(जैसा रवीश कुमार ने कहा)
पुष्पा गुप्ता
मैं जिस दिल्ली में आया तो वह दिल्ली ग़ालिब की दिल्ली नहीं थी। मकान मालिक की दिल्ली थी। मकान मालिकों के रौब और उनकी ठाठ देख ने मेरे मन पर अदबी असर डाला। मैंने उर्दू नहीं सीखी। सीखा तो ओए-तोय, लियो-जियो, कियो-दियो। यह वो भाषा थी जो मकान मालिक बोलते थे, जिसके निशान न तो हिन्दी में मिलते थे और न उर्दू में। दिल्ली का अगर अपना मौलिक कोई प्रोडक्ट है और जिसकी ब्रांडिंग की जा सकती है तो वह मकान और मकान में रहने वाला किरायेदार। दिल्ली आने वाले असंख्य किरायेदारों ने उनके ख़ाली मकानों को भरना शुरू किया और मकान मालिकों ने दिल्ली की ख़ाली जगहों पर मकान बनाने शुरू कर दिया बल्कि अपने मकान के भीतर ख़ाली बची जगहों पर मकान बनाने लगे। मैं हमेशा मानता रहा हूँ कि दिल्ली की अदब मकान मालिक की अदब है। ग़ालिब की नहीं।
दिल्ली को मैं मकानों की राजधानी कहता हूँ। इसे कमरों की राजधानी कहना सही होगा। मकान मालिकों ने दिल्ली को तरह-तरह के मकान दिए हैं और मकान के भीतर तरह-तरह के कमरे। उन्होंने अपने मकान के भीतर जिस तरह से कमरों की खोज की है, उनका सृजन किया है, वह जगह के सदुपयोग का शानदार उदाहरण है।एक मकान के भीतर अलग अलग तरह के कमरों में पहुँचने के रास्ते किसी लंबी कविता की तरह लगते हैं। आप फिसलते हुए, बचते हुए, जीवन का मर्म समझते हुए कविता के आख़िरी छोर यानि कमरे तक पहुँचते हैं।भारत में पीछे के कमरा किराये पर देने का रिवाज था लेकिन मैंने ड्राइंग रुम को भी किराये पर देते देखा है।वैसे कमरे के विशालकाय विस्तार के एक छोर पर गद्दा बिछा कर मैंने ख़ुद को बिन्दु की तरह पाया है। मल्टी-फोल्डर की तरह खुलते दरवाज़ों के बीच से आने वाली हवा को रोकने के प्रयास में सर्दी निकल जाती थी।अख़बारों को पढ़ने से पहले उनके खांचों में फंसा दिया जाता था और उस दिन की ख़बर हवा को रोकने में लगा दी जाती थी। मकान मालिकों के कारण मैंने पहली बार मकानों को सेट के हिसाब से देखा। पहले घर दिखता था फिर वन रुम सेट दिखने लगा, टू रूम सेट दिखने लगा और इस तरह किरायेदार के मोड में सेट होने लगा। मुझे अपना घर भी सेट की तरह दिखाई देता है।
दिल्ली को मैं कहीं भी कमरा बना दिए जाने की संभावना के रूप में देखता हूँ। शायद दिल्ली की ही प्रेरणा रही होगी कि कई साल पहले इटावा के एक होटल में बिस्तर के साथ ही बेसिन लगा देखा था। बेसिन को बाथरुम की कैद से आज़ाद करा कर ड्राइंग रुम से लेकर छत पर लगा देने का अभिनव प्रयोग दिल्ली के मकान मालिकों ने किया है। इन्होंने अपने अपने घरों और घरों के कमरे में जिस तरह से बेसिन को लेकर प्रयोग किया है वैसा प्रयोग तो बिथोवन ने भी जैज़ संगीत में नहीं किया है।दिल्ली आने वाली आबादी का बोझ बेसिन पर भी पड़ा। बेसिन का संकुचन हुआ और लघुतम आकार की बेसिन का दर्शन हुआ। ऐसा नहीं है कि सोफे की तरह विशालकाय बेसिन नहीं देखी लेकिन दिल्ली में रहते हुए यह थ्योरी विकसित कर सका कि बेसिन कहीं भी लग सकती है। बस लगाने के लिए आपके भीतर मकान मालिक सी कल्पना और अधिकार बोध होना चाहिए। आपका घर है। उस घर को आप किस हद तक अपना समझते हैं, इससे भी पता चलता है कि कहां कहां कमरा बना सकते हैं और कहां कहां बेसिन लगा सकते हैं। मकान बनाने में इस तरह की कल्पना का आविष्कार मुझे हमेशा ग़ालिब के शेरों में दिखाई देता है।मकान मालिक बहुवचन है। एकवचन नहीं हैं। क्यंकि यह तय करना असंभव है कि कौन एक कमरे का मालिक है और कौन असंखयों कमरों का मकान मालिक है। इसलिए मैंने मकान मालिक को बहुवचन में रखा है।
