अतार्किक भावविह्वल श्रद्धा-भक्ति और अवतारवाद तथा वैज्ञानिक विश्लेषण एवं वस्तुपरक इतिहास-दृष्टि से रिक्त यांत्रिक एवं पूर्वाग्रहपूर्ण आलोचना – ये दोनों ही आत्यंतिक छोर, ऐतिहासिक घटनाओं और ऐतिहासिक व्यक्तित्वों का मूल्यांकन करने और अपने समय के लिए ज़रूरी और प्रासंगिक नतीजे निकालने के सन्दर्भ में भयंकर अनर्थकारी होते हैं. दुर्योगवश इन दिनों आलोचनात्मक कर्म को वैज्ञानिक तर्कणा के अभाव के कारण पूजा और श्रद्धा या गाली और निन्दा का पर्याय बना दिया गया है.
अपनी जिस विचारधारात्मक कमज़ोरी के कारण कम्युनिस्ट प्रायः पहले गांधी की यांत्रिक एवं भर्त्सनामूलक आलोचना किया करते थे, उसी कमज़ोरी के कारण निराशा और पराजयबोध के मौजूदा दौर में, किसी उद्धारक महानायक की तलाश करते हुए वे अक्सर इन दिनों गांधी का महिमामण्डन या पूजा-अर्चना करते पाते जाते हैं. जाहिर है, अतार्किक श्रद्धा से सिर्फ़ अशांत-निराश मन को थोड़ा चैन मिल सकता है, लेकिन इतिहास को समझने और भविष्य की राह निकालने में कोई मदद नहीं मिल सकती.
गांधी का वैज्ञानिक विश्लेषण और मूल्यांकन एक लंबे निबन्ध का या एक पुस्तक का विषय है लेकिन यहां प्रस्तुत लेख को वैचारिक-राजनीतिक विश्लेषण के अप्रोच और पद्धति की दृष्टि से ज़रूर पढ़ा जाना चाहिए. लेख सात वर्षों पुराना है, लेकिन इस दृष्टि से आज भी प्रासंगिक है. आगे इस विषय पर और गहन शोध-अध्ययन करके लिखने का इरादा है – कात्यायनी
गांधी का व्यक्तित्व विराट था और उनके व्यक्तित्व और चिन्तन के अन्तरविरोध भी उतने ही गहरे थे. दार्शनिक स्तर पर उनका चिन्तन रस्किन, थोरो और तोल्स्तोय की जमीन पर खड़ा था, लेकिन इन चिन्तकों के मानवतावादी यूटोपिया को भारतीय रूपरंग में ढालते हुए गांधी ने हिन्दू धर्म की पारम्परिक कूपमण्डूकताओं, अंधविश्वासों, संकीर्णताओं से उसे सराबोर कर दिया था. वह अपने को सनातन धर्म का अनुयायी मानते थे और आचरण से एक उदार हिन्दू थे.
चातुर्वर्ण्य को वह आदर्शीकृत करके सामाजिक श्रम-विभाजन के रूप में स्थापित करना चाहते थे और अस्पृश्यता को समाप्त करना चाहते थे. जाहिर है कि यह एक उदार हिन्दू का यूटोपिया था. व्यवहारत: धर्म के उदारीकरण की नेक से नेक कोशिश धर्म के सामाजिक आधार और स्वीकार्यता को ही मजबूत बनाती है और अमली तौर पर हमारे सामाजिक जीवन में धर्म का दख़ल (चाहे जितने भी उदार रूप में) जब बढ़ता है तो अंततोगत्वा धार्मिक वर्जनाओं, रूढ़ियों और संस्कारों के दबाव कठोर और कट्टर रूप में ही सामने आते हैं, जिनके सर्वाधिक शिकार शोषित-उत्पीड़ित आम आबादी और स्त्रियां ही होती हैं.
गांधी धर्मनिरपेक्षता की जगह सर्वधर्मसमभाव की बात करते थे. एक बहुधार्मिक समाज में सामाजिक-राजनीतिक दायरों से धर्म को यदि पूरी तरह अलग नहीं किया जाये, तो सर्वधर्मसमभाव की लाख दुहाई देने के बावजूद, बहुसंख्या के धर्म का प्रभाव अन्ततोगत्वा वर्चस्वकारी रूपों में सामने आयेगा ही, और वस्तुगत तौर पर धार्मिक बहुसंख्यावाद की ज़मीन मजबूत होगी ही.
