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ग्रामीण महिलाओं और किशोरियों के लिए आजादी का कोई मतलब नहीं?

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खुशबू बोरा
मेगड़ी स्टेट, उत्तराखंड

कभी कभी हमारे देश में देखकर लगता है कि देश तो आजाद हो गया है, जहां सभी के लिए अपनी पसंद से जीने और रहने की आज़ादी है. लेकिन महिलाओं और किशोरियों खासकर जो ग्रामीण क्षेत्रों में रहती हैं, उनके लिए आजादी का कोई मतलब नहीं है. उनके लिए तो नींद ही स्वतंत्रता को महसूस करने का एकमात्र साधन है क्योंकि इसमें कोई रोक टोक नहीं है. बंद आंखों से एक लड़की अपने वह सारे सपने, आजादी और अपनी खुशी महसूस करती है जिससे वह पाना चाहती है. लेकिन आंख खुलते ही वह एक बार फिर से संस्कृति और परंपरा की बेड़ियों में खुद को बंधा हुआ पाती है. सवाल यह है कि क्या सही अर्थों में यही आजादी है? देश गुलामी से आज़ादी की तरफ बढ़ तो गया लेकिन दूर दराज़ ग्रामीण क्षेत्रों की महिलाएं और किशोरियां आज भी पितृसत्ता समाज की बेड़ियों में जकड़ी हुई हैं. उन्हें घर की चारदीवारी तक सीमित रखा जाता है. यहां तक कि उन्हें अपने लिए फैसले लेने की आज़ादी भी नहीं होती है. उन्हें वही फैसला मानना पड़ता है जो घर के पुरुष सदस्य लेते हैं, फिर वह फैसला चाहे उनके हक़ में न हो. उन्हें तो अपनी राय देने तक की आज़ादी नहीं होती है.

देश के अन्य दूर दराज़ ग्रामीण क्षेत्रों की तरह पहाड़ी राज्य उत्तराखंड के ग्रामीण क्षेत्र मेगड़ी स्टेट में भी महिलाओं और किशोरियों की यही स्थिति है. जहां उन्हें पितृसत्तात्मक समाज के अधीन जीने के लिए मजबूर होना पड़ता है. राज्य के बागेश्वर जिला के गरुड़ ब्लॉक स्थित इस गांव की जनसंख्या लगभग 2528 है. जबकि साक्षरता की दर करीब 85 फीसदी है. जिसमें करीब 40 प्रतिशत महिलाएं और 45 प्रतिशत पुरुष साक्षरता दर है. यानी साक्षरता प्राप्त करने में महिलाएं भी पुरुषों से पीछे नहीं हैं. इस गांव में नई पीढ़ी की लगभग सभी किशोरियां कम से कम 12वीं पास अवश्य हैं. इसके बावजूद यहां की महिलाओं और किशोरियों को पुरुषसत्तात्मक समाज के अधीन रहना पड़ता है. उन्हें अपने जीवन के फैसले लेने तक का अधिकार नहीं है. 12वीं के बाद लगभग किशोरियों की शादी तय कर दी जाती है. क्या वह आगे पढ़ना चाहती हैं या नहीं? क्या वह अपने पैरों पर खड़ा होकर सशक्त बनना चाहती हैं या नहीं? वह अपने भविष्य को लेकर क्या सपने देख रही हैं? यह उनसे पूछने की ज़रूरत भी नहीं समझी जाती है.

