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वैश्विक फलक : महिला मुक्ति के लिए 

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बच्चों की सामूहिक देखभाल

    [‘रिवोल्यूशनरी वर्कर’ में पब्लिश ली ओनेस्टो के ऑर्टिकल का भाषान्तर]

 ✍ पुष्पा गुप्ता 

जब कभी औरतें आपस में मिलती जुलती हैं और अपनी समस्याओं के बारे में बातचीत करती हैं तो घरेलू कामकाज और बच्चों की देखभाल हमेशा उनकी चर्चा का मुख्य विषय होता है। समाज में जिस ढंग से कामों का बंटवारा हुआ है उसमें घर के कामों को निपटाने और बच्चों की देखभाल करने की मुख्य जिम्मेदारी उन्हीं की होती है। ज्यादातर नौकरीपेशा औरतें इस बात को महसूस करती हैं कि उन्हें ‘दोहरी नौकरी’ का बोझ उठाना पड़ता है – पूरे दिन बाहर काम करना और घर लौटने के बाद फिर चूल्हा-चौखट और बच्चे सम्हालना।

     समाज में इस तरह का श्रम विभाजन औरतों के दमन-उत्पीड़न का कारण बनता है। वे अलग-थलग पड़ कर घर के दायरे में सिमट जाती हैं जहां बच्चों की चिन्ता और घर के कामों का बोझ उन्हें शारीरिक रूप से थका डालता है और दिमाग को सुन्न बना देता है। यह क्रान्तिकारी संघर्षों में उनकी भागीदारी को असम्भवप्राय ही नहीं बनाता वरन् उन्हें अपने ढंग से जी लेने की गुंजाइश भी नहीं छोड़ता। जाहिर है जिसकी जिन्दगी का एक बड़ा हिस्सा बच्चों के पालन-पोषण और घर के काम काज में व्यतीत होता हो वह समाज के प्रति अपने देय को पूरा करने के लिए पूर्णतः स्वतंत्र नहीं हो सकता।

    जब तक श्रम विभाजन की इस दमनकारी व्यवस्था से छुटकारा नहीं पा लिया जायेगा औरतों की मुक्ति असम्भव है।

‘बच्चों की देखभाल कौन करे’ यह प्रश्न स्त्रियों और पुरुषों के बीच एक बड़ा मुद्दा बना रहता है। कुछ स्त्रियां चाहती हैं कि उनके पति घर के कामों और बच्चों की देखभाल में और अधिक से अधिक जिम्मेदारी उठायें। इस प्रकार एक अन्तहीन संघर्ष चलता रहता है। दुनिया भर की औरतें इस स्थिति से निपटने की राह ढूंढ़ रही हैं। गरीब स्त्रियां महसूस करती हैं कि न्यूनतम मजदूरी पर उन्हें कोई काम मिलता भी है तो बच्चों की देखभाल इस नौकरी की इजाजत उन्हें नहीं देती। और बहुत सी नौजवान औरतों को तो इसके लिए अपनी मां पर निर्भर रहना पड़ता है। मध्य वर्ग की औरतें अपने बच्चों की देखभाल के लिए ऐसी आयाओं की नियुक्ति करती हैं जो ज्यादातर आप्रवासी होती हैं और बहुत कम वेतन पर बिना किसी लाभ के काम करने को विवश होती हैं।

      हम ज्यादा से ज्यादा यही सुनते आ रहे हैं कि कोई स्त्री, चाहे कितना ही जरूरी काम उसके पास क्यों न हो, ‘सबसे पहले वह एक मां होती है। यह परिस्थितियां वाकई पागल बना देने वाली होती हैं। स्त्री और पुरुष के बीच इस प्रकार का उत्पीड़नकारी श्रम विभाजन एक विश्व ऐतिहासिक समस्या है। पूंजीवादी समाज में पारिवारिक जीवन को नितान्त निजी बना दिया जाता है। करोड़ों की संख्या में औरतें अपने घरों में प्रतिदिन रात को वापस लौटती हैं जहां उन्हें वही चूल्हा-चौखट, कपड़ा बासन, झाड़ू-पोछा, हाट-बाजार और बच्चों को खिलाने-सुलाने के कामों से रोज-रोज जूझना पड़ता है।

