(डॉ. मानवश्री के प्रयोगिक अनुभव पर आधारित प्रतिसंवेदन)
अनामिका, प्रयागराज
यदि विचारपूर्वक देखा जाय तो हमारा मूल स्रोत हमारी माँ का गर्भ है। लोगों की धारणा है–जैसे-जैसे हम पीछे जाते हैं, वैसे- ही-वैसे विकास कम और जैसे जैसे हम आगे जाते है, वैसे ही वैसे विकास अधिक होता है। अतीत पिछड़ा हुआ है, वर्तमान विकासोन्मुख है और भविष्य आगे आएगा। इससे स्पष्ट है कि मूल स्रोत अथवा उदगम छोटा है और विकास का अन्तिम शिखर है श्रेष्ठ, लेकिन योगविज्ञान इसके विपरीत है।
मूल श्रेष्ठ है, जो मूल स्रोत है, वह श्रेष्ठ है। वृद्ध व्यक्ति श्रेष्ठ नहीं है, गर्भ के भीतर छिपा हुआ मानव-बीज श्रेष्ठ है। योग का कहना है कि जिसे भौतिकवादी ‘विकास’ कहते हैं, वह वास्तव में ‘पतन’ है। यदि हम ‘विकास’ को सत्य मान लें तो परमात्मा अन्त होगा, प्रथम नहीं होगा। तब तो सारा जगत विकसित होकर श्रेष्ठता के उस श्रेष्ठतम शिखर पर पहुँच जायेगा जहाँ परमात्मा प्रकट होगा, जहाँ परमात्मा का निवास होगा।
यह बात कितनी विचित्र है और कितनी भ्रांतिपूर्ण भी। योगविज्ञान की एक दृष्टि है कि परमात्मा प्रथम है और जिसे हम संसार कहते हैं, वह विकास नहीं, पतन है। यदि हम ‘अन्तिम’ को उपलब्ध होना चाहते हैं तो प्रथम को पाना होगा और हम कभी भी ऊँचे उठ नहीं सकते, जहाँ से हम आये हैं और जो हमारा ‘मूल’ है।
मूल स्रोत है आगे। उससे ऊपर जाने का कोई भी मार्ग, साधन अथवा उपाय नहीं है।
मानव की सर्वोच्च और श्रेष्ठतम अवस्था समाधि है और जब वह उस परम अवस्था को प्राप्त होता है तो वह एक छोटे बच्चे की भांति हो जाता है जो परम उपलब्द्धि है शान्ति की, निर्वाण की, मोक्ष की–वह वही है–जैसा माँ के गर्भ में बच्चा शान्त, मौन और निर्विकार होता है–मुक्त और निर्वाण को उपलब्ध।
जगतलीनता हमारे परमात्मतत्व का पतन है और जगत में विकास का एक ही उपाय है कि यह पतन खो जाय और हम वापस मूल स्रोत को हो जाँय उपलब्ध। जैसे वृक्ष ऊपर की ओर बढ़ता है, वैसे हम संसार में ऊपर की ओर नहीं बढ़ रहे है। हम संसार में जितने ऊपर की ओर बढ़ते हैं, उतने ही हम नीचे की ओर भी बढ़ते हैं। सारी व्यवस्था उलटी है।
इसी कारण भारत का समग्र चिन्तन त्यागवादी हो गया। इसके पीछे यही एकमात्र था। ‘त्याग’ का अर्थ है–संसार जिसे विकास कहता है, उसे हम छोड़ दें। संसार जिसे उपलब्धि कहता है, उसे हम तुच्छ समझ लें। संसार जिसे भोग कहता है, उसे हम त्याग समझें।
एक व्यक्ति धन एकत्र करता चला जा जाता है, भौतिकवादी उसे विकासमान कहेंगे।
अभौतिकवादी लोगों ने उसे विकासमान कहा जिसने बुद्ध की तरह धन का, वैभव का, ऐश्वर्य का, सुख-सुविधा का त्याग कर दिया, महावीर की तरह साम्राज्य छोड़ दिया। जो अभावग्रस्त रहा जीवन में, जिसे जीवन में सुख-सुविधा उपलब्ध नहीं हुई, वह यदि त्यागी हो गया तो इसमें कोई बड़ी बात नहीं, महान् उपलब्धि नहीं। अवसर हाथ लगते ही वह धन-दौलत एकत्र करना फिर शुरू कर देगा। वास्तविक त्यागी तो बुद्ध और महावीर हैं जिनको सब कुछ उपलब्ध था, फिरभी उसे त्यागकर वह मार्ग चुना जो दूसरों के लिए अभाव का, दुःख का, दरिद्रता का मार्ग था।