इस संबंध में 9वीं क्लास की एक छात्रा कुमारी जिया कहती कि लड़की के किशोरावस्था में पहुंचते ही परिवार की इज़्ज़त, संस्कृति और परंपरा की गठरी उसके सर पर रख दी जाती है, जिसे उम्र भर ढोने के लिए उसे मजबूर किया जाता है. हालांकि यही परिस्थिति और आशाएं परिवार के लड़कों के साथ नहीं की जाती है. उसे अपनी पसंद से जीने की पूरी आज़ादी प्रदान की जाती है. घर के फैसले भी उसके भविष्य को देखकर लिए जाते हैं. यदि लड़का जाति और धर्म से हटकर भी जीवनसाथी का चुनाव करता है तो समाज को इसमें कोई बुराई नज़र नहीं आती है. लेकिन उसी समाज को लड़की द्वारा लिये जाने वाले ऐसे किसी भी फैसले पर सख्त एतराज़ हो जाता है. यदि कोई लड़की नौकरी करना चाहती है तो उसे आजादी नहीं है. शादी के बाद नई बहू अपनी पसंद की नौकरी भी नहीं कर सकती है. इसके लिए उसे अपने पति से अनुमति लेनी होती है. जो पुरुष अहंकार में डूबे होने के कारण उसे नौकरी करने से रोक देता है. समाज भी बहू की नौकरी को परंपरा और रीति रिवाजों के विपरीत मानकर इसपर उंगलियां उठाता है.

इस संबंध में गांव की एक 40 वर्षीय महिला खष्टी देवी कहती हैं कि पिछले कुछ दशकों में महिलाओं और किशोरियों के प्रति समाज की सोच में काफी बदलाव आया है. आज लड़कियों पर उस प्रकार की पाबंदी नहीं लगाई जाती है, जैसा कि हमारे समय में होता था. वह बताती हैं कि हमारे समय में लड़कियों के पांचवीं पास करते ही शादी कर दी जाती थी. उच्च विद्यालय दूर होने के कारण माता-पिता लड़कियों को स्कूल भेजने पर पाबंदी लगा देते थे. यदि कोई लड़की आगे पढ़ने के लिए स्कूल जाने की हिम्मत भी दिखाती थी तो उसे समाज द्वारा मानसिक रूप से इस प्रकार टॉर्चर किया जाता था कि वह खुद ही स्कूल जाना छोड़ देती थी. एक अन्य महिला निशा बोरा कहती हैं कि 

पहले और आज के समय में लोगों की सोच में थोड़ा बहुत बदलाव आया है. चूंकि सरकार भी बालिका शिक्षा को प्रोत्साहित करने के लिए छात्रवृत्ति समेत कई योजनाएं चला रही है. जिससे माता-पिता उन्हें पढ़ने के लिए प्रोत्साहित कर रहे हैं. इसकी वजह से लड़कियां भी जागरूक हो रही हैं. लेकिन 12वीं के बाद अभी भी उनके घर से बाहर आने-जाने में रोक-टोक लगाई जाती है. जिसके लिए बदलाव लाना बहुत जरूरी है.

इस संबंध में, सामाजिक कार्यकर्ता नीलम ग्रैंडी कहती हैं कि महिलाओं और किशोरियों के प्रति पहले की अपेक्षा ग्रामीण समाज की सोच में काफी बदलाव आया है. लेकिन शहरों की तुलना में ग्रामीण क्षेत्र इस मामले में आज भी बहुत पीछे है. लड़कियों को पढ़ने की आज़ादी तो मिल गई लेकिन उनके जीवन का फैसला पुरुषसत्तात्मक समाज ही करता है. जिसे उन्हें हर हाल में स्वीकार करना होता है. दरअसल ग्रामीण समाज भले ही साक्षर हो गया हो, लेकिन वह जागरूक नहीं है. वह अभी भी महिलाओं और किशोरियों के मुद्दों को अपनी संकुचित सोच के दायरे में रख कर देखता है और उन्हें इसका पालन करने के लिए मजबूर करता है. जिसमें परिवार की मौन सहमति भी होती है. नीलम कहती हैं कि इस सोच को केवल जागरूकता के माध्यम से ही दूर किया जा सकता है. तब जाकर कहीं महिलाओं और किशोरियों की आज़ादी का असली अर्थ पूरा होगा. (चरखा फीचर)

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