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मुफ्त की चुनावी रेवडिय़ां:सुप्रीम कोर्ट से ले कर चुनाव आयोग तक की नसीहतें बेअसर

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—राज कुमार सिंह

मुफ्त की चुनावी रेवडिय़ां यानी मतदाताओं को लुभाने वाले चुनावी वादे फिर चर्चा में हैं। यह खुशफहमी पालना भूल होगी कि इन चर्चाओं में मुफ्त की इन योजनाओं के औचित्य-अनौचित्य या हानि-लाभ पर कोई गंभीर चिंतन हो रहा है। दरअसल, जो हो रहा है, वह भी विशुद्ध राजनीति तो है ही, चुनावी दांवपेंच से ही प्रेरित भी है। कर्नाटक विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने जो पांच गारंटियां दी थीं, उनमें महिलाओं को मुफ्त बस यात्रा की ‘शक्ति’ गारंटी भी शामिल है।

हाल ही कर्नाटक के उपमुख्यमंत्री डी.के. शिवकुमार ने कहा कि कुछ महिलाओं ने टिकट ले कर यात्रा करने की इच्छा जताई है, इसलिए ‘शक्ति’ योजना पर पुनर्विचार किया जा सकता है। महाराष्ट्र और झारखंड विधानसभा चुनाव के बीच आए इस बयान पर शिवकुमार की पार्टी कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे ने नसीहत दी कि वे ही चुनावी वादे किए जाने चाहिए, जिन्हें पूरा करना संभव हो। निश्चय ही खरगे को आशंका रही होगी कि शिवकुमार के बयान से, खासकर महाराष्ट्र में कांग्रेस द्वारा किए जाने वाले चुनावी वादों की विश्वसनीयता पर असर पड़ सकता है। इस असर का आकलन तो चुनाव नतीजों के बाद ही हो पाएगा, लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने खरगे के बयान को लपक कर कांग्रेस पर झूठे वादे करने का कटाक्ष करने में देर नहीं लगाई। उसी के बाद कांग्रेस और भाजपा में जारी वाक् युद्ध से चुनाव जीतने के लिए मुफ्त की रेवडिय़ों के वादे फिर बहस का विषय बन गए हैं। दरअसल, चुनाव जीतने के लिए लोक लुभावन वादों की पुरानी राजनीतिक प्रवृत्ति पिछले एक दशक में मुफ्त की रेवडिय़ां चुनाव जीतने की गारंटी बनती नजर आई हैं।

देश भर में मोदी लहर के बावजूद दिल्ली में आम आदमी पार्टी की चुनावी सफलता में मुफ्त पानी-बिजली जैसे वादों ने निर्णायक भूमिका निभाई थी। सत्ता में आने पर अरविंद केजरीवाल ने वादों पर अमल किया तो चुनावी सफलता का दोहराव भी हुआ। केजरीवाल भी चुनावी वादों को गारंटी बताने लगे तो इसका फायदा आप को पंजाब में भी प्रचंड बहुमत के साथ सत्ता के रूप में मिला। भले ही मुफ्त की रेवडिय़ों या ऐसी गारंटियों के जरिए चुनाव जीतने के लिए केजरीवाल को निशाना बनाया जाता रहा हो लेकिन आज शायद ही कोई राजनीतिक दल हो, जो इन चुनावी नुस्खों को नहीं आजमाता हो। हां, नामकरण अलग-अलग हो सकता है। विपक्षी दल तो कोरोना काल में शुरू की गई ‘प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना’ को लगातार बढ़ाए जाने को भी अब इसी नजर से देखने लगे हैं। महाराष्ट्र में ही चुनाव की घोषणा से पहले हुई एकनाथ शिंदे मंत्रिमंडल की अंतिम बैठक में लगभग 150 लोक लुभावन घोषणाओं को क्या कहा जाएगा? दो साल से सत्तारूढ़ शिंदे सरकार अब तक क्या करती रही? कर्नाटक ही नहीं, हिमाचल प्रदेश में भी कांग्रेस द्वारा चुनाव जीतने के लिए दी गई गारंटियों पर अमल को ले कर जब-तब सवाल उठते रहते हैं, तो अन्य दलों द्वारा शासित राज्यों की कहानी भी अलग नहीं है।

वादे सरकार बनते ही राज्य के कायाकल्प के किए जाते हैं, पर उनमें से ज्यादातर बड़े वादे अंतिम समय तक लटके रहते हैं या फिर उन पर प्रतीकात्मक अमल होता है। ऐसा इसलिए भी क्योंकि वादों की बारिश करते समय उनकी व्यावहारिकता और आर्थिक प्रभाव पर ध्यान नहीं दिया जाता। बोझ ईमानदार करदाताओं पर ही पड़ता है, जिनका प्रतिशत विदेशों की तुलना में हमारे देश में बेहद कम है। यह सवाल भी बार-बार उठता रहा है कि क्या उन करदाताओं से सहमति नहीं ली जानी चाहिए, जो देश के विकास के लिए कई तरह के कर देते हैं, न कि चुनावी ‘रेवडिय़ों’ से सत्ता की ‘रबड़ी’ की राजनीति के लिए? निश्चय ही सरकारों को समाज कल्याण की योजनाओं से मुंह मोडऩा भी नहीं चाहिए। अगर देश या किसी प्रदेश की सरकार अपने सभी नागरिकों को मुफ्त शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध कराए तो उसकी प्रशंसा ही की जाएगी। सीमित मात्रा में मुफ्त पानी और सस्ती बिजली जैसी सुविधाओं की सोच भी समझ में आती है। लेकिन लैपटॉप, स्मार्ट फोन, साइकिल, टीवी, फ्रिज आदि मुफ्त बांटने की प्रवृत्ति तो रिश्वत जैसी ज्यादा लगती है।

अब तो बात मतदाताओं को मासिक या सालाना नकद राशि दे कर ‘लाड़’ जताने तक पहुंच गई है। जाहिर है, यह ‘लाड़’ वोट का ‘रिटर्न गिफ्ट’ ही है, पर उसकी कीमत सत्ता पाने वाला दल या नेता नहीं, ईमानदार करदाता ही चुकाता है। कभी तमिलनाडु से शुरू हुआ मुफ्त की रेवडिय़ों का चुनावी खेल अब पूरे देश में खुल कर खेला जा रहा है। इसे अब हर दल आजमा रहा है। चुनाव-दर-चुनाव मुफ्त की रेवडिय़ों की प्रवृत्ति भी बढ़ रही है और सरकारी खजाने पर उसका बोझ भी। यह बहस चल पड़ी है कि मूलभूत सुविधाएं उपलब्ध करवाना ‘रेवड़ी-राजनीति’ है तो उद्योगों को तमाम तरह की राहतें देना क्या है? राजनीतिक दलों में लोक लुभावन घोषणाओं की बढ़ती होड़ से साफ है कि इस मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट से ले कर चुनाव आयोग तक की नसीहतें बेअसर हंै। दोनों भी नसीहत देने से आगे नहीं बढऩा चाहते। हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने पांच जुलाई, 2013 को टिप्पणी की थी कि इससे सभी लोग प्रभावित होते हैं, और स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनाव की जड़ें काफी हद तक हिल जाती हैं। लेकिन परवाह कौन करता है, क्योंकि सभी दल तो इस खेल में शरीक हैं और मतदाताओं की भूमिका महज मतदान तक सिमटती जा रही है!

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