विदेशी पोर्टफोलियो निवेशकों (एफपीआई) की ताजा बिकवाली भारतीय शेयरों में निवेश घटाने के एक दशक से चले आ रहे रुझान का ही हिस्सा है। एफपीआई ने पिछली दो तिमाहियों में शुद्ध आधार पर लगभग 2.43 लाख करोड़ रुपये (लगभग 28.3 अरब डॉलर) के शेयर बेचे हैं जिससे सूचीबद्ध कंपनियों में उनकी हिस्सेदारी और घट गई है।

भारतीय शेयरों में एफपीआई का स्वामित्व 2015 के अपने ऊंचे स्तर से लगातार घट रहा है। दिसंबर 2024 के अंत में भारतीय इक्विटी में उनकी निवेश हिस्सेदारी 19.1 प्रतिशत थी जो सितंबर 2024 के अंत में 18.8 प्रतिशत से थोड़ी ही अधिक थी। लेकिन अभी भी जून 2010 के बाद से सबसे कम के आसपास है। जून 2010 में यह 18.2 प्रतिशत थी। एफपीआई ने पिछली 20 तिमाहियों में से 14 में अपना निवेश (तिमाही आधार पर) घटाया। इसके विपरीत, उन्होंने जून 2005 से मार्च 2015 के बीच की 40 तिमाहियों में से 15 में अपनी हिस्सेदारी घटाई थी।
विश्लेषकों का मानना है कि भारतीय शेयरों में एफपीआई स्वामित्व चालू तिमाही में और ज्यादा घट जाएगा। उनका विश्लेषण तिमाही के अंत में प्रवर्तक हिस्सेदारी और बीएसई-500, बीएसई मिडकैप, बीएसई स्मॉलकैप सूचकांकों की 1,176 सूचीबद्ध कंपनियों के बाजार पूंजीकरण आंकड़े पर आधारित है। इन सूचकांकों का संयुक्त बाजार पूंजीकरण बुधवार को 382.3 लाख करोड़ रुपये था जो बीएसई पर सूचीबद्ध सभी कंपनियों के कुल बाजार पूंजीकरण का 94.4 फीसदी हिस्सा है।
इस नमूने में प्रमुख विलय और अधिग्रहणों को समायोजित किया गया है, जिनमें एचडीएफसी बैंक के साथ एचडीएफसी का विलय, हिंदुस्तान यूनिलीवर द्वारा जीएसके कंज्यूमर का अधिग्रहण, सेसा स्टरलाइट का स्टरलाइट इंडस्ट्रीज के साथ विलय और आदित्य बिड़ला नुवो का ग्रासिम इंडस्ट्रीज के साथ विलय शामिल है।
भारत में एफपीआई निवेश मार्च 2015 की तिमाही में नई ऊंचाई पर था। उस समय विदेशी निवेशकों के पास भारत की शीर्ष सूचीबद्ध कंपनियों का 25.7 प्रतिशत स्वामित्व था। ताजा गिरावट के साथ ही एफपीआई का स्वामित्व अब अपने ऊंचे स्तर से 660 आधार अंक या लगभग एक चौथाई कम हो गया है।
विश्लेषक एफपीआई निवेश में ‘संरचनात्मक’ गिरावट का संकेत दे रहे हैं, जो मुख्य रूप से भारत में कॉरपोरेट आय की वृद्धि में सुस्ती के कारण है। सिस्टमैटिक्स इंस्टीट्यूशनल इक्विटी में शोध और इक्विटी रणनीति के सह-प्रमुख धनंजय सिन्हा ने कहा, ‘मूलतः, एफपीआई ने पिछले एक दशक के दौरान भारतीय इक्विटी बाजार में अपनी भागीदारी घटाई है।’
सिन्हा ने कहा, ‘इसके विपरीत 2004-2015 की अवधि में एफपीआई मजबूत भागीदार थे, सिवाय 2008 के वैश्विक वित्तीय संकट और 2012 के यूरोजोन संकट (जब वे थोड़े समय के लिए शुद्ध विक्रेता बन गए थे) को छोड़कर ।’ उन्हें उम्मीद है कि जब तक कॉरपोरेट आय में सुधार नहीं होता, एफपीआई निकट भविष्य में मुनाफावसूली जारी रख सकते हैं।
इक्विनॉमिक्स रिसर्च के संस्थापक एवं मुख्य कार्याधिकारी जी चोकालिंगम ने कहा, ‘पिछले दशक में सूचीबद्ध भारतीय कंपनियों का बाजार पूंजीकरण लगभग 5 गुना बढ़ गया जिससे एफपीआई निवेश का बाजार मूल्य भी तेजी से चढ़ गया है।’ उन्होंने कहा कि यही वजह है कि कई लोग अब मुनाफा बुक कर रहे हैं क्योंकि उन्हें कई शेयरों में फिलहाल उचित मूल्यांकन नहीं दिख रहा है।
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