एच.एल.दुसाध
– आज 15 अगस्त है : भारत का स्वाधीनता दिवस! लेकिन 2022 का स्वाधीनता दिवस अतीत के बाकी दिवसों से काफी भिन्न है . स्वाधीनता के 75 वर्ष पूरा होने पर आज का 15 अगस्त आजादी के अमृत महोत्सव दिवस के रूप में मनाया जा रहा है, जिसका उद्घाटन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 12 मार्च, 2021 को अहमदाबाद के साबरमती आश्रम में किया था.गूगल बता रहा है आजादी का अमृत महोत्सव प्रगतिशील भारत के 75 वर्ष पूरा होने और यहाँ के गौरवशाली इतिहास को याद करने और जश्न मनाने के लिए भारत सरकार की ओर से की जाने वाली एक पहल है. यह महोत्सव भारत की जनता को समर्पित है, जिन्होंने न केवल भारत को उसकी विकास यात्रा में आगे लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है , बल्कि उनके भीतर प्रधानमंत्री मोदी के भारत 2. 0 को सक्रीय करने करने के दृष्टिकोण को संभव बनाने की शक्ति और क्षमता भी है, जो आत्मनिर्भर भारत की भावना से प्रेरित है. आजादी का अमृत महोत्सव भारत की सामाजिक-सांस्कृतिक, राजनीतिक और आर्थिक पहचान को प्रगति की ओर ले जाने वाली सभी चीजो का एक मूर्त रूप है. आजादी का अमृत महोत्सव की शुरुआत गांधी के नमक यात्रा को ध्यान में रखते हुए 12 मार्च,2021 को गुजरात के साबरमती से हुई , जिसकी 75 सप्ताह की उलटी गिनती हामारी स्वतंत्रता की 75 वीं वर्षगांठ के लिए शुरू हो गयी है तथा यह एक वर्ष बाद 15 अगस्त , 20 23 को समाप्त होगी. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के शब्दों में यह ,’ आजादी के आन्दोलन के इतिहास की तरह ही आजादी के 75 वर्षों की यात्रा, सामान्य भारतीयों के परिश्रम , इनोवेशन, उद्यमशीलता, का प्रतिबिम्ब है. हम भारतीय चाहे देश में रहे हों या फिर विदेश में, हमने अपनी मेहनत से खुद को साबित किया है. हमें गर्व है अपने संविधान पर. हमें गर्व है हमारी लोकतांत्रिक परम्पराओं पर. लोकतंत्र की जननी भारत , आज भी लोकतंत्र को मजबूती देते हुए आगे बढ़ रहा है. ज्ञान-विज्ञानं से समृद्ध भारत, आज मंगल से लेकर चन्द्रमा तक अपनी छाप छोड़ रहा है.’ संक्षेप में कहा जाय तो इन 75 वर्षों में भारत ने क्या उपलब्धियां हासिल की हैं, युवा पीढी को यह बताने का माध्यम बन रहा आजादी का अमृत महोत्सव!’
बहरहाल आजादी के अमृत महोत्सव को स्वाधीन भारत के 75 वर्षों में मिली उपलब्धियां गिनाने का जो माध्यम बनाया गया है, उन उपलब्धियों गिनाने के पहले ध्यान रहे कि 75 साल पूर्व आज ही के दिन भारत के लोग विदेशियों की हजारों साल लंबी गुलामी झेलकर आज़ाद हुये थे. 1947 का वह दिन था भारत के निर्माण का: हर प्रकार की विषमता से पार पाने का संकल्प लेने तथा उस संकल्प को पूरा करने का . इस विषय में ‘आज़ादी के बाद का भारत’ नामक ग्रंथ में सुप्रसिद्ध इतिहासकार विपिन चंद्र- मृदुला मुखर्जी- आदित्य मुखर्जी ने बहुत ही महत्वपूर्ण बात कही है. उन्होने लिखा है –‘ भारत की आज़ादी इसकी जनता के लिए एक ऐसे युग की शुरुआत थी, जो एक नए दर्शन से अनुप्राणित था. 1947 में देश अपने आर्थिक पिछड़ापन, भयंकर गरीबी , करीब-करीब व्यापक तौर पर फैली महामारी, भीषण सामाजिक विषमता और अन्याय के उपनिवेशवादी विरासत से उबरने के लिए अपनी लंबी यात्रा की शुरुआत थी. 15 अगस्त पहला पड़ाव था, यह उपनिवेश राजनीतिक नियंत्रण में पहला विराम था : शताब्दियों के पिछड़ेपन को अब समाप्त किया जाना था, स्वतन्त्रता के वादों को पूरा किया जाना था. भारतीय राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया को आगे बढ़ाना था तथा राष्ट्रीय राजसत्ता को विकास एवं सामाजिक रूपान्तरण के उपकरण के रूप में विकसित एवं सुरक्षित रखना सबसे महत्वपूर्ण काम था. यह महसूस किया जा रहा था कि भारतीय एकता को आँख मूंदकर मान नहीं लेना चाहिए. इसे मजबूत करने के लिए यह स्वीकार करना चाहिए कि भारत में अत्यधिक क्षेत्रीय, भाषाई, जातीय एवं धार्मिक विभिन्नताएँ मौजूद हैं. भारत की बहुतेरी अस्मिताओं को स्वीकार करते एवं जगह देते हुये तथा देश के विभिन्न तबकों को भारतीय संघ में पर्याप्त स्थान देकर भारतीयता को और मजबूत किया जाना था.’