गांधी के ग्राम स्वराज्य की अवधारणा उत्पादन की पिछड़ी हुई पुरानी तकनीक के आधार पर स्वावलम्बी-स्वायत्त ग्राम समुदायों की अर्थव्यवस्था का यूटोपिया पेश करती थी, लेकिन सामंती भूस्वामियों से बलात् भूस्वामित्व छीनने के बजाय वे उन्हें समझा-बुझाकर क़ायल करने के पक्षधर थे. इसी कारण से, एक ओर तो काश्तकार किसानों की पिछड़ी चेतना वाली, धर्मभीरु और ज़मीनों का मालिक बनने की आकांक्षी भारी आबादी गांधी के पीछे लामबंद हुई.
दूसरी ओर किसान विद्रोहों की संभावना से भयभीत सामंतों को भी गांधी का यूटोपिया फ़िलहाली तौर पर अपने लिए मुफ़ीद जान पड़ा और गांधी उनके खुले विरोध को रोक पाने में काफ़ी हद तक सफल रहे. देश के बहुतेरे सामंत कांग्रेस में शामिल भी हुए या कम से कम उसका विरोध नहीं किया, क्योंकि उन्हें भरोसा था कि स्वाधीनता यदि गांधीवादी नेतृत्व में हासिल होगी तो बलात् उनकी भू-सम्पत्ति छीनी नहीं जायेगी और यदि भूमि-सुधार किसी रूप में होंगे भी तो उनके हितों की हिफ़ाज़त का पूरा ख़्याल रखा जायेगा.
गांधियन अर्थशास्त्र
गांधी श्रम और पूंजी के बीच के अन्तरविरोध को हल करने की स्वाभाविक क्रान्तिकारी प्रक्रिया को अपनाने के बजाय उनके बीच सामंजस्य का सिद्धान्त प्रस्तुत करते थे. ट्रस्टीशिप का सिद्धान्त पूंजीपतियों को इस बात का क़ायल करने की बात करता था कि वे स्वयं को सामाजिक सम्पदा का ट्रस्टी और मज़दूरों का संरक्षक/अभिभावक समझें. जाहिर है कि दार्शनिक स्तर पर बहुत भोंड़े किस्म के प्रत्ययवादी होने के साथ ही गांधी राजनीतिक अर्थशास्त्र का ककहरा भी नहीं जानते-समझते थे. मार्क्सवाद तो उन्होंने एकदम पढ़ा ही नहीं था (इसीलिए समाजवाद और कम्युनिज़्म की उन्होंने जहां कहीं भी आलोचना की है, वह बेहद चलताऊ और सतही अनुभववादी किस्म की थी), एडम स्मिथ और रिकार्डो के क्लासिकी बुर्जुआ राजनीतिक अर्थशास्त्र से भी उनका कोई परिचय नहीं था.
अमूर्त वैज्ञानिक अवधारणाओं से प्रस्थान करने और पूंजीवाद को उत्पादन का एक शाश्वत और प्राकृतिक रूप मानने के बावजूद क्लासिकी बुर्जुआ राजनीतिक अर्थशास्त्र की सबसे बड़ी उपलब्धि थी ‘मूल्य के श्रम सिद्धान्त’ (लेबर थियरी ऑफ वैल्यू) की खोज. गांधी ने अगर इसका थोड़ा भी अध्ययन किया होता तो ट्रस्टीशिप के अपने सिद्धान्त का प्रतिपादन कतई नहीं करते.
गांधी उत्पादक शक्तियों के निरंतर विकास और तदनुरूप उत्पादन-सम्बन्धों में बदलाव के साथ युग-परिवर्तन की ऐतिहासिक गति की कोई समझ नहीं रखते थे. पूंजीवाद की तमाम विभीषिकाओं के लिए गांधी उत्पादन के साधनों के निजी स्वामित्व और माल-उत्पादन (मुनाफे के लिए उत्पादन) को ज़िम्मेदार मानने की जगह कारखाना-उत्पादन में उन्नत तकनोलॉजी, मशीनों और स्वचालन को जिम्मेदार मानते थे और इसके विकल्प के तौर पर छोटे पैमाने के उत्पादन (हस्तशिल्प, कुटीर उद्योग, ग्रामीण किसानी अर्थव्यवस्था) पर बल देते थे.
