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एक दूसरे को चुनौतियां दे रहे हैं सरकार और राजभवन …दांव पर है पश्चिम बंगाल की उच्चशिक्षा

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कुमार विजय

पश्चिम बंगाल की राजनीति में एक नए तरह का संघर्ष देखने को मिल रहा है। इस बार दांव पर शिक्षा है और राज्य सरकार और राजभवन एक दूसरे को चुनौतियां दे रहे हैं। संवाद के स्तर पर लड़ी जा रही यह लड़ाई लगातार तल्ख रूप लेती जा रही है। राज्य सरकार और राज्यपाल, विश्वविद्यालय में कुलपति की नियुक्ति को लेकर एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगाने में लगे हुये हैं। ज्ञात हो कि पश्चिम बंगाल के राज्यपाल सीवी आनंद बोस ने रविवार को राज्य के छह विश्वविद्यालयों के लिए अंतरिम कुलपतियों की नियुक्ति की। बोस पश्चिम बंगाल में सरकारी विश्वविद्यालयों के कुलाधिपति हैं। उन्होंने अचिंत्य साहा को मुर्शिदाबाद विश्वविद्यालय का अंतरिम कुलपति, प्रोफेसर बीबी परिदा को महात्मा गांधी (एमजी) विश्वविद्यालय, प्रोफेसर निखिल चंद्र राय को कूचबिहार पंचानन विश्वविद्यालय और प्रोफेसर रथिन बंद्योपाध्याय को अलीपुरद्वार विश्वविद्यालय का अंतरिम कुलपति बनाया है। प्रोफेसर दिलीप मैती को विश्व बांग्ला विश्वविद्यालय का अंतरिम कुलपति और भारतीय पुलिस सेवा (आईपीएस) के सेवानिवृत्त अधिकारी सीएम रवींद्रन को उत्तर बंग विश्वविद्यालय का अंतरिम कुलपति नियुक्त किया है।

यह नियुक्तियां ही झगड़े की जड़ हैं। इससे पहले भी गवर्नर सीवी आनंद बोस ने कई विश्वविद्यालयों में कार्यवाहक कुलपति की नियुक्ति की है। प्रोफेसर देवब्रत बसु को उत्तर बंग कृषि विश्वविद्यालय, प्रोफेसर तपन चंदा को मौलाना अबुल कलाम आजाद प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय, प्रोफेसर गौतम चक्रवर्ती को बर्दवान विश्वविद्यालय, प्रोफेसर इंद्रजीत लाहिड़ी को नेताजी सुभाष ओपन यूनिवर्सिटी और प्रोफेसर श्याम सुंदर दाना को पश्चिम बंगाल पशु एवं मत्स्य विज्ञान विश्वविद्यालय का अंतरिम वीसी नियुक्त किया गया है। इतना ही नहीं सूत्रों से मिली जानकारी के अनुसार, राज्यपाल की तरफ से नौ अन्य विश्वविद्यालयों में भी जल्द अंतरिम कुलपतियों की नियुक्ति की जाएगी। इन नियुक्तियों में राज्यपाल ने राज्य सरकार से ना तो कोई परामर्श किया न ही उनकी राय को तवज्जो दी, जिसकी वजह से मुख्यमंत्री मुख्यमंत्री ममता बनर्जी राज्यपाल से नाराज हो गई हैं।

राज्यपाल का कहना है कि अंतरिम कुलपतियों के चयन में पात्रता, उपयुक्तता, योग्यता, इच्छा और अन्य मानदंडों का पालन किया गया है।उन्होंने कहा है कि वीसी नियुक्ति में राज्य सरकार की सहमति जरूरी नहीं है। इसके लिए उन्होंने कलकत्ता हाईकोर्ट के एक बयान का हवाला दिया है। राज्यपाल के अनुसार, हाई कोर्ट ने कहा है कि कुलपतियों की नियुक्तियों में राज्यपाल को राज्य सरकार से परामर्श करने की जरूरत है, लेकिन राज्यपाल को वीसी नियुक्ति में राज्य की सहमति की आवश्यकता नहीं है। दूसरी ओर, राज्यपाल का यह भी कहना है कि विश्वविद्यालय से संबंधित कानून में यह नहीं कहा गया है कि एक कुलपति का शिक्षाविद होना अनिवार्य है, किसी को भी अंतरिम वीसी के रूप में नियुक्त किया जा सकता है। मैंने एक पूर्व मुख्य न्यायाधीश और एक सेवानिवृत्त आईपीएस अधिकारी को उनकी योग्यता को देखते हुए कार्यवाहक वीसी के रूप में नियुक्त किया है।