यह सपना है उस आज़ाद भारत का जिसे 16 अगस्त, 1947 के ही दिन से मूर्त रूप देने में जुट जाना था. पर , आजादी के 74 साल पूरा होने के बाद क्या हुआ उस सपने का और क्या है उसका वास्तविक चित्र?आज भले ही प्रधानमंत्री मोदी सामान्य भारतीयों के परिश्रम , इनोवेशन, उद्यमशीलता तथा मंगल से लेकर चन्द्रमा तक अपनी छाप छोड़ने छोड़ने का उच्च उद्घोष करें: देश के विश्व आर्थिक महाशक्ति बनने का दावा करे पर,हाल के दिनों प्रकाशित अंतर्राष्ट्रीय रिपोर्टों में जो तथ्य उभरकर सामने आये है उनसे पता चलता दुनिया के सबसे बड़े लोकतान्त्रिक देश के रूप चिन्हित भारत विश्व के सबसे असमान देशों में से एक है. ऐसी असमानता विश्व में शायद ही कहीं और हो. किसी भी डेमोक्रेटिक कंट्री में परम्परागत रूप से सुविधासंपन्न तथा वंचित तबकों के मध्य आर्थिक-राजनीतिक –शैक्षिक- धार्मिक और सांस्कृतिक इत्यादि क्षेत्रों में अवसरों के बटवारे में भारत जैसी असमानता नहीं है. इस असमानता ने देश को ‘अतुल्य’ और ‘बहुजन’-भारत में बांटकर रख दिया है, वर्षों से अर्थशास्त्रियों द्वारा किया जा रहा इस किस्म का दावा एक बार फिर अप्रिय सचाई बनकर सामने आया है. वर्ष 2021 में लुकास चांसल द्वारा लिखित और चर्चित अर्थशास्त्री थॉमस पिकेटि, इमैनुएल सेज और गैब्रियल जुकमैन द्वारा समन्वित जो ‘विश्व असमानता रिपोर्ट-2022’ प्रकाशित हुई है, उसमे बताया गया है भारत दुनिया के सबसे असमान देशों में से एक है, जहाँ एक ओर गरीबी बढ़ रही है तो दूसरी ओर एक समृद्ध अभिजात वर्ग और ऊपर हो रहा है. रिपोर्ट के मुताबिक भारत के शीर्ष 10 फीसदी अमीर लोगों की आय 57 फीसदी है, जबकि शीर्ष 1 प्रतिशत अमीर देश की कुल कमाई में 22 फीसदी हिस्सा रखते हैं. इसके विपरीत नीचे के 50 फीसदी लोगों की कुल आय का योगदान घटकर महज 13 फ़ीसदी पर रह गया है. रिपोर्ट के मुताबिक शीर्ष 10 फीसदी व्यस्क औसतन 11,66, 520 रूपये कमाते हैं. यह आंकड़ा नीचे की 50 फीसदी वार्षिक आय से 20 गुना अधिक है. रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि भारत में एक परिवार के पास औसतन 9, 83, 010 रूपये की संपत्ति है, लेकिन नीचे के 50 प्रतिशत से अधिक की औसत संपत्ति लगभग नगण्य या 66, 280 रूपये या भारतीय औसत का सिर्फ 6 प्रतिशत है.जो बात विश्व असमानता रिपोर्ट 2022 में उभर कर आई है, वही बात पिछले कई सालों से ऑक्सफ़ाम की रिपोर्ट में कही जाती रही है. ऑक्सफाम के 2019 की रिपोर्ट में कहा गया था कि टॉप की 10 फीसदी आबादी के पास देश की कुल संपत्ति का 77. 4 प्रतिशत हिस्सा है, जबकि नीचे की 60 प्रतिशत आबादी के पास नेशनल वेल्थ का सिर्फ 4. 8 फीसद हिस्सा है. इसी तरह ऑक्सफाम की 2020 के रिपोर्ट के अनुसार राष्ट्रीय संपत्ति में नीचे की 50 प्रतिशत आबादी का हिस्सा मात्र 6 प्रतिशत रहा.
