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*स्वतंत्र मिडिया पर सरकारी हमला : डराने की कोशिश, पर डर कोई नहीं रहा*

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      ~ पुष्पा गुप्ता 

इमरजेंसी में इंडियन एक्सप्रेस था अब न्यूजक्लिक है। खबर सिर्फ हिन्दुस्तान टाइम्स में पहले पन्ने पर नहीं है। बाकी सबमें प्रमुखता से छपी है। प्रधानमंत्री की मीडिया हैंडलिंग – अदाणी को छोड़कर न्यूजक्लिक को पैसे मिलने की जांच कराने के उनके निर्णय को अखबारों ने उनकी चुनौती के रूप में ही लिया है और आज छापे की खबर सभी अखबारों में पहले पन्ने पर है। विज्ञापनों से मीडिया को खरीद चुकी सरकार जांच के नाम पर मीडिया संस्थान को परेशान और डराने  धमकाने की कोशिश तो कर ही सकती है।

      खबर यह है कि उससे कोई नहीं डरा। हिन्दुस्तान टाइम्स को अपवाद मान सकते हैं। हालांकि, आजकल तुरंत फल मिलने का रिवाज है। ऐसा कुछ हुआ तो तुरंत फल मिल जाएगा।    

       दस साल में एक प्रेस कांफ्रेंस नहीं करने वाले प्रधान की पहली निर्वाचित सरकार ने गांधी जयंती की छुट्टी वाले लंबे सप्ताहांत के बाद कल मीडिया पर सबसे बड़ा छापा डलवाया था। आज के अखबारों में उसकी खबर कहां कैसे है से लेकर और क्या खबरें हैं, देखना दिलचस्प है।

आइये आपको बताती हूं कि खबरों में क्या मनोरंजक लगा। सबसे पहले तो आज यह खबर ज्यादातर अखबारों में पहले पन्ने पर है। आप इसे सरकार की सफलता या हताशा भरी कार्रवाई के रूप में देखें, सरकार की मनमानी पहले पन्ने पर आ गई है। जो बताया गया है वह यह कि न्यूजक्लिक नामक मीडिया संस्थान से जुड़े 100 ठिकानों पर छापे मारे गये और उसके संस्थापक को गिरफ्तार कर लिया गया है। 

       टाइम्स ऑफ इंडिया में यह खबर लीड है और इंट्रो के अनुसार यूएपीए का मामला दायर किया गया है। आरोप है कि पोर्टल को चीन समर्थक प्रचार के लिए पैसे मिले। आप जानते हैं कि चीन से पैसे लेना गैर कानूनी नहीं है और भारत में चीन का प्रचार करना घोषित तौर पर गैर कानूनी तो नहीं ही है और अगर इसमें राजनीति ढूंढ़ी जाये तो यह कहना कि चीन की राजनीति भारत की राजनीति से अच्छी है या राजनीति के कारण ही चीन या चीन के लोग भारत से बेहतर स्थिति में हैं – गलत या गैर कानूनी नहीं है बशर्ते यह तथ्य हो।

       सरकारें किसी को ऐसा कहने से रोक भले लें, तथ्य नहीं बदलेगा और यह सूचना राजनीति बदल सकती है। इसलिए दबाने का उद्देश्य देशभक्ति नहीं, राजनीति है। 

वही राजनीति जिसे हम 10 साल से झेल रहे हैं और बहुमत के नाम पर थोप दी गई है और हर विरोधी को देश विरोधी साबित करने की कोशिश चल रही है जब मीडिया संस्थान का काम तथ्यों का वर्णन और उसकी प्रस्तुति है। घोषित प्रचार में तो भारत में गलतियां और भ्रामक दावे छपते रहे हैं। ऐसे में अगर चीन से पैसे लिये जा सकते हैं तो मीडिया संस्थान का जो काम है उसमें प्रचार भी किया जा सकता है।

      मैंने ऊपर जिस विशेष प्रचार की चर्चा की वह भी तथ्यात्मक रूप से सही है तो मुझे इसमें कोई बुराई नजर नहीं आती है। तय अदालत को करना है और मेरे ख्याल से इस बार यह भी तय कर दिया जाना चाहिए कि सत्तारूढ़ सरकार ऐसी मनमानी करे तो मीडिया संस्थान अपनी बदनामी या जांच के नाम पर अनावश्यक परेशान किये जाने से कैसे बचे। 

      मीडिया संस्थान या पत्रकार के खिलाफ यूएपीए का मामला बनाना मुश्किल नहीं है इसलिए बन जाने का मतलब साबित हो गया या आरोप सही ही है, दोनों मुद्दा नहीं है। आज टाइम्स ऑफ इंडिया में ही बताया गया है कि 46 लोगों से पूछताछ की गई और इनमें पत्रकार भी हैं।

खबर यह भी है कि कार्रवाई न्यूयॉर्क टाइम्स के आर्टिकल के आधार पर की गई है लेकिन न्यूयॉर्क टाइम्स में ही और भी मामले छपे थे जिनकी चर्चा होती रही है पर उस मामले में किसी कार्रवाई की खबर नहीं है। कहने की जरूरत नहीं है कि सरकार ने बड़ी कार्रवाई की है और सिर्फ इसलिए की गई है क्योंकि यह संस्थान सरकार विरोधी रहा है। वरना दूसरे मामले ज्यादा गंभीर हैं, ज्यादा पैसों का मामला है और इस मामले की तरह खुला या सारवजनिक नहीं है बल्कि छिपाया जा रहा है, सरकारी अफसर से नौकरी में रहते मिलीभगत और रिटायर होने के बाद नौकरी के रूप में भुगतान का मामला प्राथमिक तौर पर नजर आ रहा है। 

