अग्नि आलोक
script async src="https://pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js?client=ca-pub-1446391598414083" crossorigin="anonymous">

अनाज के उचित प्रबंधन से ही होगी खाद्य सुरक्षा

Share

 अनूप आकाश वर्मा

संभव है….गरीबों को कानूनी खाद्य सुरक्षा देने की सोच के पीछे यही महत्वपूर्ण विचार रहा होगा कि हर व्यक्ति को भोजन का अधिकार मिले क्योंकि किसी भी भूखे आदमी के लिए जाहिर तौर पर राजनीतिक व अन्य अधिकारों का मतलब शून्य ही है| किसी भी मनुष्य के स्वस्थ जीवन की पहली शर्त भोजन का स्थाई बंदोबस्त है| यदि किसी भी व्यक्ति की ये मूल समस्या हल रहती है तभी वह अपने राजनीतिक व अन्य दूसरे अधिकारों के प्रति संवेदनशील व सचेत रहता है| भूखा इंसान कभी रचनात्मक नहीं हो सकता| इसलिए हमें यह स्वीकारना होगा कि खाद्य सुरक्षा की अवधारणा व्यक्ति के मूलभूत अधिकार से जुडी हुई है,भूखे व्यक्ति से पहला संवाद भोजन है और बिना उसकी पूर्ती किये बाकी सभी बातें सीधे तौर पर व्यर्थ हैं|

एक आदमी के गरिमामय जीवन की परिकल्पना तभी की सकती है जब उसकी मूलभूत आवश्यकताएं पूरी हों| इस बात को सुप्रीम कोर्ट ने भी कई बार दोहराया है कि किसी भी व्यक्ति के लिए खाद्य पूर्ती के बाद ही राजनीतिक व नागरिक अधिकारों का नंबर आता है| राजस्थान के एक मामले में सुप्रीम कोर्ट ने संविधान के अनुच्छेद २१ के तहत भोजन को मौलिक अधिकार माना और कहा इसके बिना व्यक्ति की ज़िंदगी की कल्पना नहीं की जा सकती| यहाँ तक कि यह बात अनेकों अंतर्राष्ट्रीय संधियों में भी मानी गयी है| मगर दुर्भाग्य से भारत में भुखमरी की समस्या पुरानी है| यहाँ भूख से मरने वालों का विश्व अनुपात में तकरीबन ४०% हिस्सा है| जिसका परिणाम कुपोषण व उनसे पैदा होती बीमारियों के रूप में भी हमारे सामने है| सर्वेक्षण बताते हैं कि देश के ४२ फीसदी से ज्यादा बच्चे कुपोषण के शिकार हैं| इसलिए प्रधानमंत्री बेशक! कुपोषण व भुखमरी को देश के लिए राष्ट्रीय शर्म बता कर अपनी ज़िम्मेदारी निभाते रहें मगर हकीकत यही है कि आज आज़ादी के इतने वर्षों बाद भी भूख से मरने की घटनाएँ कम नहीं हुई हैं| पश्चिम बंगाल के मिदनापुर व उसके आस-पास के अन्य इलाके व बुंदेलखंड में भुखमरी की ऐसी अनेकों घटनाओं के साक्षात उदाहरण सामने हैं| इसमें विदर्भ के उन किसानों को भी शामिल किया जाना चाहिए जो भुखमरी व कर्ज के चलते आत्महत्या को मज़बूर हुए|

ज़ाहिर है कि ऐसे अनेकों कारण भोजन के अधिकार को बल प्रदान करने के लिए काफी हैं| मगर खाद्य सुरक्षा के मसले पर जन अधिकारों की बात करते हुए हम अक्सर भूल जाते हैं कि इसका संबंध सिर्फ विरोध व सहमति जताने या राजनीति में भागीदारी के अधिकार से नहीं है बल्कि इसका पहला वास्ता लोगों की बुनियादी ज़रूरतें पूरी होने से है| न जाने क्यों आज इस बात पर कोई निर्णायक बहस नहीं होती कि हमारे समाज का एक बड़ा तबका विभिन्न कारणों से ही सही मगर खाने की समस्या से घिरा हुआ है| अब ऐसे में एक भूखा आदमी खाने के निवाले के अलावा और क्या सोचेगा? और यकीन मानिए जिन्हें भोजन मिल भी रहा है, वे भी अब निश्चिन्त नहीं रह सकते और समस्या ये है कि जिस भ्रम के तहत अब ये माना जा रहा है कि दुनिया विकास के नए स्तर पर पहुँच रही है और नाहक ही यह स्वीकारने पर जोर दिया जा रहा है कि देर-सबेर ही सही मगर इंसान की बुनियादी समस्याएं हल हो जायेंगी| जबकि हकीकत ये है कि अनाज की कमी का गहरा संकट पूरी दुनिया में पैदा हो गया है| वहीं अनाज पर आत्मनिर्भरता का दावा करने वाला भारत अनाज भंडारण के कुप्रबंधन की मार झेल रहा है,जिसके चलते टनों-टन अनाज प्रतिवर्ष सड़ जाता है| जिसका परिना देश में भुखमरी व महंगाई के रूप में हमारे सामने है|