भौतिकवादी के लिए एकत्र करना विकास है। अभौतिकवादी के लिए छोड़ना विकास है। आध्यात्मिक व्यक्ति है वह। वह देखेगा–कितना आपके पास बचा ? कितना आपने खोया ?–उससे आपकी ऊंचाई को समझेगा। जिस दिन आप अकेले बच जाते हैं और आपके पास अपना कुछ नहीं होता तो समझ लीजिये आप पूर्ण विकसित हैं।
आपकी आत्मा पूर्ण विकास को हो गयी है उपलव्ध। चित्त की एकाग्रता और ध्यान प्रायः संसार में देखने को मिलता है कि व्यक्ति ने सन्यास लेकर घर त्याग दिया, चला गया जंगलों में, पहाड़ों पर, मठों में, मंदिरों में रहने के लिए। लेकिन यह ज़रूरी नहीं है। सन्यास लेकर मठ में, पहाड़ों या जंगलों में जाने की आवश्यकता नहीं। आप सन्यास लेकर गृहस्थ बने रह सकते हैं। लेकिन गृहस्थ बने रहकर सन्यासी का जीवन व्यतीत करना सबके वश की बात नहीं।
सन्यासियों को आप ध्यान से देखें तो वे आपको नए ढंग के गृहस्थ लगेंगे लेकिन उस गृहस्थ को खोजना मुश्किल है जो सन्यास धारण किये है। गृहस्थ सन्यासी लाखों-करोड़ों में कोई एक होता है। सब चेतना के प्रवाह की बात है। जिस व्यक्ति की चेतना गृहस्थ होते हुए भी सन्यास की ओर प्रवाहित है, वही गृहस्थ सन्यासी है। भीतर और बाहर से उसका सारा व्यवहार सन्यासी का व्यवहार होगा–सच्चे सन्यासियों जैसा।
वासना का प्रवाह सर्वत्र है। इस पर आपको विचार नहीं करना चाहिए। आपको यदि विचार करना ही है तो वासना के उदगम पर कीजिये। आप अपने सम्बन्ध में सोचें। शायद कभी विचार आता होगा आपको अपने उदगम का। कभी आप सोचते हों–गर्भ की अवस्था में कैसा था, क्या अनुभव करता था ? कभी-कभी अपनी मृत्यु के सम्बन्ध में भी सोचते होंगे आप। कैसी होगी मृत्यु, कैसे होगी, कैसा अनुभव होगा उस समय ? लेकिन आप अपने जन्म के बारे में कभी नहीं सोचते।
मृत्यु आगे है और जन्म पीछे छूट गया। वह आपके गहनतम में छिपा हुआ है, लेकिन मृत्यु नहीं। मृत्यु तो सामने हर समय खड़ी है। कभी भी किसी समय घट सकती है वह।
मूल में प्रवेश करने की पद्धति कौन-सी है ?चित्त चंचल है। उसका गहरा सम्बन्ध मन से है। इसी सम्बन्ध के कारण मन भी चंचल अथवा अस्थिर रहता है। मन का स्वाभाविक गुण है–‘मनन’।
मन तभी मनन-चिन्तन करता है जब चित्त स्थिर होता है। इसे दूसरे ढंग से भी कहा जा सकता है। जब मन चिन्तन-मनन की ओर अग्रसर होता है तो चित्त स्वयं ही स्थिर हो जाता है। उस स्थिरता को चित्त की एकाग्रता समझने की भूल नहीं करना चाहिए। एकाग्रता कुछ और ही है। पहले मन को स्थिर होना चाहिए और उसी के साथ चित्त को भी होना चाहिए स्थिर। दोनों की स्थिरता एक दूसरे पर निर्भर है।
चित्त और मन जब दोनों एक ही अवस्था को उपलब्ध हो जाते हैं तब प्राण की गति धीरे-धीरे धीमी होने लग जाती है और मन भी स्वयं अपने आप उसी के साथ ही साथ लीन होने लग जाता है। तब हम अपने उदगम या मूल की ओर होने लगते हैं अग्रसर और इसके लिए एक सर्वोत्तम पद्धति है जिसे कहते हैं–‘गर्भासन ध्यान’।