      रोजमर्रा के यही घरेलू काम अपने-अपने घरों में अलग-अलग करने से उन करोड़ों औरतों की ऊर्जा और समय की व्यर्थ बरबादी होती है और जिसकी थकान उनके शरीर को तोड़ डालती है। जब कि ऐसे ही घरेलू काम और साथ-साथ बच्चों की परवरिश भी सामूहिक रूप में और समाजीकृत तरीके से हो सकती है। यह मानव संसाधन का भारी अपक्षय है और पूरी दुनिया के पैमाने पर सर्वहारा के लिए एक बड़ी समस्या है। क्योंकि जब तक ऐसे हालात रहेंगे मानव जाति का यह आधा हिस्सा सामाजिक विकास में कभी पूरी तरह से सहयोग नहीं कर सकता। इसलिए हम कहते हैं कि ‘‘क्रान्ति के एक प्रचण्ड शक्ति के रूप में औरतों के आक्रोश को उन्मुक्त करो।’’

      ऐसी तमाम बातें हमें यह सोचने को बाध्य करती हैं कि इस समस्या का समाधान कहीं पूरे समाज को एक भिन्न तरीके से संगठित करने में तो नहीं है और क्या इसके लिए कोई राह निकाली जा सकती है? और रास्ता निकला था। क्रान्तिकारी चीन में माओ त्से-तुङ की अगुवाई में मेहनतकश जनता 1949 में सत्ता पर कब्जा करने के बाद एक नये समाजवादी समाज के निर्माण में पच्चीस वर्षों से अधिक समय तक लगी रही।

     माओ ने इस बात की अनिवार्यता को समझा कि क्रान्ति स्त्रियों को उनके रोजमर्रा के घरेलू कामों और बच्चों के परवरिश से मुक्त करे। अन्यथा इस मुक्ति के बिना सभी प्रकार के शोषण-उत्पीड़न से युक्त एक नये समाजवादी समाज के निर्माण में आधी आबादी बराबरी की हैसियत से और पूरी क्षमता के साथ लग कर काम कर सके, यह सम्भव ही नहीं है। और यही वह माओवादी दृष्टिकोण था जिसकी रोशनी में चीनी जनता ने बच्चों की समस्या का सच्चा समाधान पाया।

     आज अमरीकी शासक लोगों से कहते हैं, ‘‘परम्परागत पारिवारिक मूल्यों की ओर लौट चलो।’’ लेकिन क्रान्तिकारी चीन में स्त्रियां उन तमाम ‘परम्परागत पारिवारिक मूल्यों’ के खिलाफ उठ खड़ी हुई थीं जिन्होने हजारों हजार साल से उन्हें दबाये रखा था। माओ के क्रान्तिकारी चीन ने बच्चों की समस्या का समाधान किस प्रकार किया था यह वृतान्त ऐसे तमाम लोगों के लिए जानना प्रासंगिक होगा जो मूलभूत और क्रान्तिकारी बदलाव के लिए संघर्षरत हैं। क्योंकि यह बताता है कि किस प्रकार जब जनता मौजूदा ढांचे को गिराकर वास्तविक अर्थों में राजनीतिक सत्ता पर कब्जा जमा लेती है, तो उन सभी समस्याओं का समाधान ढूंढ लेती है जो पूंजीवादी समाज में कभी सम्भव नहीं रहा। और यह दिखाता है कि किस तरह केवल माओवादी क्रान्ति ही औरतों को आजाद कर सकती है।

      पुराने चीन में कनफ्यूशियस का प्राचीन दर्शन लोगों के जीवन को नियंत्रित करता था और स्त्रियों को उत्पीड़ित करने में परम्पराओं की महती भूमिका होती थी। औरतों को हर हालत में पुरुषों से कमतर समझा जाता था। उनके लिए एक ही तयशुदा काम था – अपने पतियों की सेवा करना और उनके लिए कई-कई बेटे पैदा करना।

      शुरू से ही माओ ने स्त्रियों की मुक्ति को क्रान्ति का अविभाज्य अंग बनाया। 1949 के पूर्व जिन क्षेत्रों को लाल सेना ने मुक्त किया वहां स्त्रियों को दबाने वाली तमाम सामन्ती परम्पराओं के विरुद्ध जबर्दस्त संघर्ष चला। और शहरी एवं ग्रामीण इलाकों से औरतों की अच्छी-खासी आबादी क्रान्ति की कतारों में आकर शामिल हुई।

