अग्नि आलोक
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नर-नारी के संगम का सूत्र

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 आरती शर्मा

_उदञ्जिसामिप्रवेशः लेखर्षभानन्दे प्रयोजकीभृतो हेतुः।_

      योनि में आधे शिश्न का दीर्घकालीन प्रवेश परमानन्द उत्पन्न करता है। 

     उदञ्जिसामिप्रवेश इति। सामिप्रवेशः अर्धप्रवेशः ‘अर्धभागे तु सामिस्यादिति शब्दार्णवे, लेखर्षभः इन्द्रः, तदीयानन्दस्य कारणम्, ब्रह्मानन्ददृष्ट्या लेखर्षभानन्दस्य सूक्ष्मत्वात्तादृक्सूक्ष्मानन्दस्य प्रकाशने अर्धोदञ्जिप्रवेशस्य कारण त्वमित्यर्थःI  

  ~पुरुष सूक्त ||९||

     सामि प्रवेश का अर्थ है कि योनि के आधे भाग में शिश्न का लम्बे समय तक सक्रिय रहने के लिए प्रवेश करना। अतः योनि के आधे भाग में शिश्न को प्रवेश करने पर जो आनन्द आता है—उस आनन्द का नाम ही ब्रह्मानन्द है।

      सूक्ष्म होने के कारण वैसे सूक्ष्म आनन्द को उत्पन्न करने में योनि में आधे शिश्न का प्रवेश कारण है अर्थात् लिंग का बड़ा होना आधारहीन होता है. 

आचार्य पुरूरवा ने सम्भोग की बहुत ही सफल तकनीक पर प्रकाश डाला है; क्योंकि अधरपान और लकड़ी पर लाख के चिपकने की भांति आलिङ्गन करने के साथ योनि का चुम्बन करते हुए ही कामिनी योनि में शिश्न प्रवेश के लिये आतुर हो उठती है.

    फिर उसकी योनि में एक बार जब यूँ लिङ्ग का प्रवेश कर दिया जाता है तो और आतुरता की सीमा का उल्लंघन करती हुई लिपट जाती है.

     तब उसे और अधिक आतुर बनाने के लिये पुनः आधे लिङ्ग का प्रवेश बहुत ही आवश्यक है; क्योंकि जब आधे शिश्न का बार-बार प्रवेश होता है तो स्त्री की कामातुरता बढ़ती ही चली जाती है और वह द्रवित होने के मार्ग पर चल पड़ती है।

     वह चाहने लगती है कि कब योनिद्रव बाहर आ जाये. उस समय पुरुष धैर्य के साथ जितनी देर आनंद का अनुभव करे और कराये, उतनी ही शीघ्रता स्त्री के द्रावण में निरत होगी और फिर द्रावणोपरान्त वह सन्तुष्ट हो जायेगी.

 एवं प्राप्तकमेण आनन्दत्रयस्य प्राप्ति साधनं विविच्य प्रकृति-स्वाधिष्ठाने अनुक्षण व्याघाते किं साधकतमं कारणमिति संशयवाक्यमुपन्यस्य साधकतमं कारणं सम्प्रदर्शयति …!

       आनंद, परमानंद, ब्रह्मानंद :  प्राप्त क्रम से तीनों प्रकार के आनन्दों की प्राप्ति के साधन के रूप में दीर्घकाल तक बिना स्खलित रहे योनिसेवा करने वाले पुरुष की भूमिका अहम होती है.

     प्रकृति और आत्मा का एक स्थान जो योनि है. उसमें लगातार आघात करने, (प्रहार करने) में सबसे बड़ा साधक कौन कारण है? शीघ्रपतनरहित लिंग.

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