हालांकि उनके इस सिद्धान्त और व्यवहार का एक अहम अन्तरविरोध यह था कि भारत के जो बड़े पूंजीपति कांग्रेस के और गांधी की विभिन्न संस्थाओं के वित्तपोषक थे, उनमें से एक को भी गांधी छोटे पैमाने के उत्पादक उपक्रमों की ओर नहीं मोड़़ सके. उल्टे गांधी के जीवनकाल में कांग्रेस समर्थक भारतीय पूंजीपतियों के स्वामित्व वाले बड़े उद्योगों का लगातार तेज गति से विकास हुआ. बहरहाल, सिद्धान्त और व्यवहार के इस अन्तरविरोध को दरकिनार करके हम गांधी के इस आर्थिक चिन्तन की पड़ताल करें.
विज्ञान और तकनोलॉजी का विकास उत्पादक शक्तियों के निरंतर विकास की नैसर्गिक प्रक्रिया का अंग है जो मानव सभ्यता के प्रारम्भ काल से ही निरंतर जारी है. उत्पादन की प्रक्रिया के दौरान मनुष्य सुनिश्चित उत्पादन-सम्बन्धों में बंधते हैं और यही उत्पादन-सम्बन्ध जब उत्पादक शक्तियों के विकास को अवरुद्ध करने लगते हैं तो उत्पादक शक्तियां उन्हें नष्ट कर नये उत्पादन-सम्बन्धों का निर्माण करती हैं और इतिहास नये युग में प्रवेश करता है. इतिहास की इसी स्वाभाविक गति से सामन्ती उत्पादन-सम्बन्धों को तोड़कर पूंजीवादी उत्पादन-सम्बन्ध अस्तित्व में आये.
पूंजीवाद के अन्तर्गत समस्या वे मशीनें नहीं हैं जो सामूहिक तौर पर लोगों को बड़े पैमाने पर उत्पादन में सक्षम बनाती हैं, बल्कि समस्या उत्पादन और वितरण के वे सम्बन्ध हैं जिनके अन्तर्गत उत्पादन के साधनों के स्वामी सामाजिक उपयोगिता को नहीं बल्कि मुनाफ़े को केन्द्र में रखकर उत्पादन करते हैं, नयी-नयी मशीनों का इस्तेमाल केवल उत्पादक वर्गों से ज्यादा से ज्यादा अधिशेष निचोड़ने और मुनाफ़े की दर को बढ़ाने के लिए करते हैं तथा लूट की आपसी होड़ में युद्धों और पर्यावरण की तबाही को जन्म देते हैं. पनचक्की, करघा, रहट आदि भी मशीनें ही हैं, फर्क बस यह है कि वे पुराने ज़माने की मशीनें हैं.
गांधी पूंजीवाद की आन्तरिक गतिकी को नहीं समझ पाने के कारण, तमाम पूंजीवादी विभीषिकाओं का कारण मशीनों और स्वचालन को मान बैठते थे और इतिहास के चक्के को ठेलकर पीछे ले जाने की वकालत करते थे. यह एक प्रतिक्रियावादी यूटोपिया था. गांधी से काफी पहले, ऐसा ही यूटोपियाई नज़रिया उन्नीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में स्विस अर्थशास्त्री सिसमोंदी ने और फिर फ्रांसीसी अर्थशास्त्री जोसेफ प्रूधों ने (गांधी से अधिक परिष्कृत तर्कों के साथ) प्रस्तुत किया था और फिर इन्हीं विचारों का नया संस्करण उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में रूस में नरोदवादियों ने प्रस्तुत किया था.
