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*समय चिंतन : लक्ष्मी की वैश्विक पृष्ठभूमि*

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          सोनी तिवारी, वाराणसी

देवी लक्ष्मी के लिए एक अन्य संज्ञा श्री भी मिलती है।कभी कभी इन्हें एक साथ जोड़ कर भी उच्चरित किया जाता है। इतिहासकार प्रायः ये मानते हैं कि ये दो भिन्न देवियां थीं। देवी के रूप में श्री की स्तुति श्री सूक्त में मिलती है।ये सूक्त ऋग्वेद में मिलता है। इसमें श्री और लक्ष्मी के नाम से देवी की वंदना की गई है। श्री सूक्त  में भले ही इन्हें एकरूप प्रदर्षित किया गया हो अन्य स्रोतों में इनका पृथक व्यक्तित्व दर्शाया गया है।

     तैतरीय अरण्यक, वाजसनेयी संहिता, रामायण का इस सन्दर्भ में उल्लेख किया जा सकता है। रामायण के अरण्य कांड में रावण सीता पर मुग्ध होकर पूछता है: “कि क्या वे श्री,कीर्ति या लक्ष्मी हैं।या कोई अप्सरा हैं।” भरत नाट्यशास्त्र उनका उल्लेख दिव्य मातृकाओं के रूप में करता है। हालांकि ऐसे संदर्भ कम ही हैं। ज्यादातर इन्हें एक ही देवी का नाम स्वीकार किया गया है। महाभारत के शांतिपर्व में दोनों को  को एकरूप दर्शाया गया है।

आर्यों के आगमन से पूर्व श्री लक्ष्मी उर्वरता की देवी थी। कालांतर में इसमें आर्यों और अनार्यों की देवियों से सम्बद्ध  अनेक धारणाओं को आत्मसात कर एक नया रूप दिया गया। इस क्रम में एक मातृ देवी  विभिन्न परिवर्तनों से गुजर कर  गुप्तकाल में वैष्णव देवता विष्णु से सम्बद्ध हुई। तंत्र मंत्र के उत्थान के साथ उसे विष्णु की शक्ति मान लिया गया।

      उर्वरता की देवी की परिकल्पना संस्कृतियो के प्रारंभिक चरण से मिलती है।ज्यादातर प्राचीन समाजों की यह सामान्य विशेषता है। यूनान की देवी  दिमिट्रिस मिस्र की देवी  आइसिस को उदाहरण स्वरूप गिनवाया जा सकता है।

     सामान्यतः ये माना जाता है कि शिकारी संग्रहकर्ता अर्थव्यवस्था में पुरूष के जिम्मे शिकार करना था और स्त्री संग्रह कर्ता की भूमिका में थी।  स्त्रियां हड्डियों, लकड़ी , टहनी के टुकड़े आदि का इस्तेमाल कर जमीन खोद कर कंदमूल इत्यादि इकट्ठा करती थीं। इस प्रक्रिया से गुजरते हुए  स्त्रियों ने अनुभव जन्य ज्ञान प्राप्त किया कौन से पौधे कहाँ और किस मौसम में मिल सकते हैं। ये जानकारी क्रमशः कृषि विषयक ज्ञान में तब्दील हुआ। 

      इसी वजह से विल ड्यूरेन्ट और अन्य कई इतिहासकार  आरंभिक अवस्था में कृषि की जानकारी का श्रेय  स्त्रियों को देते हैं। फावड़े के इस्तेमाल से बागवानी की शुरुआत स्त्रियों ने की। बाद में जब हल का प्रचलन शुरू हुआ  तो खेती का काम पुरुषों का हो गया। आयुधों के साथ भी इस तथ्य को जोड़ कर देखा जा सकता है।

भले ही स्त्री/देवी को उर्वरा शक्ति का अथवा कृषि की देवी का प्रतीक माना गया है। हल का आयुध उसके साथ कभी नहीं जुड़ा। हल संकर्षण के हिस्से आया। हलधर बलराम कहलाये। बलराम संकर्षण का ही एक अन्य नाम है।

      शिल्प में किये गए कुछ प्राचीन निरूपणों में देवी लक्ष्मी को  दो गजों के बीच कमल पर आसीन अथवा खड़ा प्रदर्शित किया गया है। प्रायः गज अपनी सूँड में पकड़े हुए कलश से देवी का जलाभिषेक करते दर्शाये जाते है। शिल्प का यह अंकन गजलक्ष्मी कहलाता है। 