विश्व बैंक की माने तो यदि इस समस्या का कोई कारगर हल नहीं सोचा गया तो निम्न मध्य वर्ग के दस करोड़ लोग जल्द ही गरीबी रेखा के नीचे चले जायेंगे| इन सबके बीच सबसे महत्वपूर्ण सवाल ये है कि आखिर इसका हल कैसे निकलेगा? क्या दुनिया भर की सरकारें इसके लिए ज़रूरी संकल्प दिखा पाएंगी? हमारे यहाँ सरकार संसद में गरीबों के लिए खाद्य सुरक्षा का बिल पास करवा कर ये समझ लेने का भ्रम फैला रही है कि भारत में गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करने वालों को अब खाने की समस्या से नहीं जूझना पडेगा| मगर इसमें भी पेंच कई हैं, पहले तो सरकार इस देश की जनता को यही समझा पाने में अभी तक विफल रही है कि गरीबी रेखा से नीचे किसे रखा जाए| योजना आयोग ने अभी तक जो तर्क दिया है उसमें रोजाना २६ रूपये(शहरों में ३२) खर्चने वाला गरीब नहीं है| हालांकि इसमें अभी सुधार की गुंजाईश है| दूसरा, अब तक लागू सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत गरीबी की रेखा के नीचे तथा गरीबी की रेखा के ऊपर(एपीएल तथा बीपीएल)की श्रेणियों में कुल मिलाकर ८२% परिवार सार्वजनिक वितरण प्रणाली के दायरे में थे| लेकिन माजूदा खाद्य सुरक्षा बिल इस हिस्से को घटाकर, ग्रामीण क्षेत्र में ७५ फीसदी और शहरी क्षेत्र में ५०फीसदी परिवारों तक ही सीमित कर देता है| गौर करें तो इसमें योजना आयोग के बेहद संदिग्ध आकलन को ही मंजूरी दे दी गयी है| इसमें स्पष्ट है कि ग्रामीण भारत के ७५ फीसदी और शहरी भारत की ५० फीसदी आबादी को ही इस खाद्य सुरक्षा के दायरे में रखा जाएगा| यानि कि इस विधेयक में ग्रामीण भारत के २५ फीसदी और शहरी भारत के ५० फीसदी लोगों को खाद्य सुरक्षा के दायरे से बाहर ही रखा जाना है| मसला साफ़ है कि राष्ट्रीय सलाहकार परिषद जिसमें खाद्य सुरक्षा अधिकार के अनेकों कार्यकर्ता भी शामिल हैं, ने योजना आयोग की पूरी तरह से संदिग्ध पध्दति को ही कानूनी हैसियत देना मंजूर कर और साथ ही राज्यों को गरीबी के लिए कोटा तय किये जाने के लिए मंजूरी देकर खाद्य सुरक्षा की मूल अवधारणा को भारी चोट पहुंचाई है| स्मरण हो तो फरवरी २०१० में हुए मुख्यमंत्रियों के एक सम्मलेन में खाद्य मंत्रालय द्वारा दी गयी जानकारी के मुताबिक़, गरीबी की रेखा के ऊपर के कार्ड धारक परिवारों की कुल संख्या १११५१ करोड़ थी| अब, इसे विडम्बना ही कहिये कि प्रस्तावित विधेयक तैयार करने वाली सरकार ने ही लक्ष्य केन्द्रित सार्वजनिक वितरण प्रणाली के दायरे में आने वाले, गरीबी रेखा के नीचे तथा गरीबी रेखा के स्वीकार्य परिवारों(राज्य सरकारों के अस्वीकार्य अनुमानों के विपरीत)की संख्या १८.०३ करोड़ स्वीकार की थी| इसमें अगर हम २००१ की आबादी के आधार पर हिसाब लगाएं जिसका वास्तव में १९९१ की आबादी के आधार पर अनुमान लगाया गया था, जिसके आधार पर ही केंद्र सरकार अभी तक हिसाब लगाती आई है तो यह संख्या उस समय की कुल आबादी के ९०% हिस्से से ज्यादा हो जाती है| अब अगर हम २०१० के आंकड़ों जिसमें २२ करोड़ परिवार आते हैं को ही लें तब भी इसका यही अर्थ हुआ कि करीब ८२ फीसदी परिवार तो सार्वजनिक वितरण प्रणाली के दाएरे में पहले से ही था| इसलिए विधेयक में ग्रामीण भारत में ७५ फीसदी और शहरी भारत में ५० फीसदी परिवारों के लिए ही खाद्य सुरक्षा मुहैया कराने का लक्ष्य रखे जाने का एक ही अर्थ हो सकता है कि गरीबी की रेखा के नीचे की श्रेणी के लाखों परिवारों को उन्हें अब तक हासिल लाभों से भी वंचित किया जाए और बड़ी संख्या में गरीबी की रेखा के ऊपर की श्रेणी के कार्ड धारकों को सार्वजनिक वितरण प्रणाली के दायरे से बाहर ही कर दिया जाए| इसलिए ध्यान दें तो इस विधेयक का खाका ही समस्या पैदा करने वाला रहा है, कारण ये कि माजूदा विधेयक के विभिन्न प्रावधानों के जरिये केंद्र खाद्य सुरक्षा के मामले में सर्वोच्च शक्तियां खुद हथियाने की कोशिश कर रहा है और शक्तियों के इस अतिकेंद्रीयकरण के पीछे मकसद यही है कि नव उदारवादी नीतियों को किसी तरह संस्थागत रूप दिया जाए व गरीबों को मिलने वाले लाभ को घटाकर नकदी के लेन-देन को बढ़ावा दिया जाए| इससे संभव है कि खाद्य सुरक्षा के अंतर्गत गरीबों को मिलने वाले अधिकारों का आधार सिकुड़ जाए|

