शशिकांत गुप्ते
सन 1961 में प्रदर्शित फ़िल्म ससुराल के इस गीत का स्मरण हुआ। गीत लिखा है गीतकार शैलेंद्रजी ने।
एक सवाल मै करूं,एक सवाल तुम करो
हर सवाल का सवाल ही जवाब हो
यह तो फिल्मों में ही सम्भव है।
व्यवहारिक जिंदगी में तो सवाल शब्द ही नदारद हो गया है।
इनदिनों सवाल उपस्थिति करने पर ससुराल जाने की सिर्फ धमकी ही मिलती है, बल्कि वास्तव में बगैर किसी कारण के ससुराल की आबोहवा को सहना भी पड़ सकता है? यह ससुराल मतलब पत्नी का मायका नहीं है?
इस ससुराल में बाकायदा बगैर सबूत के और कागजी कारवाही किए बिना भी भेजा जा सकता है।
इस ससुराल में बहुत से सत्संगी बापू लोग भी मेहमान नवाजी का लुफ्त उठा ही रहें हैं।
सयोंग से यदि किसी के सँया ही कोतवाल हो तो फिर उसका बाल भी बांका नहीं हो सकता है।
कोतवाल से बड़े ओहदे पर कोई विराजित होतो उसका पुत्र मोह इतना जाग जाता है, और बगैर प्रशासनिक आदेश के स्वचलित बुलडोजर चल जाता है।
शुचिता पूर्ण राजनीति का सिर्फ दावा ही नहीं किया जा रहा है,बल्कि उसे अमलीजामा भी पहनाया जा रहा है। इसलिए संतान के प्रति असीम प्रेम को अपनी स्मृति से औझल नहीं होने देतें हैं। समझने वालों को विस्तार से बताने की आवश्यकता नहीं है।
अंत में उक्त गीत की इन पँक्तियों को प्रस्तुत कर चर्चा का समापन करतें हैं।
है मालुम की जाना,दुनिया एक सराय
फिर क्यों जाते वक़्त मुसाफिर रोये और रुलाये
यह दार्शनिक अंदाज में कही गई बात है।
बहुत से लोगों को भ्रम है कि, उन्होंने कलयुग में भी अमृतपान किया है?
इस लेख पढ़ने पर एक व्यंग्यकार मित्र ने अपनी टिप्पणी इस तरह प्रस्तुत की।
एक अमरबेल नामक बेल होती है। जो पौधों पर वृक्षों पर यहाँ तक की बागड़ पर चढ़ कर उसका ही शोषण कर उसे नष्ट कर देती है और स्वयं बढ़ती जाती है।
यह बेल पीले रंग की बगैर टहनी और पत्तों की होती है।
शशिकांत गुप्ते इंदौर