     1949 के बाद ऐसे कानून बनाये गये जिसमें औरतों को जमीन पर बराबर का मालिकाना हक मिला और काम करने तथा शासन व्यवस्था चलाने में उनकी समान भागीदारी सुनिश्चित हुई। लेकिन पूरे चीनी समाज में एक पिछड़ी और स्त्री विरोधी सोच मौजूद थी। और समाजवाद के निर्माण के लिए स्त्रियों को पूरी तरह और बराबर की भागीदारी के लिए आगे लाने का काम आसानी से या एक झटके में नहीं हो गया।

      कम्युनिस्ट पार्टी ने स्त्रियों के ‘घर से बाहर निकलने और स्त्री समुदाय के राजनीतिक-आर्थिक जीवन में हिस्सेदारी की जरूरत पर बल दिया। लेकिन इसका भारी प्रतिरोध हुआ – पुरुषों और साथ-साथ परिवार के दूसरे सदस्यों द्वारा भी। जैसे सासें चाहती थीं कि उनकी बहुएं घर सम्हालें और बच्चों की देखभाल करें। क्रान्ति के लिए यह एक आसन्न समस्या थी।

      ग्रामीण इलाकों में, जहां चीनी समाज की बहुसंख्यक आबादी रहती थी, और शहरों में नारी सभाएं स्थापित की गईं। औरतों के ये संगठन उत्पीड़नकारी पारिवारिक सम्बन्धों को बरकरार रखने वाले पतियों, पिताओं और सासों के खिलाफ संघर्ष में स्त्रियों के मददगार होते थे। उदाहरण के लिए यदि कोई पति बच्चों की देखभाल से इंकार करता था या अपनी पत्नी को नौकरी ढूंढने अथवा राजनीतिक बैठकों में शामिल होने की इजाजत नहीं देता था तो संगठन का एक प्रतिनिधिमंडल जाकर उसके साथ उन तौर-तरीकों को बदलने के लिए संघर्ष चलाता था।

       यदि किसी स्त्री को किसी राजनीतिक बैठक में शामिल होने के लिए रात को बाहर निकलना पड़ता था तो बच्चों की देखभाल की जिम्मेदारी पति को दे दी जाती थी। औरत राजनीतिक बैठक में जाये और बच्चों की देखभाल पति करे ऐसी चीजें पुराने चीन में कभी सुनी नहीं गई थी। और जब पुरुषों ने बच्चों की देखभाल में और अधिक जिम्मेदारी उठानी शुरू कर दी तो सच्चे अर्थों में यह एक आगे बढ़ा हुआ कदम था। लेकिन इस समस्या का समाधान तब तक नहीं ढूंढा जा सका जब तक दायित्व का यह बंटवारा केवल पति-पत्नी के बीच बना रहा।

       हर परिवार का अलग-अलग और निजी मसला बना रहा। दरअसल होता यह था कि परम्परा के दबाव में बच्चों की देखभाल का ज्यादा से ज्यादा बोझ औरतों पर ही आ पड़ता था। इस समस्या का सही समाधान तभी सम्भव था जब बच्चों के देखभाल की समूची जिम्मेदारी समाज उठाये। प्रत्येक परिवार के वैयक्तिक स्तर पर जूझने की जगह जरूरत इस बात की थी कि बच्चों के पालन-पोषण और अन्य घरेलू कामों का समाजीकरण किया जाये।

       समाजीकरण की यह प्रक्रिया नये समाज के निर्माण का एक महत्वपूर्ण हिस्सा था जिसमें लोग सहकार के साथ और सामुदायिक रूप से रहते और काम करते थे।

*बच्चों के पालन-पोषण की समस्या का सामूहिक ढंग से समाधान :*

     पचासवें दशक के आरम्भ में बच्चों की देखभाल सम्बन्धी सुविधाओं का एक तानाबाना शहर के निकटवर्ती क्षेत्रों और देहाती इलाकों में स्थापित कर लिया गया। इसके अन्तर्गत शिशुओं के लिए पालनाघर खोले गये जहां मांएं काम के घंटों के बीच अपने बच्चों को दूध पिला सकती थीं और उनकी देखभाल कर सकती थीं।

