें कबीजी।     

      आठ-दस बरिस पहिले तक त नारमल मनई लागत रहलें। अब ई का जाने का हो गइल! हमरा देस में हर चार-पाँच बरिस बाद केहू ना केहू के कपार पर अमर होवे के भूत सवार होइ जाला। 

    केहू न केहू क भीतर बोरखेस चाहे मुराकामी चाहे माया एंजलू चाहे अइसने केहू के आतमा ढुकि जाले। 

ए घरी कबी लोगन के बिच्चे सबसे बड़का फिकिर त ई बा कि दारसनिक कबी होवे क मामला में मुक्तिबोध क बारिस के ह? 

    हम ई बात एगो सेयान मनई से कइलीं त ऊ कहलें, “सब कूकुर कासिए जइहें त गँउवा में जब भोज-भात होई त पत्तलवा के चाटी?”

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