शशिकांत गुप्ते
कंपकपाती ठंड,चिलचिलाती गर्मी और अतिवृष्टि का कहर सब सहन करना पड़ता है।
मौसम के बदलाव में आ रहें असंतुलन के लिए कौन जिम्मेदार? प्रकृति से खिलवाड़ कौन करता है?
उपर्युक्त प्रश्नों का जवाब वही दे सकता है,जो ईमानदारी से अपनी गलती स्वीकार करने का साहस रखता है।
एक शाश्वत सत्य है,मनुष्य जैसा स्वार्थी प्राणी अन्य कोई नहीं है।मनुष्य अपनी स्वार्थपूर्ति के लिए प्राकृतिक सम्पदाओं का पर्याप्त दोहन तो करता है,मतलब प्रकृति का बेतहाशा शोषण करता है,मतलब प्रकृति के साथ अमानवीय व्यवहार करता है।
प्रकृति जब अपना रौद्ररूप दिखती है,तब प्राकृतिक आपदाओं से हुई चल-अचल संम्पत्ति के नुकसान पर घड़ियाली आंसू बहकर मनुष्य अपने कर्तव्य की इतिश्री समझता है।
नदियों, तालाबों और आच्छादित वन सौदर्य,पर्वतों की श्रृंखलाओं
का वर्णन भूगोल की पुस्तकों में सिर्फ पाठ्यक्रम में पढ़ाया जाता है। सृष्टि के सौदर्य का महत्व कहानियों,कविताओं और फिल्मी गीतों में वर्णित होता है।
हरएक समस्या का हमेशा अस्थाई (Temporary) इलाज़ ही किया जाता है।
अस्थाई इलाज़ से तात्पर्य खंडहर पर रँग रोगन करना। मतलब बांसी कढ़ी में उबाल लाने वाली कहावत को चरितार्थ करना होता है।
सबसे बड़ा सवाल है,नीयत का।
यदि नीयत ही दोगली होतो सिर्फ बाह्य स्वरूप को श्रृंगारित करने के लिए बनावटी साजसज्जा की जाती है। पीतल पर सोने की परत
(मूलम्मा) ज्यादा समय तक टिकती नहीं है।
इस संदर्भ में सन 1971 में प्रदर्शित फ़िल्म मर्यादा के गीत की निम्न पंक्तियाँ प्रासंगिक हैं।
इस गीत के गीतकार हैं आंनद बक्षीजी
जुबाँ पे दर्द भरी दासतां चली आई
बहार आने से पहले खिज़ा चली आई
इसलिए मनुष्य को अपनी मर्यादा में ही रहना चाहिए।
अब पछताए होत क्या जब चिड़िया चुग गई खेत इस मुहावरे को चरितार्थ होने से रोकने के लिए, हरसमस्या का स्थाई हल ही होना चाहिए।
शशिकांत गुप्ते इंदौर