आर्थिक और सामाजिक विषमता का सर्वाधिक दुष्परिणाम जिस तबके को भोगना पड़ रहा है, वह है भारत की आधी आबादी! वर्ल्ड इकॉनोमिक फोरम द्वारा 2006 से हर वर्ष जो ‘वैश्विक लैंगिक अन्तराल रिपोर्ट’ प्रकाशित हो रही है, उसमें साफ़ पता चलता है कि भारत में महिलाओं की स्थिति करुण से करुणतर हुए जा रही है. इसमें आर्थिक भागीदारी और अवसर, शिक्षा का अवसर, राजनीतिक भागीदारी ,स्वास्थ्य एवं उत्तरजीविता: 4 आधारों पर लैंगिक समानता का मूल्यांकन किया जाता है. इसकी वर्ष 2021 में जो रिपोर्ट आई है उसमे दक्षिण एशियाई देशों में भारत का प्रदर्शन सबसे खराब रहा है. भारत रैंकिंग में 156 देशों में 140वें स्थान पर रहा, जबकि बांग्लादेश 65वें, नेपाल 106वें, पाकिस्तान 153वें, अफगानिस्तान 156वें, भूटान 130वें और श्रीलंका 116वें स्थान पर. इससे पहले 2020 में भारत 153 देशों में 112वें स्थान पर था, जिसमे बताया गया था कि भारत की आधी आबादी की आर्थिक रूप से पुरुषों के बराबर आने में 257 साल लगेंगे. आधी आबादी मतलब 65 करोड़ आबादी को आर्थिक समानता पाने में 257 साल अर्थात अनंत काल लगने हैं. अभी जब कुछ दिन पूर्व देश में आजादी का अमृत महोत्सव मनाने की तैयारी जोर-शोर से चल रही थी, तभी जुलाई के तीसरे सप्ताह में ‘ वर्ल्ड पावर्टी क्लॉक ‘ से पता चला भारत नाइजेरिया के 8,30,05, 482 के मुकाबले 8,30,68,597 गरीब पैदा कर पावर्टी कैपिटल अर्थात विश्व गरीबी की राजधानी बन चुका है. बहरहाल आजादी के 75 वर्षों बाद भारत की यह शर्मनाक स्थिति इसलिए क्योंकि बाबा साहेब डॉ. आंबेडकर ने 25 नवम्बर,1949 को निकटतम भविष्य के मध्य आर्थिक और सामाजिक विषमता के खात्मे का जो सुझाव दिया था, आजाद भारत के शासक, जो सुविधाभोगी वर्ग से रहे उसकी बुरी तरन अनदेखी कर दिए.