निम्नपूंजीवादी दृष्टिकोण से पूंजीवाद की समालोचना प्रस्तुत करने वाला सिसमोंदी आर्थिक विज्ञान के क्षेत्र में स्वच्छंदतावाद (रोमैण्टिसिज़्म) का एक ‘टिपिकल’ प्रतिनिधि था जो मानता था कि पूंजीवाद के अन्तर्गत मेहनतकश जनता की तबाही और आर्थिक संकट अपरिहार्य हैं, लेकिन पूंजीवाद के बुनियादी अन्तरविरोधों और आन्तरिक गतिकी को नहीं समझ पाने के कारण, समाधान के तौर पर वह छोटे पैमाने के उत्पादन की ओर लौटने की बात करता था और इस तरह इतिहास-चक्र को पीछे की ओर लौटाने का नुस्खा सुझाने लगता था. सिसमोंदी, प्रूधों और नरोदवादियों के विचारों की विस्तृत आलोचना मार्क्स-एंगेल्स, प्लेखानोव और लेनिन ने प्रस्तुत की थी.
निम्न-पूंजीवादी राजनीतिक अर्थशास्त्र के इन प्रतिनिधियों का पद्धतिशास्त्र द्वैतवादी और सारसंग्रहवादी तथा दृष्टिकोण प्रत्ययवादी था. सामाजिक उत्पादन-प्रणाली के विकास की ऐतिहासिक प्रक्रिया को नहीं समझ पाने के कारण ये अर्थशास्त्री उसकी बुनियाद ‘अच्छा’ और ‘न्याय’ जैसे नैतिक आदर्शों में ढूंढ़ने की कोशिश करते थे. उनके इस प्रतिक्रियावादी यूटोपिया के बरक्स यूटोपियाई समाजवादियों का यूटोपिया प्रगतिशील था जो मानता था कि मेहनतकश जनता का उसके श्रम के सम्पूर्ण उत्पाद पर अधिकार है और इसी लक्ष्य-प्राप्ति के लिए सामाजिक ढांचे का पुनर्गठन अनिवार्य है.
गांधी का यूटोपिया सिसमोंदी और प्रूधों के प्रतिक्रियावादी यूटोपिया का एक भोंड़ा भारतीय संस्करण था. आगे चलकर चरणसिंह ने अपनी पुस्तकों ‘गांधियन पाथ’ और ‘इकोनॉमिक नाइटमेयर ऑफ इण्डिया’ में इसी गांधीवादी यूटोपिया को अधिक परिष्कृत ढंग से प्रस्तुत किया लेकिन वे भी सिसमोंदी और नरोदवादियों के तर्कों से रंचमात्र भी आगे नहीं बढ़ पाये.
गांधी के अहिंसा के सिद्धान्त
अब हम गांधी के अहिंसा के सिद्धान्त पर आते हैं. इतिहास के तथ्य इस सत्य की गवाही देते हैं कि नयी सामाजिक व्यवस्था के जन्म में बल की भूमिका हमेशा से धाय की होती रही है. हेराल्ड लास्की के शब्दों का इस्तेमाल करते हुए कहा जा सकता है कि हर राजनीतिक-सामाजिक ढांचागत बदलाव में हिंसा या ‘हिंसा का तथ्य’ (फैक्ट ऑफ वॉयलेंस) अन्तर्निहित होता है. हर सामाजिक-आर्थिक ढांचे को शासक वर्ग के हितों की दृष्टि से राज्यसत्ता ही संचालित और नियंत्रित करती है. सामाजिक-आर्थिक ढांचों को बदलने का काम शासित वर्ग पुरानी राज्यसत्ता का बलात् ध्वंस करके और नयी राज्यसत्ता का निर्माण करके ही कर सकते हैं.
गांधी के चिन्तन में सामाजिक संरचना और राज्यसत्ता के वर्ग चरित्र की ऐतिहासिक समझ नहीं थी. उनकी यह समझ थी कि कुछ सुनिश्चित आदर्शों को शासन करने वाले लोग यदि निजी जीवन की तरह सार्वजनिक जीवन में भी लागू करें तो आदर्श समाज का निर्माण किया जा सकता है. उनका प्रत्ययवादी चिन्तन समाज विकास के सुनिश्चित वस्तुगत नियमों की अनदेखी करके उसके अमूर्त नैतिक आदर्शों और उनका अनुपालन करने वाले व्यक्तियों के आचरण द्वारा संचालित और नियंत्रित होने में विश्वास रखता था और निजी जीवन के स्पेस और राजनीतिक जीवन के सार्वजनिक स्पेस के अन्तर को पूरी तरह मिटा देता था.