       इसके अतिरिक्त सात वर्ष से कम उम्र के बच्चों के लिए, जो अभी स्कूल नहीं जाते थे, शिशु-सदनों (नर्सरी) और बालविहारों (किन्डरगार्टेन) की स्थापना की गई। ये नर्सरी और बालविहार निकटस्थ संगठनों, विद्यालयों और कारखानों द्वारा अथवा देहाती इलाकों में किसानों की सहकारी समितियों के द्वारा चलाये जाते थे। बच्चों के पालन-पोषण में उपचारिकाओं और शिक्षिकाओं को प्रशिक्षित करने के लिए स्कूल खोले गये। बड़े शहरों में लोगों को बच्चों के सामूहिक देखभाल में प्रशिक्षित करने के लिए महिला संघ ने अल्पकालिक कक्षाओं की श्रृंखला की शुरुआत की।

      ग्रामीण क्षेत्रों में बच्चों के देखभाल की सुविधा शुरू में तो बहुत व्यापक स्तर तक नहीं पहुंची थी और उनमें से कई तो प्रयोगों के दौर में तथा छोटे पैमाने पर उपलब्ध थीं। लेकिन 1958-59 में महान अग्रवर्ती छलांग के साथ ही इस स्थिति में एक भारी परिवर्तन आया। महान अग्रवर्ती छलांग एक वृहद जनान्दोलन था जिनका सूत्रपात माओ ने किया था। आर्थिक विकास के क्षेत्र में यह एक जबर्दस्त कदम था – खासकर ग्रामीण इलाके में जहां कृषि तथा छोटे स्थानीय उद्योगों के वास्तविक विकास के लिए किसानों को गोलबन्द किया गया इसने गुलाम बनाने वाली परम्पराओं और विचारों पर जबर्दस्त प्रहार किया।

      राष्ट्रीय स्तर पर चलने वाले इस अभियान में स्त्रियों की मुक्ति एक केन्द्रीय मुद्दा था। गांवों में सामूहिक खेती के रूप विकसित किये गये और कम्यूनों की स्थापना की गई जहां दसियों हजार किसान साथ-साथ रहते और काम करते थे। इससे परिवार के एक इकाई के रूप में लोगों के जीवन की धुरी बने रहने पर जोर कम पड़ने लगा। जैसे-जैसे लोगों का आर्थिक जीवन अधिकाधिक समाजीकृत होता गया अन्य चीजों जैसे बच्चों के पालन पोषण के समाजीकरण का भी आधार तैयार होने लगा। समाज द्वारा बच्चों की यह सामूहिक देखभाल चीन में एकदम नई चीज थी।

      शिशुसदन और बाल विहार खोले जा सकें, इसके लिए कम्युनिस्ट पार्टी को वास्तव में महिलाओं की आबादी पर निर्भर होना पड़ा। यदि वे ऐसा नहीं करते तो महिलाओं की जरूरतों और सरोकारों को ध्यान में रखे बिना ही शिशु केन्द्रों की स्थापना होती। और अपनी भागीदारी के बगैर निर्मित संस्था में वे अपने बच्चों को अपरिचितों के साथ छोड़ने में हिचकतीं। इससे भी ज्यादा जरूरी चीज यह थी कि इसके बिना उन पिछड़े विचारों और परम्पराओं के खिलाफ संघर्ष के लिए औरतों की आबादी को गोलबन्द नहीं किया जा सकता था क्योंकि यदि उन्हें ‘घर से बाहर निकालना था’ तो इसके लिए आवश्यक था कि ऐसे पिछड़े विचारों और परम्पराओं पर प्रहार किया जाये। किसी गांव या निकटवर्ती क्षेत्रों में (जिला, प्रांत) जांच-पड़ताल करने के बाद कम्युनिस्ट पार्टी के नेता वहां की महिलाओं को विचार-विमर्श के लिए तथा अपनी दिक्कतों और परेशानियों के बारे में विस्तार से और खुलकर बातचीत करने के लिए बुलाते थे।