खाद्य सुरक्षा मामले में एक और बात बेहद महत्वपूर्ण है जो इसमें सब्सिडी से जुडी हुई है| आज बेशक! भोजन के अधिकार के नाम पर सभी राजनीतिक दल अपना राजनीतिक उल्लू सीधा करने के फेर में सकारात्मक रूख रखते हों मगर सब्सिडी में बदलाव की बात कोई नहीं करता जबकि होना ये चाहिए कि सब्सिडी की व्यवस्था कुछ इस तरह से हो कि जिसे इसकी ज़रुरत नहीं है उसे किसी भी सूरत में बिलकुल न मिल पाए| क्योंकि अगर सरकार ये सोच रही है कि पहले महंगे सामान आयात करे और फिर उन्हें सब्सिडी पर लोगों को उपलब्ध करा अपनी पीठ थपथपाए तो ऐसे भी काम नहीं चलेगा, यूं तो सरकारी कोष खाली हो जाएगा और हमारी अर्थव्यवस्था पटरी पर आ जायेगी| आज केंद्र सरकार खाद्य सुरक्षा के प्रथम चरण के क्रियान्वयन के लिए ९५००० करोंड़ रूपये की सब्सडी का अनुमान लगा रही है| जो तीसरे साल तक बढ़ते हुए १.५ लाख करोड़ तक पहुँचने का अनुमान है| जिसमें आगे चलाकर अनाज भंडारण के लिए गोदाम बनाने में भी ५०००० करोंड़ रूपये लगने का अनुमान है| इसलिए इसमें सरकार को चाहिए कि कृषि जगत की मजबूती के लिए पूर्व की योजनाओं को और भी सशक्त कर इसमें नई योजनाओं के साथ पुनर्विचार करे व अनाज को एक उचित प्रबंधन दे| जिससे लाखों तन अनाज सड़ने की बजाये वो समय पर बाज़ार में पहुंचे और महंगाई जैसी समस्याओं का भी निदान हो|

ये चिंतनीय प्रश्न है कि आज दुनिया की आबादी ७ अरब पार कर रही है, आंकड़े गवाह हैं कि भारत में भी जनसंख्या बढ़ी और कृषि योग्य भूमि घटी है| आज हमारे यहाँ भी अनाज की खेती के लिए अब उतनी जमीन मौजूद नहीं है जितनी कि कुछ वर्ष पहले तक थी| अब जो जमीन बची भी है वहां भी उसका इस्तेमाल ज्यादातर जगहों पर खाने की बजाये दूसरे मकसद के लिए तेजी से होने लगा है| कच्चे तेल के बढ़ते दाम और तेल के भण्डार ख़त्म होने के अंदेशे की वजह से अमेरिका जैसे देशों ने जैव-ईंधन पर जोर देना शुरू कर दिया है| वहां अब मक्के और गन्ने की खेती ज्यादा जमीन पर की जाने लगी है और इन फसलों का इस्तेमाल इथोनेल जैसे बायो-फ्यूल यानि जैव-ईंधन बनाने के लिए होने लगा है| इसमें अमेरिका और ब्राजील जैसे देशों की सरकारें जैव-ईंधन के लिए काम आने वाली फसलों के लिए सब्सिडी दे रही हैं और स्वाभाविक तौर पर किसानों को अब इसकी खेती में ज्यादा फ़ायदा नज़र आ रहा है| इससे अनाज की मात्रा और उसके लिए निर्धारित जमीन दोनों घट रही हैं| जिससे ज़ाहिर तौर पर विश्व बाज़ार में अनाज की कमी हो गयी है और उसकी कीमत लगातार बढ़ रही है|