गांधी का इतिहास-बोध मूलत: धार्मिक विश्व-दृष्टिकोण पर आधारित था जो अमूर्त-निरपेक्ष नैतिक आदर्शों और उनका पालन करने वाले नायकों को इतिहास की चालक शक्ति के रूप में देखता था. यही कारण है कि अपने आन्तरिक तर्क और व्यवहार में उनका अहिंसा का सिद्धान्त तमाम अन्तरविरोधों के मकड़जाल में उलझ जाता था. स्वयं गांधी ही इस बात को मानते थे कि हिंसा का मतलब केवल रक्तपात ही नहीं होता, किसी भी रूप में यदि दबाव और बलप्रयोग किया जाता है तो वह हिंसा है. अहिंसा का सिद्धान्त केवल नैतिक दृष्टि से क़ायल कर देने या हृदय-परिवर्तन को ही सही ठहराता है. सत्याग्रह और उपवास को गांधी इसी का साधन मानते थे. लेकिन व्यवहारत: गांधी की राजनीति आद्यंत ‘समझौता-दबाव-समझौता’ की राजनीति ही बनी रही.
गांधी के ही नेतृत्व में किसी आन्दोलन ने अंग्रेजों को यदि रियायतें देने के लिए बाध्य किया तो इसका कारण अंग्रेजों का हृदय-परिवर्तन या नैतिक पराजय का अहसास नहीं था, बल्कि किसी संभावित देशव्यापी जनउभार और परिणतियों का भय था. अंग्रेज इस देश को हृदय-परिवर्तन या नैतिक पराजय के कारण छोड़कर नहीं गये, बल्कि उसके पीछे तत्कालीन विश्व-परिस्थितियों का और देशव्यापी उग्र जनसंघर्षों का बाध्यताकारी दबाव था. उपनिवेशवादी इस बात को समझ चुके थे कि यदि अब भी वे भारतीय बुर्जुआ वर्ग की प्रतिनिधि पार्टी कांग्रेस को सत्ता हस्तांतरित करके भारत को राजनीतिक आजा़दी नहीं देंगे तो उन्हें किसी उग्र जनक्रान्ति का सामना करना पड़ेगा.
अतीत में भी गांधी का व्यवहार हमेशा उनके अहिंसा सिद्धान्त के अनुरूप नहीं दीखता. दक्षिण अफ्रीका प्रवास के समय गांधी ने बोअर युद्ध में जब ब्रिटिश उपनिवेशवादियों का सक्रिय समर्थन किया था, उस समय रस्किन और तोल्स्तोय के प्रभाव में वे अहिंसा के सिद्धान्त को अपना चुके थे. 1906 में जुलू विद्रोह को बर्बरतापूर्वक कुचल रहे उपनिवेशवादियों का साथ देने और ‘उपनिवेश की रक्षा में अपनी भूमिका निभाने के लिए’ उन्होंने सभी भारतीयों का आह्वान किया था और उनकी इस सक्रिय भूमिका के लिए औपनिवेशिक शासकों ने उन्हें ‘सार्जेण्ट मेजर’ भी नियुक्त किया था.
इन दोनों प्रसंगों में तब गांधी का तर्क यह था कि ऐसा करना शासन के प्रति प्रजा के कर्तव्य का नैतिक तकाजा था. बाद में 1920 में अपनी आत्मकथा में जुलू विद्रोह के दमन में अपनी भूमिका पर लीपापोती करते हुए गांधी ने लिखा था : ‘जुलू लोगों से मुझे कोई शिकायत नहीं थी. उन्होंने किसी भारतीय को नुकसान नहीं पहुंचाया था. स्वयं ‘विद्रोह’ के बारे में भी मेरे सन्देह थे.’ उन्होंने यह दावा भी किया कि, ‘मेरा हृदय जुलू लोगों के साथ था.’ सत्ता के प्रति निष्ठा को जनता का कर्तव्य मानने वाला गांधी का सिद्धान्त उस स्थिति में भी इस कर्तव्यपालन पर बल देता था, जबकि सरकार जनता द्वारा चुनी गयी न हो.