       वे सबके साथ मिलबैठ कर तय करते थे कि बाल केन्द्रों की स्थापना किस ढंग से की जाये जिससे कि समूचे समुदाय के बच्चों की देखभाल हो सके। इसी क्रम में वे विभिन्न प्रकार के कार्यों का बंटवारा और उन कार्यों के लिए वेतन की अदायगी के सम्बन्ध में बातचीत कर लेते थे। बाल केन्द्रों की स्थापना के बाद उसमें काम करने वाले स्टाफ तथा बच्चों के माता-पिता की तमाम समस्याओं अथवा चिन्ताओं के निराकरण के लिए नियमित बैठकें हुआ करती थीं। एक बार किसी गांव में नये शिशु केन्द्रों के लिए स्टाफ जुटाने में उन्हें काफी मशक्कत करनी पड़ी। अधिकांश महिलाएं पुरुषों के साथ खेतों पर जाकर काम करना ज्यादा पसंद करती थीं। और दोनों ही बच्चों के देखभाल के काम को नीची नजर से देखा करते थे।

        अवकाश प्राप्त बूढ़ी औरतों के लिए भी धमाचौकड़ी मचाते जिंदादिली से भरपूर बच्चों और किशोरों से भरे कमरे को सम्हाल पाना सम्भव नहीं होता था। अंततः इस गांव में समस्या का समाधान ढूंढ निकाला गया। वहां की युवा अविवाहित औरतों को शिशु पालन और सामूहिक रूप से बच्चों के देखभाल के लिए एक अल्पकालिक ट्रेनिंग कोर्स के लिए भेजा गया। प्रशिक्षित होकर लौटने के बाद छोटे-छोटे बालकेन्द्रों की जिम्मेदारी उनको सौंप दी गई जहां सहयोगी के रूप में अवकाश प्राप्त बूढ़ी औरतें उनके कामों में मददगार होती थीं। और वे बूढ़ी औरतें पुराने समाज में जनता के अमानवीय उत्पीड़न के किस्से बच्चों को सुनाती थीं, यह भी उनके कामों का एक हिस्सा था।

       इस तरह बच्चों के पालन-पोषण की समाजीकृत व्यवस्था जैसे-जैसे व्यापक रूप से स्थापित होती गयी करोड़ों की संख्या में औरतें भी समाजवाद के निर्माण में भाग लेने के लिए स्वतंत्र होने लगीं। 1952 तक आते-आते कारखानों में, खदानों में सरकारी संगठनों में, शिशु केन्द्रों तथा स्कूलों की संख्या में 1949 के मुकाबले 22 गुना तक की वृद्धि हुई। और उन्नीस सौ पचास के पूरे दशक में खासकर ‘महान अग्रवर्ती छलांग’ के दौर में यह लगातार बढ़ता ही गया क्योंकि उस समय तक घरेलू श्रम के कई रूपों का जैसे रसोई, सिलाई और अनाज पीसने के कामों का समाजीकरण हो चुका था।

      अनुमान था कि 1959 तक देहाती इलाकों में लगभग 5 करोड़ शिशु केन्द्र और बालविहार, 3.5 करोड़ से अधिक सार्वजनिक भोजन कक्ष और अनगिनत आटे की मिलें तथा सिलाई केन्द्र स्थापित हो चुके थे। शहरों में सामूहिक सेवा सुविधाओं की व्यवस्था निकटवर्ती संगठनों द्वारा की जाती थी। और इसमें ‘नुक्कड़ शिशु केन्द्र’ (Street Nursing) और सामुदायिक भोजन कक्ष की सुविधायें भी थीं। इसमें से कुछ तो काफी बड़े थे और सैकड़ों परिवारों को खाना खिलाने की क्षमता रखते थे व कुछ छोटे और साधारण थे जहां कुछ दर्जन परिवार ही खाना खा सकते थे। नौकरीपेशा माता-पिता काम के बाद अपने बच्चों को इन सामुदायिक रसोई घरों में भोजन के लिए ले जाते अथवा उन्हें साथ लेकर अपने परिवार के साथ खाने के लिए घर पर जाते।

      कुछ शहरों ने ‘पहिए गाड़ी पर भोजन (meals on wheels) पहुंचाने की व्यवस्था ऐसे लोगों के लिए शुरू की जिन्हें अपनी बीमारी की वजह से अथवा बीमार बच्चों के देखभाल के लिए घर पर रुकना पड़ता था। कारखानों में काम करने वाली मजदूर औरतों के लिए स्थापित शिशु केन्द्रों में बच्चों के देखभाल की अलग-अलग व्यवस्थाएं की गईं। वहां आधे दिन की, पूरे दिन की, चौबीस घंटों तथा पूरे सप्ताह के लिए बच्चों के देखभाल की व्यवस्था थी। इन शिशु केन्द्रों में समय का निर्धारण कारखानों की समय-सारिणी के अनुरूप होता था और औरतों के कार्य स्थल से इनकी दूरी कम से कम रखी गई थी।