राज्य की मुख्यमन्त्री ममता बनर्जी ने मंगलवार को एक कार्यक्रम के दौरान राज्यपाल पर आरोप लगाते हुये कहा था कि राज्य द्वारा नियुक्त सर्च कमेटी की अनदेखी करके राज्यपाल अपनी इच्छानुसार अंतरिम कुलपतियों की नियुक्ति कर रहे हैं। उन्होंने आगे कहा कि कुलपतियों को 5 सदस्यीय सर्च कमेटी द्वारा सुझाए गए नामों में से चुना जाना चाहिए। इस बात की अवमानना की वजह से मुख्यमंत्री ने राज्यपाल को चुनौती दे दी है कहा है कि बोस, कमेटी के सुझावों की परवाह किए बिना अपनी मर्जी से लोगों की नियुक्त कर रहे हैं। सीएम ने ‘‘जैसे को तैसा’’ के रूप में कार्रवाई का वादा कर राज्यपाल के निर्देशों का पालन करने वाले सभी यूनिवर्सिटीज के फंड रोकने की धमकी दी है। उन्होंने साफ कह दिया है कि मैं भी देखती हूं कि आप (राज्यपाल) इन कुलपतियों को सैलरी कैसे देते हैं।

मुख्यमंत्री की इस चुनौती को राज्यपाल सीवी आनंद बोस ने अपने अहम से जोड़ लिया है और कहा है कि

वह पश्चिम बंगाल के विश्वविद्यालयों से भ्रष्टाचार और हिंसा को मिटा देंगे। उन्होंने कहाहै कि मैं विश्वविद्यालय का चांसलर हूं और मैं चाहता हूं कि हमारे विश्वविद्यालय भारत में सर्वश्रेष्ठ हों। मैं रवीन्द्रनाथ टैगोर के नाम पर और स्वामी विवेकानन्द के नाम पर प्रतिज्ञा कर रहा हूं कि मैं आखिरी क्षण तक इससे लड़ूंगा। दस करोड़ भाई-बहन मेरे साथ हैं, वे चाहते हैं कि परिसर और शिक्षा प्रणाली भ्रष्टाचार से मुक्त हो।

राज्यपाल ने पश्चिम बंगाल सरकार द्वारा नामित उम्मीदवार को नियुक्त करने में असमर्थता के पीछे का कारण बताते हुये कहा कि आप जानते हैं कि मैं राज्य सरकार द्वारा नामित लोगों को अंतरिम कुलपति के रूप में क्यों नियुक्त नहीं कर सका। सच तो यह है, कुछ भ्रष्ट थे, कुछ पर एक छात्रा को परेशान करने का आरोप है, कुछ राजनीति कर रहे हैं। अब आप लोग मुझे बताओ कि क्या अंतरिम वीसी वह होगा जो भ्रष्ट हो? जो किसी छात्रा को परेशान करें? मुझे बताओ, भाइयों और बहनों! इसके साथ उन्होंने सरकार और मुख्यमंत्री पर आरोप लगाया कि उनके द्वारा नियुक्त पांच कुलपतियों को टीएमसी के नेतृत्व वाली राज्य सरकार द्वारा परेशान किया गया था। उन्होंने मुझे बताया है कि टीएमसी के गुंडे उन्हें धमकी दे रहे थे। शिक्षा मंत्रालय उन्हें डरा रहा था। वरिष्ठ आईएएस अधिकारी उन पर दबाव बना रहे थे। यह बात कुलपतियों ने इस्तीफा देने से पहले मुझे बताई थी। मैंने किसी से इस्तीफा देने के लिए नहीं कहा। उन्होंने डर की वजह से इस्तीफा दे दिया।

फ्रंटलाइन के पत्रकार सुहृद शंकर चट्टोपाध्याय ने इस प्रकरण पर लिखा है कि 5 सितंबर को, जब देश ने शिक्षक दिवस मनाया, पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने राज्य विश्वविद्यालयों के अंतरिम कुलपतियों को राज्यपाल सीवी के निर्देशों का पालन करना जारी रखने पर आर्थिक नाकेबंदी की धमकी दी। आनंद बोस, विश्वविद्यालयों के चांसलर। कोलकाता में शिक्षक दिवस कार्यक्रम को संबोधित करते हुए, ममता ने राज्यपाल को चुनौती दी और कहा, आइए देखें कि आप [बोस] किस कॉलेज या विश्वविद्यालय में शिक्षकों को उनका वेतन दे पाएंगे।

सुहृद के अनुसार, इसने बंगाल की शिक्षा प्रणाली की वर्तमान अनिश्चित स्थिति को सामने ला दिया, क्योंकि राज्य और केंद्र के प्रतिनिधि राज्य में उच्च शिक्षा को नियंत्रित करने के लिए एक अनुचित संघर्ष में उलझे हुए थे। चूंकि प्रत्येक ने एक-दूसरे की स्थिति को कमजोर करने की कोशिश की और एक-दूसरे पर आरोप और धमकियां दीं, 31 राज्य संचालित विश्वविद्यालय पांच महीने से अधिक (25 सितंबर तक) स्थायी कुलपतियों के बिना अधर में लटके रहे।