इस मायने में जनवाद की गांधी की समझ नितान्त बोदी थी और वॉल्तेयर, दिदेरो, रूसो, टॉमस पेन, बेंजामिन फ्रेंकलिन, वाशिंगटन, जैफर्सन आदि के राजनीतिक दर्शन से उनका कोई लेना-देना नहीं था।. यही नहीं, बाद की कई घटनाएं भी बताती हैं कि राज्यसत्ता के प्रति नागरिेक की निष्ठा के अपने इस सिद्धान्त को गांधी अपने अहिंसा सिद्धान्त के ऊपर रखते थे. पहले विश्वयुद्ध के दौरान उन्होंने अंग्रेज सरकार के सभी युद्धकालीन प्रयासों का एक वफादार प्रजा के रूप में पूरा समर्थन दिया, यहां तक कि 1918 में अंग्रेजों की सहायता के लिए धन तथा सेना भरती हेतु आदमी जुटाने के लिए गांव-गांव का दौरा भी किया.
फिर द्वितीय विश्वयुद्ध शुरू होने के बाद, जुलाई, 1940 में अपने पूना अधिवेशन में कांग्रेस ने इस शर्त पर ब्रिटिश युद्ध प्रयास का समर्थन करते हुए प्रस्ताव पारित किया कि युद्ध के बाद भारत को स्वतंत्रता प्रदान कर दी जायेगी. यानी स्वतंत्रता की शर्त पर गांधी साम्राज्यवादी युद्ध की भीषण हिंसा में एक साम्राज्यवादी शक्ति के पक्ष से भागीदारी के लिए तैयार थे. फिर सोवियत संघ पर जर्मनी के हमले के बाद युद्ध का चरित्र बदल गया और विश्व स्तर के अन्तरविरोधों से गलत ढंग से अपने कार्यभार निगमित करते हुए कम्युनिस्ट पार्टी ने राष्ट्रीय मुक्ति संघर्ष को युद्धकाल के दौरान स्थगित करने का निर्णय लिया.
भारतीय बुर्जुआ वर्ग को सत्ता-प्राप्ति के लिए उपनिवेशवादियों पर निर्णायक दबाव बनाने का यह उचित अवसर लगा और जुलाई, 1942 की वर्धा बैठक में कांग्रेस कार्यसमिति ने ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ का प्रस्ताव पारित किया. तब गांधी ने यह घोषणा की थी कि यह आन्दोलन, जो व्यापक नागरिक अवज्ञा आन्दोलन का रूप लेगा, अहिंसा की सीमाओं के बाहर भी जा सकता है. 1942 के ‘भारत छोड़ो’ आन्दोलन के दौरान छिटपुट हिंसा की बहुतेरी घटनाएं घटी, लेकिन चौरीचौरा काण्ड के बाद सत्याग्रह वापस लेने वाले गांधी ने इस बार आन्दोलन वापस नहीं लिया. इससे स्पष्ट हो जाता है कि अहिंसा गांधी के लिए सिद्धान्त से अधिक रणनीति का प्रश्न था. जनान्दोलनों के दौरान यदि हिंसा नियंत्रित हो और राष्ट्रीय आन्दोलन के नेतृत्व पर कांग्रेसी वर्चस्व को कोई खतरा न हो (कम्युनिस्टों की चुनौती उस समय सामने नहीं थी), तो गांधी को हिंसा से विशेष परहेज नहीं था.
एक बात और गौरतलब है. गांधी प्रजानिष्ठा के सिद्धान्त के तहत शासक वर्ग की हिंसा के पक्ष में तो कई बार खड़े हुए, लेकिन क्रान्तिकारी हिंसा उन्हें किसी भी रूप में स्वीकार्य नहीं थी. गांधी-इरविन समझौते के दौरान भगतसिंह और उनके साथियों की फांसी रुकवाने के लिए अनुकूल स्थिति होने पर भी दबाव न बनाना एक ऐसा ऐतिहासिक तथ्य है, जो गांधी के राजनीतिक व्यवहार पर गम्भीर प्रश्न खड़े करता है. जो गांधी क्रान्तिकारियों की हिंसात्मक कार्रवाइयों के कटु आलोचक थे, उन्होंने क्रान्तिकारियों को फांसी देने वाली शासक वर्ग की हिंसा के विरुद्ध आन्दोलन करना तो दूर, कोई आलोचनात्मक वक्तव्य तक नहीं दिया.
