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महान मार्क्सवादी लेखक सव्यसाची

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मुनेश त्यागी 

     प्रोफेसर श्यामलाल वशिष्ठ को लोग इस नाम से कम ही जानते हैं,वे “सब्यसाची” नाम से प्रसिद्ध हुए और आज अधिकांश लोग उन्हें इसी नाम से जानते हैं। उन्होंने कई वर्ष तक बीएसए कॉलेज मथुरा में अध्यापन किया। अपनी सीधे सच्चे और किसानों, मजदूरों और जनता से जुड़े लेखन के कारण, अपने लेखन के कारण वे छात्र-छात्राओं और शिक्षकों के दिलो-दिमाग पर छा गए थे।

     सव्यसाची एक साधारण व्यक्तित्व के धनी थे। वे मोटे गाढ़े के कपड़े और टायर की चप्पल पहनते थे। बेहद साधारण व्यक्ति थे। उनकी वेशभूषा को देखकर कोई नहीं कह सकता था कि वे एक उच्च कोटि के लेखक और प्रोफेसर हैं। वे एक साधारण से घर में रहते थे हालांकि बाद में उन्होंने अपना मकान बना लिया था।

    वे एक व्यक्ति नही, बल्कि एक महान संस्था थे। मार्क्सवाद के चितेरे थे। उन्होंने मार्क्सवाद को साधारण हिंदी में लिखा और मार्क्सवाद के विचारों से, उसके सिद्धांतों से, लाखों किसानों मजदूरों नौजवानों विद्यार्थियों औरजनता को जिस तरह से अवगत कराया, परिचित कराया, उसे लेकर उनका कोई सानी नहीं था। अपने लेखन के कारण वे अपने जीवन में ही किंवदंती बन गए थे। अपने छात्र-छात्राओं, शिक्षकों के और अपने शिष्यों के तो वे सम्मानीय थे ही, मगर उनकी खूबी यह थी कि अपनी लेखनी से, अपनी बातों से, अपने विचारों से, अपने कमाल के व्यक्तित्व से, वे अपने विरोधियों को, अपने दुश्मनों को भी अपना मित्र बना लेते थे। यह उनकी कमाल की खूबी थी। उन्होंने अपने लेखन से वामपंथी आंदोलन के लिए बहुत सारे छात्र शिक्षक, कार्यकर्ता, लेखक, कवि और नेता पैदा किए हैं।

      उनके जीवन में, शायद ही कोई उनका दुश्मन हो, क्योंकि उनका लेखन इतना विराट था कि सामने वाला उसके सामने दब जाता था। उन्होंने अपनी किताबों को छापने के लिए अपना निजी का “युगान्तर प्रकाशन”  बनाया और इसी नाम से अपनी सारी किताबें छापीं। उनकी पुस्तकें ज्ञान विज्ञान का भंडार थीं। उनकी किताबें इतनी सस्ती थी कि दुनिया का कोई भी आदमी गरीब से गरीब आदमी भी उन्हें खरीद पाने में सक्षम था। उनकी एक और सबसे बड़ी खूबी है थी कि वे अपने लेखकों कवियों मित्रों और कॉमरेडों का पत्राचार द्वारा दिग्दर्शन किया करते थे। उनकी कमियों को इंगित किया करते थे, उनकी अच्छाइयों को बताया करते थे और इस प्रकार उन्हें अच्छा लेखन और कविता करने के लिए हौंसला देते थे और दिशा देते रहते थे। यह उनकी बहुत बड़ी खूबी थी।

     उनकी किताबों का मूल्य जैसे 20 पैसे, 25 पैसे, 30 पैसे, 50 पैसे 75 पैसे, ₹1 दो रुपए और ज्यादा से ज्यादा ₹5। उनसे सस्ता साहित्य अपने जमाने में किसी ने नहीं लिखा। उनकी प्रसिद्धि का एक कारण यह भी था क्योंकि उन्होंने अपने लेखन को पैसा कमाने का जरिया नहीं बनाया बल्कि मार्क्सवाद को प्रचारित प्रसारित करने के लिए एक जरिया बनाया था। वे सस्ते साहित्य के जरिए, समाज में क्रांतिकारी, जनवादी, मार्क्सवादी और समाजवादी परिवर्तन लाना चाहते थे, समाज की क्रांतिकारी कायाकल्प करना चाहते थे। जहां सबको रोटी मिले, शिक्षा मिले, स्वास्थ्य मिले, रोजगार मिले। जहां भूख गरीबी अन्याय शोषण जुल्म और भेदभाव का हमेशा हमेशा के लिए खात्मा कर दिया जाए।

      लोग उन्हें आज भी “मास्साब” कहकर याद करते हैं। सब्यसाची उत्तर प्रदेश जनवादी लेखक संघ के प्रांतीय सचिव रहे, केंद्रीय कमेटी के उपाध्यक्ष रहे। उनकी पुस्तकों का संसार भी कमाल का है। उनकी मुख्य पुस्तकों में,,,, १.समाज को बदल डालो, २.यह सब क्यों?, ३.कम्युनिस्ट क्या चाहते हैं?, ४.r.s.s. को जानिए,५. गांव के गरीबों से,६. नौजवानों से, ७.मार्क्स विशेषांक,८. सांप्रदायिकता विशेषांक, ९.इंदिरा गांधी से दो बातें,११. वामपंथ के अंदरूनी संघर्ष, १२.उत्तरार्ध्द मासिक पत्रिका आदि, उनकी बहुत ही मशहूर पुस्तकें हैं।