अगर स्वाधीन भारत के हमारे शासक सिर्फ और सिर्फ आर्थिक और सामाजिक विषमता के खात्मे के मोर्चे पर सर्व-शक्ति लगाया होता, आज़ादी के सपनों को उस लक्ष्य को हासिल कर लिया होता जिसका उल्लेख आजादी के बाद भारत नामक में किया गया है.किन्तु इसके लिए उन्हे शक्ति के स्रोतों- आर्थिक, राजनीतिक, शैक्षिक और धार्मिक – में सामाजिक और लैंगिक विविधता लागू करनी पड़ती अर्थात शक्ति के स्रोतों का सवर्ण, ओबीसी, एससी/एसटी और धार्मिक अल्पसंख्यकों के मध्य वाजिब बंटवारा करना पड़ता. लेकिन लोकतन्त्र के ढांचे के विस्फोटित होने कि संभावना को देखते हुये भी हमारे शासक, जो जन्मजात विशेषाधिकारयुक्त व सुविधाभोगी वर्ग से रहे,अपने स्व- वर्गीय/वर्णीय हित के हाथों मजबूर होकर विभिन्न सामाजिक समूहों के मध्य शक्ति के स्रोतों का वाजिब बंटवारा कराने की दिशा में अग्रसर न हो सके. परन्तु शक्ति के स्रोतों का वाजिब बंटवारा न कराने के बावजूद भी 7 अगस्त , 1990 को मण्डल कि रिपोर्ट प्रकाशित होने के पूर्व तक वे स्वाधीनता संग्राम के वादों को दृष्टिगत रखते हुए भारत के जन्मजात वंचितों के प्रति कुछ- कुछ सदय बने रहे, इसलिए संविधानगत कुछ-कुछ अधिकार देकर शक्ति के स्रोतों में प्रतीकात्मक ही सही, कुछ-कुछ शेयर वंचितों को देते रहे. किन्तु मण्डल की रिपोर्ट प्रकाशित होने के अगले दिन से वंचितों के प्रति उनकी करुणा शत्रुता में बदल गई और वे शक्ति के स्रोतों से वंचितों को दूर धकेलने के षडयंत्र में लिप्त हो गए. बाद मे 24 जुलाई, 1991 को वंचितों को संवधानिक अवसरों से महरूम करने के लिए नरसिंह राव ने भारत की धरती पर लागू कर दिया नवउदरवादी अर्थनीति, जिसे उनके बाद अटल बिहारी वाजपेयी और डॉ. मनमोहन सिंह ने भी आगे बढ़ाने में कोई कमी नहीं की. किन्तु, इस मामले में किसी ने सबको बौना बनाया तो वह रहे वर्तमान प्रधानमंत्री, नरेंद्र मोदी!
जिस नवउदारवादी नीति की शुरुआत नरसिंह राव ने किया एवं जिसे भयानक हथियार के रूप इस्तेमाल किया मोदी ने, उसके फलस्वरूप आज की तारीख में दुनिया के किसी भी देश में भारत के जन्मजात सुविधाभोगी वर्ग जैसा शक्ति के स्रोतों पर पर औसतन 80-90 प्रतिशत कब्ज़ा नहीं है. आज यदि कोई गौर से देखे तो पता चलेगा कि पूरे देश में जो असंख्य गगनचुम्बी भवन खड़े हैं, उनमें 80-90 प्रतिशत फ्लैट्स जन्मजात सुविधाभोगी के हैं. मेट्रोपोलिटन शहरों से लेकर छोटे-छोटे कस्बों तक में छोटी-छोटी दुकानों से लेकर बड़े-बड़े शॉपिंग मॉलों में 80-90 प्रतिशत दूकाने इन्हीं की है. चार से आठ-आठ लेन की सड़कों पर चमचमाती गाड़ियों का जो सैलाब नजर आता है, उनमें 90 प्रतिशत से ज्यादे गाड़ियां इन्हीं की होती हैं. देश के जनमत निर्माण में लगे छोटे-बड़े अख़बारों से लेकर तमाम चैनल प्राय इन्ही के हैं. फिल्म और मनोरंजन तथा ज्ञान-उद्योग पर 90 प्रतिशत से ज्यादा कब्ज़ा इन्ही का है. संसद, विधानसभाओं में वंचित वर्गों के जनप्रतिनिधियों की संख्या भले ही ठीक-ठाक हो, किन्तु मंत्रिमंडलों में दबदबा इन्हीं का है. मंत्रिमंडलों में लिए गए फैसलों को अमलीजामा पहनाने वाले 80-90 प्रतिशत अधिकारी इन्हीं वर्गों से हैं. न्यायिक सेवा, शासन-प्रशासन,उद्योग-व्यापार, फिल्म-मीडिया,धर्म और ज्ञान क्षेत्र में भारत के सवर्णों जैसा दबदबा आज की तारीख में दुनिया में कहीं नहीं है. शक्ति के स्रोतों पर बेहिसाब कब्ज़ा जमाया भारत का जन्मजात सुविधाभोगी वर्ग ही आजादी का अमृत महोत्सव मना रहा है. यही वर्ग ही सौ-सौ ,दो-दो सौ फुट लम्बा झंडा फहरा रहा है: यही इस अवसर पर नारे लिख रहा है, यही अपने घरों की बालकनी तिरंगे से सजा रहा है.
