अग्नि आलोक
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बीती ताहि बिसार दे आगे….

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शशिकांत गुप्ते

भूत,वर्तमान और भविष्य यह तीनों काल है। यहॉ पर काल से तात्पर्य समय से है। यहाँ काल का अर्थ अशुभता से कतई नहीं है।
भूत काल में घटित तमाम शुभ-अशुभ,अच्छी-बुरी सभी घटनाएं इतिहास में लिपिबद्ध हो जाती है।
एक अकाट्य सत्य है कि,मानव जैसा स्वार्थी अन्य कोई भी प्राणी नहीं है।
इसीलिए मानव इतिहास का उपयोग अपने स्वार्थ के लिए करता है। भविष्य की कल्पनातित योजनाओं में खोया रहता है।
वर्तमान में उहापोह में समय जाया करता है।
इनदिनों इतिहास को बदलने के मुद्दे को चर्चित किया जा रहा है।
भविष्य तो इतना उज्ज्वल प्रस्तुत किया जा रहा है मानों अपना देश को विश्व गुरु बनने में कुछ ही क्षण ही शेष है।
अहम सवाल है तो यह है कि, आज का वर्तमान ही भविष्य में इतिहास बनेगा?
क्या भविष्य में वर्तमान की कमियां खामियां लिपिबद्ध नहीं होंगी?
इतिहास को कागजों पर स्वार्थपूर्ति की स्याही से निहितार्थ सोच रूपी कलम से लिपिबद्ध करने मात्र से क्या वर्तमान की त्रुटियां गायब हो सकती है?
इतिहास में हम विचारकों चितकों
क्रांतिकारियों की शहादतों, समाज की दकियानूसी सोच को बदलने वाले सन्तों, समाज सुधारकों और परिवर्तनकारियों का इतिहास पढतें हैं। साथ ही हम विघ्नसंतोषियों,गद्दारों, और दकियानूसी सोच रखने वाले कट्टरपंथियों और हानिकारक (Destructive) लोगों की गतिविधियों को भी इतिहास में ही पढतें हैं।
जब हम मोहम्मद तुगलक को पढतें हैं,हिटलर मुसोलिनी आदि तानाशाहों का इतिहास पढतें हैं,तब उनकी भरसक निंदा करतें है।
हम तात्कालिक उस पीढ़ी को भी कोसतें हैं,जो पीढ़ी समझौतावादी थी। जिस पीढ़ी ने तात्कालिक तानाशाहों का प्रतिकार करने वालों का नैतिक समर्थन नहीं किया।
वर्तमान की बुनियादी समस्याओं के लिए दोषी व्यवस्था का मुखर होकर विरोध नहीं करने पर हमारी भावीपीढ़ी भी हमें क्षमा नहीं करेगी।
क्या महामारी के ख़ौफ़ से पैदल चलते हुए श्रमिक,नदियों में तैरते मृत देह। नोटबन्दी के फरमान के बाद, स्वयं के रुपयों को ही बदलने के लिए विवश होकर घण्टों कतार में खड़े होने के लिए विवश देशवासियों को। बेरोजगरों बढ़ती संख्या के बावजूद निद्रामग्न व्यवस्था को,असंवैधानिक निर्णय से चलने वाले बुलडोजर को,जंघन्य अप्राधारियों के स्वागत को आदि मुद्दों को इतिहास लिपिबद्ध करेगा।
क्या जवाब देंगे हम भावीपीढ़ी को?
मुख्य मुद्दा है, वर्तमान की ज्वलंत समस्याएं।
इतिहास की अनावश्यक चर्चा में देश की जनता को उलझाए रखना भी एक साज़िश है।
प्रगतिशील सोच रखने वाले दीपक बनातें हैं,यथास्थितिवादी दीपक बुझाने के लिए हवा बनातें है।
शायर स्व.राहत इंदौरीजी का यह शेर प्रासंगिक है।
जहाँ तेज हवाओं का आना जाना है
नतीजा कुछ भी चिराग हमें वही जलाना है।

शशिकांत गुप्ते इंदौर

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