यह शोध का विषय है कि फ्लैट ओनर नाम के नए जीव में मकान मालिक होने की भूख किसने पैदा की। याद रहे फ्लैट ओनर कभी मकान मालिक नहीं हो सकता है। दिल्ली के मकान मालिकों का सबसे बड़ा योगदान यह है कि उन्होंने अपने सभी किरायेदारों में मकान मालिक होने का सपना पैदा किया। हर हाल में मकान मालिक होने का जज़्बा पैदा किया। इसका असर देश की अर्थव्यवस्था पर भी पड़ा कि दिल्ली के आस-पास बने घटिया से घटिया अपार्टमेंट भी सोने के भाव बिक गए। किसी अपार्टमेंट में आपको भले सौंदर्यबोध न दिखे लेकिन उसके फ्लैट में रहने वाले लोगों में मालिक बोध ज़रूर दिखेगा। वहां रहने वाले लोग ख़ुद को अपार सफलता प्राप्त किसी हीरो की तरह देखते हुए मिल जाएंगे। मैं जब भी ख़राब और बेतरतीब तरीके से बनाए अपार्टमेंटों की ऋंखला देखता हूँ तो यही सोचता हूँ कि इसमें फ्लैट खरीदने वाले आर्थिक मन से फ़ैसला नहीं किया होगा। उसने किरायेदार मन से इस फ्लैट को देखा होगा। जब वह किरायेदार के रूप में घटिया से घटिया कमरे में रह सकता है तब वह ऐसे फ्लैट को किस बिना पर ठुकरा देगा। इन सभी को पता चल गया था कि मकान मालिक होना उस सौभाग्य के रण को जीत लेना है, जिसकी तलाश में लाखों लोग किसी ज्योतिष के पास अपने ग्रहों का नक्शा दिखवाते रहते हैं।
मकान मालिक को आप आदर्श न बनाए यह आपका विकल्प नहीं है। वो कब आपके जीवन में आदर्श बनकर असर करने लग जाते हैं, बाप बनने की चाह रखने वाले पिताओं को सीखना चाहिए।जैसे ग़ालिब के बाज़ार में निकलते ही लोग ठिठक जाते होंगे, उन्हें निहारने लग जाते होंगे या रास्ते बदल लेते होंगे, वैसे ही हम मकान मालिक को देखते ही ठिठक जाते थे।रास्ते बदल लेते थे। मैंने इस दिल्ली में कई मकान ऐसे देखे हैं जिनके अनगिनत कमरों से निकलने का रास्ता एक ही होता था और उसके अंतिम छोर पर मकान मालिक खड़ा मिलता था। उस बिन्दु पर मैंने नमस्कारों की झड़ी लगते देखी है। हम लोग किसी तरह पिता के अनुशासन और बंदिशों का जीवन छोड़ कर आए थे और यहां मकान मालिक के रूप में एक नए पिता मिल गए। हमारे पिता किराए के पैसे भेजते रह गए और दिल्ली वाले पिता पैसा लेकर भी पिता बन गए। इन्होंने हमारे जीवन में नए सिरे से अनुशासन का सृजन किया। घर आने का टाइम मकान मालिक का टाइम होता था। मकान मालिक को देखते ही बिजली के बल्ब भुकभुकाने लगते थे। पंखे रुक जाते थे। पानी का मोटर मिमियाने लग जाता था। कमरे अपने आप साफ होने लग जाते थे। दरवाज़े के बाहर जूते चप्पलों के औचक निरीक्षण ने हमेशा याद दिलाया कि हम दिल्ली में रहते हैं। आपके कमरे के बाहर से प्रधानमंत्री कभी भी गुज़र सकते हैं। मकान मालिक भी उसी लेवल के वी आई पी हैं। इसलिए दिल्ली ग़ालिब का शहर नहीं है। मकान मालिक का शहर है।
मैंने दिल्ली में कई मकान बदले हैं लेकिन किसी मकान मालिक को नहीं बदल सका। वे जैसे होते थे वैसे ही बने रहे। उनके भीतर अपने जैसे होने की असीम क्षमता हुआ करती थी। उनके लिए हर कमरा एक महीना था और मकान कैलेंडर। एक तारीख़ को किराया लेने के बाद अगला 29 दिन कैसे काटते होंगे, यह बात किसी मकान मालिक ने बताई नहीं।जिन इलाकों में रहा उन इलाकों में सभी राष्ट्रीय त्योहारों पर मैंने उनके पोस्टर देखे हैं। एक जनवरी से लेकर छब्बीस जनवरी की बधाई देते हुए अपने मकान मालिकों को देख कर मैंने हमेशा इस महान राष्ट्र का शुक्रिया अदा किया है कि आपके आंगन में भले किराएदार कृतध्न निकल जाएं लेकिन मकान मालिकों की कृतज्ञता आपको हमेशा मिलती रहेगी। दिल्ली में ऐंकर रहते हैं। सीईओ रहते हैं। उन्होंने कभी एक पोस्टर नहीं लगाया और खंभों पर लटकर दिल्ली वालों को बधाई नहीं दी। क्योंकि इनमें से कोई मकान मालिक नहीं रहा होगा। ज़्यादातर तो किरायेदार से ही शुरू करते हैं। एक बार आप किरायेदर बन गए तो आजीवन किरायेदार रह जाते हैं। अपने मकान में भी आप मकान मालिक की तरह महसूस नहीं करते हैं।
मकान मालिकों ने दिल्ली को अगर किरायेदारों का शहर नहीं बनाया होता तो आज दिल्ली का लोकतंत्र ठप्प हो जाता। इन्हीं के बच्चों ने पार्षद से लेकर विधायक तक के रिक्त स्थानों की पूर्ति की वर्ना इस शहर में कोई चुनाव लड़ने वाला नहीं मिलता। दिल्ली यूनिवर्सिटी के चुनाव के पोस्टर दिल्ली भर में नहीं लगते अगर इन लड़कों के पिता मकान मालिक नहीं होते।मकान मालिकों के कारण ही आज दिल्ली में कैश की समानांतर अर्थव्यवस्था है। दिल्ली में अगर कोई टैक्स विरोधी है तो वह मकान मालिक है। अगर कोई कैश प्रेमी है तो मकान मालिक है। तभी तो इनकी शादियों में नोट उड़ाए जाते हैं। जब दिल्ली आया तो मोहल्ले के किसी भी घर से रौब से निकलते हुए शख़्स को देखकर भांप लेता था कि मकान मालिक आ रहे हैं। ग़ालिब नहीं आ रहे हैं।
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