अपने मूल को उपलब्ध होने के लिए एकमात्र साधना है–‘गर्भासन ध्यान’।
*गर्भासन ध्यान प्रक्रिया :*
गर्भासन ध्यान के लिए शान्त, एकान्त स्थान चाहिए क्योंकि गर्भ ही एक मात्र ऐसा स्थान है जहाँ आत्मा को पूर्ण शान्ति और एकान्त उपलव्ध होता है।
हल्का अँधेरा हो, ज़मीन पर कम्बल बिछा लें और उसपर दोनों पैर मोड़कर बैठ जाँय। पीठ तनी रहे, चेहरा सामने की ओर रहे, नेत्र हल्के-से बन्द रहें, दोनों हाथ पीछे की ओर हल्के से बँधे रहें। हाथों की उंगलियां आपस में फंसी रहें। फिर अपने सिर को धीरे-धीरे झुकाते जाँय–इतने धीमे-धीमेे झुकाएं कि उसका अनुभव हो सके क्योंकि झुकना मूल्यवान है। झुकते हुए उस स्थान पर पहुँच जाँय जहाँ सिर को ज़मीन का स्पर्श हो जाय।
दोनों घुटने छाती से लग जाँय। आप ठीक उस अवस्था में प्रवेश कर जायेंगे जिस स्थिति में शिशु रहता है गर्भ में–बिलकुल सिकुड़ा-सा, सिमटा-सा। घुटने छाती से लगे रहते हैं और सिर नीचे झुका रहता है। पैर पीछे की ओर मुड़े हुए होते हैं। गर्भासन– पद्मासन आदि आसनों से ज्यादा मूल्यवान है क्योंकि कोई भी शिशु गर्भ में पद्मासन आदि आसन लगाकर नहीं रहता। इसलिए पद्मासन आदि आसनों में वह सहजता और सरलता नहीं है जो गर्भासन में है।
प्रयोगकाल में आप ठीक उसी प्रकार हो जाँय जैसे फिर से आप छोटे बच्चे हो गए हैं और गर्भ में प्रवेश कर गए हैं, ऐसी कल्पना भी करनी है क्योंकि किसी वस्तु के साकार होने के पीछे कल्पना ही तो है। आप कल्पना कीजिये और अनुभव कीजिये कि आपका श्वास धीरे-धीरे कम होता जा रहा है।
यह आसन ही ऐसा है कि आपका श्वास तेज हो ही नहीं सकता। पेट दबा होगा, छाती दबी होगी, पैर मुड़े हुए होंगे, श्वास अपने आप धीमा होता जायेगा। अन्त में एक क्षण ऐसा आएगा कि आपको लगेगा ही नहीं कि आपका श्वास चल भी रहा है या नहीं। क्योंकि शिशु गर्भ में श्वास नहीं लेता है। जब ऐसा क्षण आ जायेगा तो समझिये कि गर्भासन की अवस्था उपलब्ध हो गयी है और उसी क्षण आपको हल्की-सी झलक मिलने लगेगी अपने मूल की।
उस क्षणिक स्थिति में आप यह जानने लग जायेंगे कि आप गर्भ के बाहर निकलते समय कैसे थे। आप अपने जन्म के समय बेहोश थे। ज्ञान नहीं था अपने जन्म का लेकिन उस समय आप अज्ञानी नहीं, ज्ञानी होंगे, बेहोश नहीं होंगे, पूर्णतया होश में रहेंगे। झलक जब लगातार मिलनी शुरू हो जायेगी तो आप आप नहीं रह जायेंगे। आप दूसरे ही व्यक्ति होने लगेंगे।
आपका शरीर, आपका प्राण, आपका मन यहाँ तक कि आपकी आत्मा में भी परिवर्तन होने लग जायेगा, इसलिए कि आपने अपने मूल का अनुभव कर लिया होता है।
योग की प्रथम खोज मूल की खोज है–उस बिन्दु की खोज जहां से हम और आप आते हैं। वास्तव में वह मूल हम में और आप में छिपा हुआ है। आपने जो कुछ गर्भ की स्थूति में अनुभव किया है, जो कुछ उपलब्ध किया है और जो कुछ जाना-समझा है–वह सब ज्यों-का-त्यों आपके भीतर बहुत गहराई में विद्यमान है।
न कोई जन्म है और न है कोई मृत्यु, जन्म और मृत्यु तो जीवन यात्रा के मध्य आने वाले मात्र पड़ाव हैं, विश्राम स्थल हैं.
