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महान वैज्ञानिक चार्ल्स डार्विन ने बताया बंदर से कैसे बना इंसान?

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 इंग्लैंड में जन्मे चार्ल्स डार्विन के माता-पिता दोनों डॉक्टर थे. वो चाहते थे कि उनका बेटा भी डॉक्टर बने पर चार्ल्स पर तो कुछ और ही धुन सवार थी. वह प्रकृति को समझने का प्रयास कर रहे थे. इसीलिए एक दिन पिता ने आखिर कह दिया कि यह बेटा परिवार की बदनामी कराएगा. हालांकि, हुआ इसका एकदम उलटा.

ज्यादातर सफल माता-पिता की चाहत होती है कि उनकी संतान भी उन्हीं का पेशा अपनाए और विरासत को आगे बढ़ाए. खासकर प्रोफेशनल्स तो ऐसा ही चाहते हैं. कई मामलों में ऐसा भी होता है कि जो माता-पिता चाहते हैं, संतान उसके एकदम विपरीत काम करती है. इस पर उन्हें गुस्सा भी आता है और मुंह से कुछ भी निकल जाता है. दुनिया को बताने वाले कि हम बंदर से इंसान कैसे बने, चार्ल्स डार्विन के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ था.

ता-पिता दोनों डॉक्टर थे और चाहते थे कि उनका बेटा भी डॉक्टर बने पर चार्ल्स पर तो कुछ और ही धुन सवार थी. वह प्रकृति को समझने का प्रयास कर रहे थे. इसीलिए एक दिन पिता ने आखिर कह दिया कि यह बेटा परिवार की बदनामी कराएगा. हालांकि, हुआ इसका एकदम उलटा और चार्ल्स डार्विन को आज पूरी दुनिया महान वैज्ञानिक के रूप में जानती है उनकी जयंती पर जानिए अनेक रोचक किस्से.

आठ साल की उम्र में प्रकृति से जुड़े

चार्ल्स डार्विन का जन्म 12 फरवरी 1809 को इंग्लैंड में हुआ था. उनके पिता रॉबर्ट डार्विन और मां सुसान डार्विन जाने-माने डॉक्टर थे. दोनों चाहते थे कि चार्ल्स भी उनकी ही तरह डॉक्टर बनें. हालांकि, केवल आठ साल की उम्र में चार्ल्स प्रकृति के काफी करीब पहुंच चुके थे और इसका इतिहास जानने-समझने की कोशिश करते रहते थे. 1817 ईस्वी में उन्हें पढ़ने के लिए स्कूल भेजा गया पर उसी साल जुलाई में उनकी मां का निधन हो गया. सितंबर 1818 में उन्हें अपने बड़े भाई के साथ पास के स्कूल में पढ़ने भेजा गया.

मेडिकल की पढ़ाई में नहीं लगता था मन

आगे चलकर माता-पिता की इच्छा का सम्मान करते हुए 1825 की गर्मी में चार्ल्स ने अपने पिता के साथ गरीबों के इलाज के दौरान अप्रेंटिस शुरू कर दी. वह गरीबों के इलाज में पिता की मदद करते थे. अक्तूबर 1825 में चार्ल्स को बड़े भाई एरासमस के साथ मेडिकल की पढ़ाई के लिए यूनिवर्सिटी ऑफ एडिनबर्ग मेडिकल स्कूल भेजा गया. वहां चार्ल्स को मेडिकल के लेक्चर एकदम नीरस लगते थे और सर्जरी से तो उनका दिल घबराने लगता था.

इसके कारण वह पढ़ाई की अनदेखी करने लगे. इस दौरान उन्होंने टैक्सी डर्मी की पढ़ाई 40 दिनों में रोज एक-एक घंटे के लंबे सेसन के दौरान जॉन एडमॉन्स्टोन से की थी.

नेचुरल हिस्ट्री के समूह से जुड़ गए

यूनिवर्सिटी में अपनी पढ़ाई के दौरान दूसरे ही साल चार्ल्स ने छात्रों के नेचुरल हिस्ट्री से जुड़ा एक समूह प्लिनियन सोसाइटी को ज्वाइन कर लिया. इसमें विज्ञान की पारंपरिक अवधारणाओं को अपने भाषणों के जरिए छात्र चुनौती देते थे. इस दौरान चार्ल्स ने मैरीन इनवर्टिब्रेट्स की लाइफ साइकिल और एनाटमी की खोज में रॉबर्ट एड्मंड ग्रांट की मदद की और 27 मार्च 1827 को प्लिनियन सोसाइटी में अपनी खुद की खोज प्रस्तुत की, जिसमें कहा कि ओइस्टर शेल्स में पाया जाने वाला काला धब्बा वास्तव में स्केट लीच का अंडा है.