भारत जैसे बड़ी आबादी वाले देश में जहां अनाज की आत्मनिर्भरता महज तकनीकि तौर पर ही हासिल की जा सकी थी, वहां भी पिछले वर्षों में अनाज के बजाये ऐसी दूसरी फसलों की खेती का चलन बढ़ता गया है जिन्हें बाज़ार में बेच कर किसानों को अच्छा पैसा मिल जाता है| आज किसान ऐसी खेती करने के लिए इसलिए भी मजबूर हैं क्योंकि अनाज का उन्हें भरपूर दाम नहीं मिलता और अनाज उगाने वाले किसान गरीबी में ही दम तोड़ते रहते हैं| इसमें दुर्भाग्य पूर्ण बात यह है कि बिक्री के लिए उपजाई जाने वाली गैर अनाज फसल में नुकसान होने का अंदेशा सामान्य से अधिक रहता है और इसलिए ही विदर्भ व बुंदेलखंड जैसे इलाके में किसान सबसे गहरे संकट में हैं| मगर इस तरह के अनुभवों से कोई सबक लेने की बजाये भारत भी अब जैव-ईंधन की दौड़ में शामिल होने को तैयार होता दिख रहा है| देश में २०१७ तक देश की परिवहन ईंधन की कुल ज़रुरत का १० फीसदी जैव-ईंधन से हासिल करने का लक्ष्य रखा गया है| इसके लिए देश की १ करोड़ २० लाख हेक्टेयर जमीन पर जैव-ईंधन तैयार करने में काम आने वाली फसल उपजाई जायेगी| इसमें बता दें कि देश में बायो डीज़ल तैयार करने पर पहले ही काम शुरू हो चुका है| आंध्र प्रदेश,राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में इसके लिए हजारों एकड़ जमीन पर इसके लिए एक ख़ास पौधे की खेती की जा रही है| इसलिए इसमें कोई दो राय नहीं कि खाद्य संकट का सीधा रिश्ता अब तेल से जुड़ गया है| तेल के दाम बढ़ने से खाद्य पदार्थों के दाम स्वाभाविक तौर पर स्वत: ही बढ़ जाते हैं|

इसलिए ये कहना ज़रा भी गलत नहीं होगा कि सिर्फ एक बिल संसद में पास कर देने भर से किसी के लिए भी खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित नहीं मानी जा सकती जबतक कि सरकार कृषि और उसके उचित प्रबंधन को लेकर सजग नहीं होती| यदि कागजों में गरीबों को ये हक़ मिल भी जाए कि उन्हें एक मुश्त निश्चित अनाज हर माह मिलेगा फिर भी उस अनाज को खेतों से ही उतपन्न होना है| जिसके लिए सरकार गंभीर नहीं है| जब अनाज ही कम उगेगा या उसका प्रबंधन सही से नहीं किया जाएगा और लाखों टन अनाज सरकार की लापरवाही में सड़ता रहेगा तो खाद्य सुरक्षा होगी कैसे? सरकार को बिना पौधे को सींचे अच्छे फल का आश्वासन नहीं देना चाहिए| अनाज सिर्फ खेतों से उगता है फिर वो खेत चाहे हिन्दुस्तान के हों या कहीं और के, अब समय आ गया जब हम इस ओर गंभीरता से विचार करें वरना वो दिन दूर नहीं जब अनाज के लिए भी समूचे विश्व में हाहाकार मचेगा और तब कंक्रीटों के इस जंगल में सबकुछ होगा बस! भूखे पेट के लिए दो निवाले न होंगे| इसलिए आज ज़रुरत इस बात को समझने की है कि हम चाहे कितने भी अत्याधुनिक हो जाएँ, कंक्रीटों के जंगलों में खुद को पाश्चात्य संस्कृति में झोंकने पर अमादा हो जाए मगर हमारी नींव ग्रामीण भारत से जुडी हुई है और रहेगी और जहाँ तक सवाल खाद्य सुरक्षा का है तो वो चाहे अपने देश की बात हो या कहीं और की, मसला साफ़ है कि कृषि जगत को मजबूती प्रदान करने व अनाज भंडारण के उचित प्रबंधन से ही होगी सही मायनों में खाद्य सुरक्षा| वरना गरीबों की सुध लेते ऐसे विधेयक संसद में पास होकर भी ज़मीनी स्तर पर फेल हो जाते है

script async src="https://pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js?client=ca-pub-1446391598414083" crossorigin="anonymous">

Follow us

Don't be shy, get in touch. We love meeting interesting people and making new friends.

प्रमुख खबरें

चर्चित खबरें