चन्द्र सिंह गढ़वाली के नेतृत्व में गढ़वाल रेजिमेण्ट के विद्रोह की और 1946 के नौसेना विद्रोह की भी उन्होंने कड़े शब्दों में भर्त्सना की थी. मज़दूर हड़तालों को वह हिंसात्मक कार्रवाई मानते थे और शुरू से ही उनका विरोध करते आये थे. फिर भी हम यह नहीं मानते कि गांधी एक पाखण्डी व्यक्ति थे. अहिंसा-सिद्धान्त में उनकी गहरी आस्था थी, लेकिन राजनीतिक व्यवहार के दौरान इसी को लेकर वह सर्वाधिक अन्तरविरोधों के शिकार होते थे और जब चुनने का सवाल आता था तो एक कुशल व्यवहारवादी (प्रैग्मेटिस्ट) बुर्जुआ राजनीतिज्ञ की तरह वह सिद्धान्त की जगह उस व्यावहारिकता को प्राथमिकता देते थे जो बुर्जुआ वर्गहित की दृष्टि से हालात का तका़जा़ होता था.
राजनीति की दुनिया ठोस व्यवहार की दुनिया होती है. सिद्धान्तों के अमूर्त अन्तरविरोध वहाँ दिन के उजाले की तरह साफ हो जाते हैं और विशेष वर्गहित का दबाव किसी इतिहास-पुरुष को भी अमूर्त आदर्शों को तिलांजलि देकर ठोस व्यवहार की ज़मीन पर उतरने के लिए बाध्य कर देता है. गांधी यदि साहित्यकार होते तो शायद भारत के तोल्स्तोय होते. तोल्स्तोय यदि भारत में पैदा होकर (और हिन्दू के रूप में पैदा होकर) राजनीति की दुनिया में होते, तो शायद, काफी हद तक, गांधी सरीखे ही होते. बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध के भारत में, क्लासिकी बुर्जुआ मानवतावाद राजनीति और समाज-नीति में गांधी के मानवतावाद के रूप में ही मूर्त हो सकता था.
गांधी और स्त्री
स्त्री के बारे में भी गांधी की जो सोच थी, वह हिन्दू धर्म की रूढ़ियों और पूर्वाग्रहों में लिथड़ी हुई एक ऐसी मानवतावादी सोच थी, जो शरीरविज्ञान, मनोविज्ञान, नृतत्वशास्त्र और इतिहास की तमाम आधुनिक वैज्ञानिक स्थापनाओं से एकदम अपरिचित थी. घरेलू कामों और पति की सेवा को गांधी स्त्रियों की विशिष्ट जिम्मेदारी मानते थे और निजी जीवन में भी उनका आचरण ऐसा ही था. वह प्रकृति से ही स्त्रियों को पुरुषों से सर्वथा भिन्न मानते थे. सामाजिक-राजनीतिक कार्यों में स्त्रियों की भागीदारी और स्त्री-शिक्षा का पक्षधर होते हुए भी वह स्त्रियों को प्राकृतिक रूप से पुरुषों की बराबरी के काबिल नहीं मानते थे और उन्हें संरक्षण देना पुरुषों का कर्तव्य मानते थे.
स्त्री उनके लिए एक ऐसा जीव थी जो स्वाभाविक तौर पर पुरुषों की दया, करुणा और संरक्षण की हक़दार थी. नैतिकता और यौन-सम्बन्धों के बारे में गांधी की सोच हिन्दू धर्म की रूढि़यों के साथ ही विक्टोरियन मूल्य-व्यवस्था से भी प्रभावित थी. वह यह मानते ही नहीं थे कि स्त्री के भीतर भी यौनिक कामना या काम भावना होती है. स्त्री का सारा सुख पुरुष को सुख या आनन्द देने में ही निहित होता है, वह मात्र संतानोत्पत्ति और पुरुष की कामक्षुधापूर्ति का साधन होती है. इसलिए ज्यादा से ज्यादा छूट देकर भी यह तो कहा ही जा सकता है कि वह स्त्री को ब्रह्मचर्य-प्रयोग का मात्र एक ‘पैस्सिव’ उपादान समझते थे और यह अहसास ही नहीं कर पाते थे कि यह उसका इस हद तक मानसिक उत्पीड़न कर सकता है कि उसके पूरे जीवन और मनोजगत को ही अस्तव्यस्त और विश्रृंखलित कर सकता है.