       समाजवादी चीन में बच्चों के देखभाल के ऐसे केन्द्रों की स्थापना को समाज ने भारी प्राथमिकता दी। नतीजतन बाल केन्द्रों का तेजी से विस्तार हुआ। उदाहरण के लिए 1959 में राजधानी पीकिङ में लगभग 1,250 नुक्कड़ बाल विहार और शिशु केन्द्र थे जिनमें करीब 62,000 बच्चों की देखभाल होती थी। 1960 तक इन बाल विहारों और शिशु केन्द्रों की संख्या छलांग लगा कर 18,000 तक जा पहुंची, जहां 600,000 से भी अधिक बच्चों की देखभाल होने लगी।

       सामूहिक देखभाल के व्यापक विस्तार के साथ ही पीकिङ में लोगों ने 12,000 सामुदायिक भोजन-कक्ष बनाये तथा 1200 से अधिक सफाई व मरम्मत की दुकानें और 3,700 सेवा केन्द्रों की स्थापना की जहां वे अपने कपड़ों को मरम्मत तथा धुलाई के लिए छोड़ सकते थे। इसके साथ ही छोटे-छोटे शिशु केन्द्र (नर्सरी) भी खोले गये जहां महिलाएं कुछ घंटों के लिए अपने बच्चों को छोड़कर खरीददारी करने, फिल्म देखने अथवा अंशकालिक कक्षाओं के लिए स्कूल जा सकती थी।

*सांस्कृतिक क्रान्ति द्वारा रुढ़ियों की जकड़बन्दी पर गहरा प्रहार :*

      1966 में माओ ने महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति का सूत्रपात किया। इसका लक्ष्य स्वयं कम्युनिस्ट पार्टी के ही अन्दर बैठे हुए उन नेताओं को बाहर निकाल फेंकना था जो पूंजीवाद की पुनर्स्थापना चाहते थे, समाज की दिशा क्या होगी? इस पर वाद-विवाद चलाने और संघर्षों में उतर पड़ने के लिए पूरे समाज के उतर पड़ने के लिए पूरे समाज के करोड़ों-करोड़ लोगों केा लामबन्द किया गया। यह तय होना था कि क्या वर्ग समाज के भेदभाव और गैरबराबरी को मिटा कर जनता समाजवाद के निर्माण में लगी रहेगी अथवा ‘एक दूसरे की हड्डी चिचोड़ने वाला’ और ‘मुनाफे को हर चीज के ऊपर रखने वाला’ पूंजीवाद फिर से बहाल हो जायेगा?

       सर्वहारा क्रान्ति ने वर्ग समाज के सभी पिछड़े रुढ़ियों और रिवाजों पर जबर्दस्त प्रहार किया तथा औरतों के उत्पीड़न के विरुद्ध संघर्ष इस ‘क्रान्ति के भीतर चल रही क्रान्ति’ का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बना। जो लोग चीन में पूंजीवाद का समर्थन कर रहे थे वे क्रान्ति को बीच में ही रोक देना चाहते थे। वे परम्परावादी पारिवारिक ढांचे को तोड़ने के खिलाफ थे और पिछड़े नारी विरोधी विचारों को बढ़ावा दे रहे थे।

      कम्युनिस्ट पार्टी में रहते हुए पूंजीवाद की राह पकड़ने वाले लिन पियाओ जैसे लोगों ने कुछ इस प्रकार की चीजों जैसे कन्फ्रयूशियस की उक्ति ‘अपने पर संयम रखो और (बुर्जुआ-अनु) अधिकारों को पुनर्स्थापित करो’ (Restrain one-self and restore the right) को प्रचारित किया जिसका तात्पर्य यह निकलता था कि प्रत्येक व्यक्ति को इस श्रेणीबद्ध समाज में अपनी ‘स्थिति’ को स्वीकार कर लेना चाहिए। उन्होंने इस विचार को बढ़ावा दिया कि औरतों को अपने परिवार और बच्चों के अलावा किसी चीज से मतलब नहीं रखना चाहिए। उन्होंने बच्चों की देखभाल करने वाले बाल-केन्द्रों की आलोचना की और कहा कि यहां बच्चों की उचित देखभाल नहीं होती तथा इसके पहले कि इनके पालन-पोषण का सामूहिकीरण हो उनके विचार से समाज का और अधिक आर्थिक विकास होना आवश्यक था।