     गजलक्ष्मी का चित्रांकन नववर्ष पर वितरित होने वाले कैलेंडर का प्रिय विषय रहा है। प्रायः यह वितरण बाजार अर्थव्यवस्था से जुड़े व्यवसायिक वर्ग के द्वारा किया जाता है। चित्रांकन का अंर्तनिहित उद्देश्य धन-धान्य में वृद्धि ही रहा है। लक्ष्मी के इस चित्रांकन को लोकप्रिय बनाने का श्रेय राजा रवि वर्मा को जाता है। रवि वर्मा प्रसिद्ध  मलयाली चित्रकार थे। पहली बार भारतीय देवी-देवताओं को रंग रूप आकर उनके द्वारा ही दिया गया। रवि वर्मा से पहले देवी-देवताओं का विस्तृत चित्रांकन नहीं किया जाता था।

इतिहास में  गजलक्ष्मी के अंकन को हम बौद्ध कला में बहुतायत से पाते हैं। साँची, भरहुत, बोधगया सभी स्थानों  से ये शिल्प हमे मिला है। श्री सूक्त जिसे लक्ष्मी से सम्बद्ध किया गया है देवी को “हस्तिनाद प्रमोदिनी” कहता है। इसका अर्थ हाथियों के चिंघाड़ से प्रसन्न होने वाली देवी है। इसे विष्णु पुराण के संदर्भ से भी जोड़ा जा सकता है जहाँ ये कहा गया है कि देवी जब समुद्र से बाहर आई तो हाथियों ने उसे पवित्र जल से स्नान करवाया।

      इतिहासकारों ने हाथी के साथ लक्ष्मी के सम्बंध का जो विश्लेषण दिया है उसके अनुसार यह चित्रण लक्ष्मी का अनार्यों के साथ संबंध दर्शाता है। बौद्ध मिथकों में भी श्री को नागराज सागर की कन्या बताया गया है। नाग आर्यों के परिवेश में में रहने वाली अनेक आदिम जनजातियों में से थे। श्री उनकी मातृ देवी रही होंगी। महाभारत के एक विवरणों में भी ऐसा संकेत दिया गया है कि श्री पहले असुरों के साथ निवास करती थीं। बाद में उनका पतन होने पर श्री ने उन्हें त्याग दिया और इंद्र के साथ निवास करने चली आयीं। 

     महाभारत में श्री  इंद्र से कहती है कि उसने असुरों का त्याग इसलिए किया कि वे अब अपने पशुओं की समुचित देखभाल नहीं करते और उन्हें चरागाह की घास और  उचित भोजन नहीं देते। वे मांस  भक्षण करते हैं और पशुओं की हत्या यज्ञ के निम्मित नहीं अपितु उनका मांस खाने के लिए करते हैं। पशुओं को नहीं मारने पर उसके जोर का कारण परवर्ती अहिंसा का सिद्धांत है। किंतु पशुओं के साथ उसकी अभिन्नता पुरानी है। इस अभिन्नता को हम श्री सूक्त और जनजातीय सिक्कों पर देख सकते हैं।

श्री से जुड़े ये मिथक एक अनार्य देवी के आर्य देवी में रूपांतरण के प्रतीक हैं।

     पुरातत्व से भी इस दिशा में कुछ संकेत मिलते है। कुणिंद जनजाति के सिक्कों पर श्रीवत्स चिह्न के साथ देवी का अंकन किया गया है। इसे लक्ष्मी के प्राक रूप में पहचाना गया है। इन सिक्कों पर देवी हाथ में पुष्प लिए खड़ी प्रदर्शित है। पार्श्व में हिरण का चित्रण है। श्री सूक्त में भी उसे हरिणी अर्थात हरिण के समान रूप वाली कहा गया है। कुणिंद सिक्कों का समय ईसा पूर्व प्रथम शताब्दी माना गया है।

      इस जनजाति का उल्लेख हमें महाभारत,रामायण,वृहत्संहिता और टालेमी के इतिहास में मिलता है। हिरण का साहित्य में उल्लेख और पुरातत्व में उसकी उपस्थिति देवी(सम्पति) के  चंचल स्वभाव को दर्शाता है। हाथी के साथ उसका अंकन लाक्षणिक है।

     संस्कृत में हाथी को “नाग” कहा गया है ।दो हाथियों के बीच उसका अंकन  दो नागों के बीच उसका अंकन अनार्यों की / नाग जनजाति की उर्वरता की देवी का अंकन है जो कालक्रम में बौद्ध धर्म और वैष्णव सम्प्रदाय का हिस्सा बनी। (चेतना विकास मिशन)

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