मूल या उदगम की उपलब्धि के दो साधन हैं। पहला है–गर्भासन ध्यान और दूसरा है–सम्मोहन। सम्मोहन की अवस्था एक प्रकार से अवचेतन की अवस्था है, एक प्रकार की बेहोशी की अवस्था है लेकिन गर्भासन ध्यान की अवस्था पूर्ण चैतन्य की अवस्था है और है पूर्ण होश की अवस्था। दोनों अवस्थाओं में वही ज्ञान प्राप्त होता है, वही अनुभव प्राप्त होता है लेकिन एक विशेष बिन्दु पर दोनों में गहरा अन्तर है। उस अन्तर को जान-समझ लेना ज़रूरी है।.
सम्मोहन अचेतन की अवस्था है। उस अवस्था में जो कुछ उपलब्ध होता है, वह सब चेतन की स्थिति होने पर लुप्त हो जाता है। केवल साक्षी होता है और वह भी दूसरा कोई व्यक्ति अर्थात् –सम्मोहनकर्ता। बेहोशी की स्थिति में जो कुछ उपलब्ध होता है, वह सब बेहोशी के समाप्त होते ही समाप्त हो जाता है।
गर्भासन ध्यान में यह बात नहीं है। यद्यपि वह भी व्यक्ति को अचेतन की गहराई में ले जाता है लेकिन जब वह वापस लौटता है तो उस अवस्था में भी वे सारे ज्ञान, वे सारे अनुभव बने रहते हैं व्यक्ति के साथ क्योंकि गर्भासन ध्यान की स्थिति में व्यक्ति के अचेतन में प्रवेश के समय भी चैतन्यता बनी रहती है, सारा होश रहता है। बस, यही अन्तर है दोनों में।
पिछले जीवन की मृत्यु के बाद और नए गर्भ में प्रवेश के पहले कोई-कोई व्यक्ति आत्मस्वरूप होता है। पिछले शरीर के छूटने और नए शरीर की प्राप्ति के बीच देर हो तो ऐसी स्थिति में जो आत्मस्वरूप की स्थिति होती है, उसकी भी स्मृति जागृत रहती है व्यक्ति में। इतना ही नहीं, पिछले कई जन्मों की स्मृतियाँ भी साकार हो उठती हैं व्यक्ति के आत्मस्वरूप की स्थिति में। गर्भ का अतिक्रमण करने पर उसे यह भी ज्ञात होता है कि मेरा न तो कोई जन्म है और न तो है मेरी कोई मृत्यु।
जन्म और मृत्यु तो व्यक्ति के जीवन मार्ग की यात्रा में आने वाले मात्र पड़ाव हैं–यात्रा के पड़ाव के अतिरिक्त और कुछ नहीं। जीवन और मृत्यु यात्रा के मध्य विश्राम स्थल हैं। जैसे ही व्यक्ति को यह स्मरण आता है, वैसे ही वह अपने मूल को, अपने उदगम उपलब्ध हो जाता है। योग का यह अन्तिम लक्ष्य है जिसका परिणाम होता है–जीवन से, जन्म से, मरण से सदैव-सदैव के लिए आत्मा की मुक्ति। इसी अवस्था को कहते हैं–निर्वाण और कहते हैं–परम समाधि.
प्रभावी और सुनिश्चित सफलता के लिए एक बार मानवश्री की ऊर्जा से स्पन्दित होना अच्छा रहेगा. उनकी ऊर्जा आपमें ट्रांसफर हो, इसके लिए उनका टचनेश स्वीकार करें, नितांत एकांत में पूरी लीनता के साथ.
यह प्रक्रिया वे आपके पैरों के तलवों को आपने हाथ में लेकर और फिर आपके सिर को अपनी गोद में लेकर संपंन करते हैं.