अग्नि आलोक
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मूलभूत चिंतन : मायाजाल आप और मंज़िल

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 पुष्पा गुप्ता

    _छवि निर्माण के विज्ञान को ऋषियों योगियों ने बहुत अच्छे से समझा। इस खेल को समझने के लिए हमें मूर्ति पूजा के विज्ञान को भी समझना होगा।_

       दो प्रकार का मूर्ति पूजन प्रचलित है एक स्थिर मूर्ति ,दूसरे चल मूर्ति पूजन।

     _मंदिरों में स्थिर मूर्ति का पूजन होता है। पारिवारिक धार्मिक अनुष्ठानों झाँकियों आदि में चल मूर्ति की पूजा होती है। मूर्ति पूजा में मूर्ति का निर्माण प्राणप्रतिष्ठा पूजन होता है। चल मूर्तियों का पूजन के उपरांत विसर्जन होता है।स्थिर मूर्तियों का विसर्जन नहीं होता।_

       विचार भाव कल्पनायें धारणायें हमारा आभासी अस्तित्व रचतीं हैं।जिसे हम आभामंडल के विज्ञान से समझ सकते हैं।

    आभामंडल हमारे विचार भावों से प्रभावित होता है।उसकी रचना और उसमें परिवर्तन हमारे भाव विचारों के अनुसार होता रहता है।

प्रत्येक जीवधारी के इर्दगिर्द विशेष प्रकार का प्रकाशीय क्षेत्र होता है, जिसे आभामंडल कहा जाता है।चेहरे के आसपास आभामंडल विशेष रूप से सघन होता है।

    _इसीलिए पुराने चित्रकारों, मूर्तिकारों ने मूर्तियों के मुख के चारों ओर विशेष वृताकार आकृति बनाई।शीतकाल में जब हम धूप सेंक रहे होते हैं, तब हम अपना स्वयं का आभामंडल देख सकते हैं।_

    अपनी छाया और सूर्य के प्रकाश की सीमा रेखा पर कुछ मिनट एकाग्रता से देखने पर हमें अपनी छाया के चारों ओर विशेष प्रकार का घेरा दिखने लगता है। व्यक्ति के व्यक्तित्व के अनुसार आभामंडल होता है।

स्वभाव आचरण के अनुसार व्यक्ति की विशेष छवि बनती है।भले व्यक्ति की छवि अच्छी होती है।बुरे व्यक्ति की छवि खराब होती है।साधारणतया व्यक्ति के चेहरे को देख कर उसके स्वभाव व्यवहार की झलक मिल जाती है।

     _आभामंडल के प्रभाव में कभी वृद्धि कभी न्यूनता देखी जाती है।तथा उसके स्वरूप में रंग आदि में परिवर्तन होते रहते हैं।इससे यह सिद्ध होता है कि आभामंडल ,छवि के निर्माता रचियता हम स्वयं होते हैं।यह खेल हमारा ही होता है।_

        व्यक्ति भी अपनी छवि का निर्माण करता है।उस छवि को निरन्तर पुष्ट करता है,एक तरह से प्राणप्रतिष्ठा करता रहता है।

     इसलिए व्यक्ति अपनी छवि को अपने प्राणों से भी अधिक चाहने लगता है।इस छवि के खेल में प्राणप्रतिष्ठा और पूजन साथ साथ चलता रहता है।

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