यह पहली बार नहीं है, जब उच्च शिक्षा को लेकर सरकार और राज्यपाल के बीच मतभेद हुआ है। जून 2022 में, पूर्व राज्यपाल और अब भारत के उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने आरोप लगाया था कि सरकार 24 विश्वविद्यालयों में कुलपतियों की नियुक्ति करते समय उचित प्रक्रिया का पालन नहीं कर रही है। सरकार ने कई विधेयकों को पारित करके जवाबी कार्रवाई की, जिसमें राज्य संचालित विश्वविद्यालयों के कुलाधिपति के रूप में राज्यपाल के स्थान पर मुख्यमंत्री को नियुक्त करने की मांग की गई। हालांकि, दोनों कार्यालयों के बीच कटुता इतनी निंदनीय कभी नहीं रही।

प्रत्याशियों के लिए जोर-आजमाइश 2014 से पहले, खोज/चयन समिति में तीन सदस्य होते थे- चांसलर का एक नामित, संबंधित विश्वविद्यालय का एक नामित, और यूजीसी का एक नामित। 2014 में, राज्य सरकार ने, पश्चिम बंगाल विश्वविद्यालय कानून अधिनियम में संशोधन के माध्यम से, यूजीसी नामांकित व्यक्ति को राज्य सरकार के नामित व्यक्ति से बदल दिया। 2022 में समिति में एक यूजीसी नामित व्यक्ति को शामिल करने के सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के जवाब में, राज्य ने इस साल मई में एक अध्यादेश के माध्यम से पांच सदस्यीय खोज/ चयन समिति का प्रावधान किया, जिसमें चांसलर का एक नामित व्यक्ति शामिल होगा (जो होगा) समिति का अध्यक्ष, मुख्यमंत्री का एक नामित, यूजीसी का एक नामित, राज्य सरकार का एक नामित, और पश्चिम बंगाल राज्य उच्च शिक्षा परिषद का एक नामित।

इस पूरे घटनाक्रम को लेकर यह तो स्पष्ट है कि दोनों एक दूसरे के हस्तक्षेप को कमजोर करना चाहते हैं। मामला प्रत्यक्षतः भले ही विश्वविद्यालय का दिखे पर मामता बनर्जी किसी भी कीमत पर भाजपा और संघीय व्यक्ति को विश्वविद्यालय में देखने के लिए तैयार नहीं है वहीं केंद्र सरकार की सोच के अनुसार, काम कर रहे राज्यपाल शिक्षा विभाग में उन लोगों को ज्यादा से ज्यादा संख्या में भरने की फिराक में हैं, जो आरएसएस की विचारधारा या फिर हिदुत्व के एजेंडे को शैक्षिक संस्थानों के माध्यम से आगे बढ़ा सकें। ममता बनर्जी की राजनीतिक पृष्ठभूमि देखने पर साफ दिखता है कि ममता बनर्जी भगवा चेतना को राज्य के शैक्षिक संस्थानों में प्रवेश देने के लिए किसी भी तरह से तैयार नहीं है। उन्होंने राज्यपाल को चुनौती देते हुये कहा है कि

‘वह संविधान की अवज्ञा कर रहे हैं और अपने दोस्तों को राज्य में शैक्षणिक संस्थानों के प्रमुख के रूप में नियुक्त कर रहे हैं। उन्होंने बीजेपी सेल के अध्यक्ष को जादवपुर यूनिवर्सिटी का वाइस चांसलर बना दिया। आप नामांकित हैं और हम निर्वाचित हैं। चुनी हुई सरकार को चुनौती देने की कोशिश मत करो।

राज्यपाल और मुख्यमंत्री के बीच की इस बहस में अब शिक्षा मंत्रालय भी शामिल हो गया है, तो दूसरी ओर राज्यपाल के समर्थन में भी हिंदुवादी संगठन और शिक्षक खुलेआम बोल रहे हैं। मामला निश्चित रूप से एक बार फिर कोर्ट तक जाएगा ही पर तय है कि यह लड़ाई अभी लंबी चलेगी। ममता बनर्जी राज्य की संस्थाओं पर भाजपा समर्थित लोगों को आसानी से स्वीकार नहीं करने वाली हैं। राज्यपाल पर भी केंद्र का दबाव है, इसलिए दोनों होई पक्ष हर तरह की कानूनी सलाह के साथ आगे बढ़ रहे हैं। राज्यपाल तो महज मुखौटे हैं, अप्रत्यक्ष रूप से यह राज्य सरकार और केंद्र सरकार का टकराव है। दोनों एकाधिकार की राजनीति के सरोकार के साथ आगे बढ़ रहे हैं। दोनों हो पक्षों के अपने-अपने राजनीतिक सरोकार हैं, पर इन सब के बीच उच्च शिक्षा का स्तर लगातार गिरता दिख रहा है। ममता बनर्जी ने मुख्यमन्त्री बनने के बाद राज्य में विश्वविद्यालय की संख्या दुगुनी कर दी है। वह राज्य के आखिरी व्यक्ति तक को उच्च शिक्षा से जोड़ने की बात बार-बार दोहराती रही है अब उन्हीं के बनवाए और कुछ पुराने विश्वविद्यालय पर राज्यपाल अपने कुलपति नियुक्त करके राज्य सरकार के हस्तक्षेप को चुनौती देने  तैयारी में दिख रहे हैं।

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