      पार्टी के इन नेताओं ने समाज के ऐसे लोगों को गोलबन्द किया और उनकी अगुवाई की जो पिछड़े और परम्परागत नारी विरोधी विचारों का समर्थन करते थे। वे घरेलू कामों और बच्चों के पालन पोषण के समाजीकरण के प्रयासों पर कुठाराघात करते थे। ये चीजें इस बात को और अधिक पुख्ता ढंग से रेखांकित करती हैं कि समूचे चीन में औरतों के इतने अधिक घरेलू कामों का सामूहिकीकरण कितनी महान उपलब्धि थी। घरेलू कार्यों और बच्चों की देखभाल के समाजीकरण का स्तर क्रान्ति के बाद के चीन में एक समान नहीं था, विशेषकर गांवों और शहरों के बीच। 1971 तक चीन में 90 प्रतिशत औरतें घर से बाहर निकलकर काम कर रही थीं लेकिन शिशु देखभाल के सामूहिकीकरण की गति इतनी तेज नहीं थी। शहरों में एक से तीन वर्ष के आयु के लगभग 50 प्रतिशत बच्चे ही शिशु केन्द्रों में जाते थे जब कि शेष 50 प्रतिशत घर पर ज्यादातर अपने दादी-दादा के देखरेख में रहते थे तथा ग्रामीण इलाके में सामूहिक देखरेख में रहने वाले बच्चों का प्रतिशत तो और भी कम था। लेकिन चीन में शिशु देखभाल का समाजीकरण वर्ग संघर्ष का एक अंग था और औरतों की मुक्ति के लिए यह एक बड़ा कदम था। बच्चों के सामूहिक देखभाल जैसी ‘नई समाजवादी चीजें’ स्थापित करने के लिए समाज में भीषण राजनीतिक व विचारधारात्मक संघर्ष चला।

       हजारों साल की रुढ़ियों को चुनौती मिली और परम्पराओं की ये बेड़ियां उस समय टूट गई जब औरतों ने घर से बाहर कदम निकाला और समूचे चीनी समाज में आमूल चूल परिवर्तन के संघर्षों का हिस्सा बनीं। माओ के नेतृत्व में करोड़ों की संख्या में लोग हर प्रकार के उत्पीड़न और गैरबराबरी के खात्मे के लिए सचेतन रूप से काम कर रहे थे। और इस संघर्ष ने समाजीकृत शिशु देखभाल जैसी समाजवादी जिन ‘नई चीजों’ को सृजित किया वह एक जबर्दस्त उपलब्धि व ऐतिहासिक प्रगति थी।

*क्रान्तिकारियों की नई पीढ़ी की निर्मिति :*

       सांस्कृतिक क्रान्ति के दौरान चीन में ‘शिशु देखभाल केन्द्रों का उद्देश्य क्या था इस बात पर मतभेद था। कुछ लोगों का तर्क था कि सामूहिक देखभाल का मुख्य उद्देश्य बच्चों को महज भोजन, वस्त्र तथा एक सुरक्षित शरणस्थली देना था जबकि क्रान्तिकारियों का कहना था कि इन बाल केन्द्रों की महती जिम्मेदारी ‘‘क्रान्तिकारी उत्तराधिकारी’’ तैयार करना था। बच्चों को सिखाया गया ‘जनता की सेवा करो’। उन्हें आपसी सहकार और सामूहिक रूप से पढ़ने, खेलने तथा समस्याओं को सुलझाने की शिक्षा दी गई।

       उन्हें शारीरिक श्रम के महत्व के बारे में समझाया गया। उन्हें बताया गया कि जिस अनाज को वे खाते हैं , जो कपड़े वे पहनते हैं और जीवन की सभी आवश्यक वस्तुओं का उत्पादन करने वाले किसान और मजदूर ही हैं।

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