      जब हम आईएएस की परीक्षा की तैयारी कर रहे थे और 1980 में हमने आईएएस की प्रारंभिक परीक्षा पास कर ली थी, तब हमारा उनकी किताबों से परिचय हुआ, वह भी एक प्रदर्शन के दौरान। हमने फटाफट उनकी तीन चार पुस्तकें खरीद लीं और उन्हें एग्जाम की तैयारी के दौरान ही पढ डाला। उनकी किताबें पढ़कर हम उनके मुरीद हो गए और हमने उनकी पुस्तकों से ही मार्क्सवाद की एबीसीडी जानी और मार्क्सवाद  और समाजवाद का आरंभिक ज्ञान प्राप्त किया।

     उन्होंने मार्क्सवाद और समाजवाद और साम्यवाद व जनवाद को जिस तरह से साधारण जनता की भाषा में, जनता को अवगत कराया, वह कमाल का था। उनको पढ़ने के लिए किसी डिक्शनरी की या किसी बाहरी इमदाद की कोई जरूरत नहीं होती थी। वह खुद ब खुद समझ में आता चला जाता था। वे एक व्यक्ति नहीं एक संस्था थे, एक विचारधारा थे और इनका उन्होंने कभी भी पीछा नहीं छोड़ा और यह उनके साथ लगे रहे। सव्यसाची मार्क्सवादी पुरोधा थे। मैं केवल लेखन तक ही शामिल सीमित नहीं थे बल्कि वह जन संघर्षों में भी भाग लेते थे मजदूरों किसानों की मीटिंग में जाते थे, उनके जलसे और प्रदर्शनों में शामिल होते थे, उनकी मांगों का समर्थन करते थे। वर्ग संघर्ष में भाग लेने की वजह से ही उनकी किताबें और उनका लेखन और ज्यादा मारक और सजीव हो गया था।

      हमने सबसे पहले सब्यसाची को एक मार्क्सवादी स्कूल के प्रशिक्षण शिविर के दौरान ही देखा था। जहां पर वह अपने कार्यकर्ताओं की क्लास ले रहे थे, उन्हें मार्क्सवाद में निपुण कर रहे थे। हम भी उसी मार्क्सवादी प्रशिक्षण शिविर में शामिल थे। उन्हें मार्क्सवाद और जनवाद की एबीसीडी सिखा रहे थे। वहीं पर उन्होंने कहा था कि जो लोग अपनी पत्नियों को मार्क्सवाद से दूर रखते हैं, मार्क्सवाद की शिक्षाओं से परिचित नहीं कराना चाहते, वे अपने जीवन में सफल मार्क्सवादी चिंतक और कार्यकर्ता नहीं हो सकते। इसलिए उन्होंने कम्युनिस्टों की पत्नियों को शिक्षित करने पर जोर दिया था।

     इसी दौरान हमारी पत्नी भी सव्यसाची के प्रशिक्षण में शामिल हो गई थी और उन्होंने मोटे रूप में मार्क्सवाद की एबीसीडी यहीं हासिल की थी और इसी शिक्षा के कारण आज तक वे हमारी कामरेड जीवनसंगिनी बनी हुई हैं। मार्क्सवाद की लड़ाई में, जीवन के संघर्षों और देश के संघर्षों को आगे ले जाने में रोज हमारी मदद करती हैं, हमारा साथ देती हैं। यह कामरेड सव्यसाची की हमारे परिवार को, हमारे जीवन को, हमारे जीवन दर्शन को, हमारी वैचारिक लड़ाई को सबसे बड़ी देन है।

      आज हम जो कुछ है कामरेड सब्यसाची की शिक्षा, उनकी प्रेरणा और उनकी किताबों की वजह से हैं। वह हमारे सबसे बड़े और सबसे पहले राजनीतिक गुरु हैं। आज भी हम उनकी किताबों को दोहराते रहते हैं। उनकी किताबों का संसार बहुत सुंदर है। लोगों को हम सलाह देंगे कि जहां कहीं भी मिलें, उनकी किताबें जरूर पढ़ना चाहिए। उनको मार्क्सवाद पढने के साथ ही साथ समझ में आता चला जाएगा। उनके अंदर क्रांति और समाजवाद की भाईचारे की समता समानता की लौ जागृत होती चली जाएगी।

      सब्यसाची इंडिया के मार्क्सवाद के हिंदी लेखकों में सर्वोच्च स्थान रखते हैं। आज भी उनका कोई सानी नहीं है। आज हमें पुनः मार्क्सवाद को सीधी और सच्ची भाषा में लिखने के लिए हजारों सव्यसाचियों की जरूरत है। हम तो उन्हीं से सीख कर, उनकी शिक्षा को आगे बढ़ाते हुए जनवादी लेखन में लगे हुए हैं और आज हालत यह हो गई है कि जब तक मार्क्सवाद के प्रचार प्रसार के लिए रोजाना कुछ लेखन न कर लें, हमें अच्छा नहीं लगता है और हमें खाने का मन भी नहीं करता है। इसका श्रेय सबसे ज्यादा का कामरेड सव्यसाची को ही जाता है।

       आज भी वे हमें पल पल पल याद आते हैं और यही हाल उन सब का है जिन्होंने सव्यसाची की किताबें पढ़ी हैं, उनके बातचीत की है, उनके विचार जाने हैं। इस अन्यायी और लुटेरे पूंजीपति और सामंती समाज को बदलने के लिए, आज पुनः सव्यसाची के लेखन को पढ़ने की बहुत जरूरत है। ऐसे महान मार्क्सवादी लेखक को शत शत नमन वंदन और अभिनंदन और हम यही कहेंगे कि,,,, 

स्याह रात में रोशन  किताब  छोड़  गया 

चला गया मगर अपने ख्वाब छोड़ गया।

हजार जब्र हों लेकिन यह बात है अटल 

वो  जहन-जहन में  इंकलाब छोड़  गया।

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