       सरकार की घोषणा भ्रष्टाचार दूर करने की थी। चीन के खिलाफ या समर्थन में प्रचार रोकना उसके एजंडा में नहीं था। इसलिए प्राथमिकता जिसे दी जानी चाहिए उसे नहीं दी गई। वहां गड़बड़ी मिलने की संभावना भी है। इसके बावजूद सरकार ने ऐसे मामले में कार्रवाई की है जो पहली नजर में अपराध है ही नहीं और यह मीडिया को हैंडल करने के प्रधानमंत्री के तरीकों में है इसका फायदा या नुकसान भी उन्हें ही होगा।

      हालांकि, चुनाव जीतने के लिए वे अपने घोषित हथकंडे अपनाना नहीं छोड़ रहे हैं और चाहते हैं कि वही हो जो उन्हें ठीक लगता है। इसी कारण छोला उठाकर चल दूंगा कि छवि बनाने के बाद अब तीसरी बार सत्ता में बने रहने के लिए लालायित हैं ताकि कोई उन्हें उनकी गलतियां नहीं बताने लगे। वैसे तो लोकतंत्र में यह आम है।  

मंत्री बैठक में नहीं पहुंचीं 

जहां तक खबरों की बात है, ऐसी हालत में वह बहुत महत्वपूर्ण नहीं है। लेकिन दि हिन्दू में पहले पन्ने पर छपी सिंगल कॉलम की खबर, टीएमसी नेता कृषि भवन से घसीट कर बाहर किये गये।

      इस खबर के अनुसार मंत्री साध्वी निरंजन ज्योति (मैं नहीं जानती , पहली बार नाम पढ़ी हूं) पहले से तय मुलाकात के लिए पहुंचने में नाकाम रहीं। इसके बाद सुरक्षा बलों ने टीएमसी नेताओं को घसीट कर कृषि भवन से बाहर कर दिया। जी20 के समय हमने अतिथि देवो भवः खूब सुना और उसका संघी रूप तथा संबंधित प्रचार खूब देखा।

      इस मामले में एक केंद्रीय मंत्री तय मुलाकात के लिए समय पर नहीं पहुंचता है और बंगाल से आय विरोधी दल के नेताओं को मंत्री के कार्यालय भवन से घसीट कर बाहर निकाल दिया गया। वह तो भला हो जस्टिन ट्रूडो का कि विमान खराब होने के बावजूद उन्हें खदेड़ा नहीं गया है और वैकल्पिक विमान आने तक उन्हें रहने दिया गया। अखबार ने बताया है कि पश्चिम बंगाल के तृणमूल कांग्रेस के नेता केंद्रीय कल्याण योजनाओं के लिए धन जारी करने की मांग पर दिल्ली में हैं और यह मुलाकात इसी सिलसिले में होनी थी पर मंत्री ने मिलने से मना कर दिया।   

इंडियन एक्सप्रेस की खबर के अनुसार चीनी संपर्क वाले धन के स्रोत की ईडी की जांच के बीच पुलिस कार्रवाई हुई और जिनसे पूछताछ हुई उनका कहना है कि सीएएस दिल्ली दंगों और किसान आंदोलन के बारे में पूछताछ की गई। इंडियन एक्सप्रेस ने मुख्य खबर के साथ विपक्षी समूह इंडिया का यह आरोप भी छापा है कि केंद्र सरकार एजेंसियों का उपयोग मीडिया पर दमन के लिए कर रही है। उसने सरकार से कहा है कि वह चिन्ता के वास्तविक मुद्दों पर ध्यान दे और अपनी नाकामियों से ध्यान हटाने के लिए मीडिया पर हमले बंद करे।  

इस बीच प्रधानमंत्री अपने मन की बातों से अखबारों की सुर्खियों में हैं। उन्हें जो समझ में आता है, जैसा वे देखते हैं बोलते हैं उसे सेवक और प्रचारक शीर्षक के रूप में तान देते हैं और उनका काम चल रहा है। अब वे प्रधानमंत्री को मौनमोहन सिंह नहीं कहते हैं और खुद को ऐसा कुछ कहें भी कैसे पर इंडियन एक्सप्रेस ने उनका कहा छापा है। कांग्रेस कहती है, जितनी आबादी उतना हक तो प्रधानमंत्री का सवाल है, क्या बहुसंख्यक हिन्दुओं को सभी अधिकार ले लेने चाहिये?

      कहने की जरूरत नहीं है कि प्रधानमंत्री मामले को अनावश्यक भरमा रहे हैं और एंटायर पॉलिटिकल साइंस की डिग्री वाले को राजनीति की पाठशाला की समझ नहीं है। 

      इस खबर का शीर्षक है, जातिवार जनगणना की मांग पर प्रधानमंत्री ने पूछा. क्या कांग्रेस अल्पसंख्यकों के अधिकार छीन लेना चाहती है? कहने की जरूरत नहीं है कि ये सवाल उससे पूछे जा रहे हैं जो अक्सर प्रेस कांफ्रेंस करता है और तमाम सवालों के जवाब देता है। नरेन्द्र मोदी खुद सवालों के जवाब नहीं देते और चाहते हैं कि दूसरे उनका जवाब दें जबकि जवाब देने के वेतन भत्ते उन्हें मिलते हैं।

      राहुल गांधी जो कह रहे हैं उसका जवाब उनसे मांगा जाएगा वो देंगे और नहीं देंमगे तो चुनाव हारेंगे पर मोदी जी परेशान हैं क्योंकि लग रहा है कि अब अपने ही चालों में घिर गये हैं और फंस चुके हैं। जो भी हो आगे की राजनीति, हारजीत और ईवीएम का काम सब देखने लायक होगा।

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