Charles Darwin Picture

चार्ल्स डार्विन ने समझाया कि बंदरों की एक प्रजाति ओरैंगुटैन का एक बेटा पेड़ पर रहने लगा, तो दूसरा जमीन पर, इससे बदलाव शुरू हुआ.

पिता ने बीए करने भेज दिया

उधर, चार्ल्स द्वारा मेडिकल की पढ़ाई की अनदेखी देखकर उनके पिता ने एक दिन कहा कि तुम्हें चूहों को पकड़ने और शिकार करने के अलावा किसी और चीज की परवाह ही नहीं है. इस तरह से तो तुम अपनी ही नहीं, बल्कि पूरे खानदान की बदनामी करा कर रहोगे. गुस्सा होकर पिता ने उन्हें जनवरी 1828 में कैंब्रिज के क्राइस्ट कॉलेज में बैचलर ऑफ आर्ट्स की पढ़ाई के लिए भेज दिया. हालांकि चार्ल्स कैंब्रिज के ट्रीपोस एग्जाम को पास नहीं कर पाए और उन्हें साधारण डिग्री कोर्स ज्वाइन करना पड़ा.

चार्ल्स डार्विन जून 1831 तक कैंब्रिज में रहे और नेचुरल थियोलॉजी ऑर एविडेंस ऑफ द एग्जिस्टेंस एंड एट्रीब्यूट्स ऑफ द डायटी को पढ़ डाला, जिसका प्रकाशन पहली बार 1802 ईस्वी में हुआ था. इसके बाद उन्होंने जॉन हर्शेल की नई किताब प्रिलिमिनरी डिस्कोर्स ऑन द स्टडी ऑफ नेचुरल फिलॉस्फी का अध्ययन किया, जिसका प्रकाशन 1831 ईस्वी में ही हुआ था.

जहाज की यात्रा ने मदद की

दिसंबर 1831 की बात है, तब तक चार्ल्स 22 साल के हो चुके थे. उन्हें बीगल नाम के जहाज से दुनिया में दूर-दूर तक जाने और उसे देखने-समझने का मौका मिला. इस दौरान जहां-जहां रास्ते में जहाज रुका, वहां-वहां उतरकर चार्ल्स ने जीव-जंतुओं, पेड़-पौधों, पत्थरों-चट्टानों और कीट-पतंगों को देखा और नमूने इकट्ठा करने लगे. इस तरह से कई सालों तक वह काम करते रहे. इसके बाद चार्ल्स ने बताया कि इस धरती पर जितनी भी प्रजातियां हैं, वे वास्तव में मूल रूप से एक ही जाति से उत्पन्न हुई हैं. वक्त और परिस्थितियों के साथ-साथ इन्होंने खुद में बदलाव किया और अलग-अलग प्रजातियां बनती चली गईं.

नवंबर 1859 में पहली बार सामने आई थ्योरी

24 नवंबर 1859 को चार्ल्स डार्विन की एक किताब प्रकाशित हुई, जिसका नाम है ‘ऑन द ओरिजन ऑफ स्पेशीज बाय मीन्स ऑफ नेचरल सिलेक्शन.’ इसी किताब में एक अध्याय है, थ्योरी ऑफ इवोल्यूशन. इसी में चार्ल्स ने बताया था कि किस तरह से हम बंदर से इंसान बने. चार्ल्स का मानना था कि सभी इंसानों के पूर्वज एक ही थे. उनका कहा था कि हमारे पूर्वज बंदर थे और उनमें से कुछ बंदर जब अलग-अलग जगह पर अलग-अलग तरीके से रहने लगे तो जरूरत के हिसाब से उनमें बदलाव आने लगे.

यही बदलाव बाद की पीढ़ियों में सामने आया. चार्ल्स डार्विन ने समझाया कि बंदरों की एक प्रजाति ओरैंगुटैन का एक बेटा पेड़ पर रहने लगा, तो दूसरा जमीन पर. अब जमीन पर रहने वाले बेटे ने अपने आप को जिंदा रखने के लिए नई-नई कलाएं सीखीं. वह खड़ा होने लगा. दो पैरों पर चलने लगा और दो हाथों का उपयोग अन्य कामों में करने लगा. पेट भरने के लिए उसने खेती और शिकार करना सीखा. इसी प्रक्रिया में ओरैंगुटैन बंदर का एक बेटा इंसान बन गया. उन्होंने यह भी बताया कि यह बदलाव एक-दो सालों में नहीं आया. इसमें करोड़ों साल लगे थे. बाद में इसी थ्योरी की वजह से चार्ल्स डार्विन को पूरी दुनिया में पहचान मिली.

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