आजादी के रजत जयंती के समय महान दलित कवि नामदेव ढसाल ने लिखा था,’ स्वतंत्रता किस गधी का नाम है, तुम्हारे रामराज्य में मेरा स्थान कहाँ है!’ लेकिन हमारे शासकों ने उसकी पूरी तरह अनदेखी कर दिया. इसलिए आज आजादी के अमृत महोत्सव के जश्न में डूबे मोदी राज में वही सवाल करोड़ों लोगों के जेहन में उठ रहा है.आज भी किसी के घड़े से पानी पीने, मंदिर में प्रवेश करने पर आंबेडकर के लोगो को जान से मारा जा रहा है.बहरहाल आजादी के 75 वें साल में आज की तारीख में दुनिया के किसी भी देश में भारत के परम्परागत विशेषाधिकारयुक्त व सुविधाभोगी वर्ग का जैसा शक्ति के स्रोतों पर दबदबा नहीं है. इस दबदबे ने दलित,आदिवासी, पिछड़े और इनसे धर्मान्तरित बहुसंख्य लोगों के समक्ष जैसा विकट हालात पैदा कर दिया है, ऐसे से ही हालातों में दुनिया के कई देशों में शासक और गुलाम वर्ग पैदा हुए: ऐसी ही परिस्थितियों में दुनिया के कई देशों में स्वाधीनता संग्राम संगठित हुए. ऐसे ही हालातों में मंडेला के लोगों ने दक्षिण अफ्रीका में गोरों के खिलाफ आज़ादी का बिगुल फूंका; ऐसे ही हालातों में अंग्रेजों के खिलाफ खुद भारतीयों ने स्वाधीनता संग्राम छेड़ा था. अतः आज जब देश आजादी के अमृत महोत्सव में मत्त है, आज विगत 74 सालों से आज़ादी के सुफल से वंचित बहुजनों के समक्ष अपनी आज़ादी की लड़ाई में उतरने का संकल्प लेने से भिन्न कोई विकल्प ही नहीं बचा है! बहरहाल आजादी के अमृत महोत्सव के अवसर यदि आजादी के सुफल से वंचित बहुजन आजादी की लड़ाई में उतरने का मन बनाता है तो कुछ खास बातें ध्यान में रखे !
स्मरण रहे दुनिया में जहां- जहां भी गुलामों ने शासकों के खिलाफ खिलाफ मुक्ति की लड़ाई लड़ी, उसकी शुरुआत आरक्षण से हुई . काबिलेगौर है कि आरक्षण और कुछ नहीं शक्ति के स्रोतों से जबरन दूर धकेले गए लोगों को शक्ति के स्रोतों में कानूनन हिस्सेदारी दिलाने का माध्यम है. आरक्षण से स्वाधीनता की लड़ाई का सबसे उज्ज्वल मिसाल भारत का स्वाधीनता संग्राम है. अंग्रेजी शासन में शक्ति के समस्त स्रोतों पर अंग्रेजों के एकाधिकार दौर में भारत के प्रभुवर्ग के लड़ाई की शुरुआत आरक्षण की विनम्र मांग से हुई. तब उनकी निरंतर विनम्र मांग को देखते हुए अंग्रेजों ने सबसे पहले 1892 में पब्लिक सर्विस कमीशन की द्वितीय श्रेणी की नौकरियों में 941 पदों में 158 पद भारतीयों के लिए आरक्षित किया. एक बार आरक्षण के जरिये शक्ति के स्रोतों का स्वाद चखने के बाद सन 1900 में पीडब्ल्यूडी, रेलवे ,टेलीग्राम, चुंगी आदि विभागों के उच्च पदों पर भारतीयों को नहीं रखे जाने के फैसले की कड़ी निंदा की.