निस्संदेह, गांधी की इस सोच और आचरण के पीछे उनके अवचेतन में मौजूद कुछ जटिल यौन-ग्रंथियों की भी शिनाख्त की जा सकती है और उसकी जड़ें उनके व्यक्तिगत जीवन में ढूंढ़ी जा सकती है, लेकिन यह मनोविज्ञान का विषय है और किन्हीं स्थितियों में यह अटकलबाजी भी हो सकती है जो गांधी के दार्शनिक-राजनीतिक-सामाजिक-नैतिक विचारों और व्यवहार के ऐतिहासिक मूल्यांकन में असंतुलन या मनोगतता ला सकता है, इसलिए इसकी चर्चा यहां करना हम उचित नहीं समझते.
‘भारतीय’ बुर्जुआ मानवतावाद के मूर्त रूप थे गांधी
जिस देशकाल में किसी वर्ग की जैसी बनावट-बुनावट तथा ताकत और कमजोरी होती है, इतिहास उसे वैसा ही वैचारिक-राजनीतिक प्रतिनिधि देता है. भारतीय बुर्जुआ वर्ग के जन्म और विकास की प्रक्रिया कृषि से दस्तकारी में मैन्यूफैक्चरिंग वाली यात्रा नहीं थी, ‘पुनर्जागरण-प्रबोधन-क्रान्ति’ वाली यात्रा नहीं थी. भारत में पूंजीवाद के नैसर्गिक विकास के भ्रूणों को तो उपनिवेशीकरण की प्रक्रिया 1740 से 1857 के दौरान ही नष्ट कर चुकी थी.
वर्तमान भारतीय पूंजीवाद औपनिवेशिक सामाजिक-आर्थिक संरचना की कोख से जन्मा और साम्राज्यवादी विश्व-परिवेश में पल-बढ़कर वयस्क हुआ. इस रुग्ण, जन्मना विकलांग पूंजीवाद ने एक चतुर बौने जैसा आचरण करते हुए पुराने मूल्यों से समझौता किया तथा जनसंघर्षों के दबाव और साम्राज्यवाद के संकट एवं अन्तरविरोधों का इस्तेमाल करते हुए, ‘समझौता-दबाव-समझौता’ की रणनीति का इस्तेमाल करते हुए राजनीतिक सत्ता-प्राप्ति तक की यात्रा तय की.
ऐसे वर्ग के सिद्धान्तकार दिदेरो, रूसो, वाल्तेयर, टॉमस पेन आदि जैसे लोग और राजनीतिक प्रतिनिधि वांशिगटन, जैफर्सन, लिंकन आदि जैसे लोग हो ही नहीं सकते थे. गांधी जैसा व्यक्तित्व ही इसका सिद्धान्तकार और राजनीतिक प्रतिनिधि हो सकता था. गांधी के धार्मिक यूटोपियाई आदर्श भारतीय जनमानस को सहज स्वीकार्य हो सकते थे. व्यापक जन समुदाय को विदेशी सत्ता के विरुद्ध जागृत और संगठित करने की अपील, नारे और नीतियां गांधी के पास थीं और उनके पास वह व्यावहारिक कौशल और ‘अथॉरिटी’ भी थी कि जनसंघर्षों की ऊर्जा को वे बुर्जुआ वर्गहितों की चौहद्दी में बांधे रह सके.
गांधी एक विचारक के रूप में पंगु ‘भारतीय’ बुर्जुआ मानवतावाद के मूर्त रूप थे. वे बुर्जुआ वर्ग के सिद्धान्तकार और नीति-निर्माता थे. और इससे भी आगे, बुर्जुआ वर्ग के ‘मास्टर स्ट्रैटेजिस्ट’ और ‘मास्टर टैक्टीशियन’ के रूप में वह एक निहायत बेरहम व्यवहारवादी (प्रैग्मेटिस्ट) व्यक्ति थे, जो समय-समय पर अपनी उद्देश्य-पूर्ति के लिए अपनी सैद्धान्तिक निष्ठाओं-प्रतिबद्धताओं के विपरीत भी जा खड़े होते थे.
- ‘मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान’, जनवरी-अप्रैल 2015 अंक से साभार