कांग्रेस तब आज के बहुजनों की भांति निजी कंपनियों में भारतीयों के लिए आरक्षण का आन्दोलन चलाया था. हिन्दुस्तान मिलों के घोषणा पत्रक में उल्लेख किया गया था कि ऑडिटर, वकील, खरीदने-बेचने वाले दलाल आदि भारतीय ही रखे जाएँ. तब उनकी योग्यता का आधार केवल हिन्दुस्तानी होना था,परीक्षा में कम ज्यादा नंबर लाना नहीं.बहरहाल आरक्षण के जरिये शक्ति के स्रोतों का स्वाद चखते-चखते ही शक्ति के स्रोतों पर सम्पूर्ण एकाधिकार के लिए देश के जन्मजात सुविधाभोगी वर्ग ने पूर्ण स्वाधीनता का आन्दोलन छेड़ा और लम्बे समय तक संघर्ष चलाकर अंग्रेजो की जगह काबिज होने में सफल हो गए. बहरहाल मूलनिवासी एससी,एसटी,ओबीसी और इनसे धर्मातरित तबकों के लोग अगर यह महसूस करते हैं कि आरक्षण के विस्तार की लड़ाई लड़कर ही बहुजनों को गुलामी से मुक्ति दिलाया और वर्ग संघर्ष में हारी बाजी पलटा जा सकता है तो इस लक्ष्य को साधने के लिए ‘बहुजन डाइवर्सिटी मिशन’ का भारत के प्रमुख समाजों- सवर्ण,ओबीसी,एससी/एसटी और इनसे धर्मान्तरित अल्पसंख्यकों- के स्त्री पुरूषों के मध्य संख्यानुपात में शक्ति के स्रोतों के बंटवारे के निम्न दस सूत्रीय एजेंडे पर लड़ाई लड़ने से बेहतर कुछ हो ही नहीं सकता!
1-सेना व न्यायालयों सहित सरकारी और निजीक्षेत्र की सभी स्तर की,सभी प्रकार की नौकरियों व धार्मिक प्रतिष्ठानों अर्थात पौरोहित्य; 2-सरकारी और निजी क्षेत्रों द्वारा दी जानेवाली सभी वस्तुओं की डीलरशिप; 3-सरकारी और निजी क्षेत्रों द्वारा की जानेवाली सभी वस्तुओं की खरीदारी;4-सड़क-भवन निर्माण इत्यादि के ठेकों,पार्किंग,परिवहन;5-सरकारी और निजी क्षेत्रों द्वारा चलाये जानेवाले छोटे-बड़े स्कूलों, विश्वविद्यालयों,तकनीकि-व्यावसायिक शिक्षण संस्थाओं के संचालन,प्रवेश व अध्यापन; 6-सरकारी और निजी क्षेत्रों द्वारा अपनी नीतियों,उत्पादित वस्तुओं इत्यादि के विज्ञापन के मद में खर्च की जानेवाली धनराशि;7-देश –विदेश की संस्थाओं द्वारा गैर-सरकारी संस्थाओं (एनजीओ को दी जानेवाली धनराशि;8-प्रिंट व इलेक्ट्रोनिक मिडिया एवं फिल्म-टीवी के सभी प्रभागों; 9-रेल-राष्ट्रीय मार्गों की खाली पड़ी भूमि सहित तमाम सरकारी और मठों की खली पड़ी जमीन व्यावसायिक इस्तेमाल के लिए अस्पृश्य-आदिवासियों में वितरित हो एवं 10-ग्राम-पंचायत,शहरी निकाय,संसद-विधासभा की सीटों;राज्य एवं केन्द्र की कैबिनेट;विभिन्न मंत्रालयों के कार्यालयों;विधान परिषद-राज्यसभा;राष्ट्रपति,राज्यपाल एवं प्रधानमंत्री व मुख्यमंत्री के कार्यालयों इत्यादि… !
इसमें कोई शक नहीं कि उपरोक्त क्षेत्रों में संख्यानुपात में बंटवारे के आधार पर मूलनिवासी नेता-एक्टिविस्ट,छात्र-गुरुजन और बुद्धिजीवी अगर अपनी आजादी की लड़ाई लड़ते हैं तो शासक दल जितना भी देव और देश-भक्ति की लहर पैदा करे; जितना भी समाज को बांटने की साजिश करे मूलनिवासी बहुजन समाज 15 अगस्त,1947 का इतिहास दोहराते हुए इस देश की सत्ता पर काबिज हो सकते हैं!