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हरियाणा चुनाव…..कांग्रेस को अपनी भूल दोहराने की आदत है

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उपेंद्र चौधरी

“क्विल्स मैंग्ड डे ला ब्रियोचे”। यह एक मशहूर फ़्रांसीसी वाक्य है,जिसका अर्थ है-जब रोटी नहीं है,तो वे केक क्यों नहीं खाते। फ़्रांस का यह वाक्य पूरी दुनिया में एक मिथक और मुहावरे की तरह इस्तेमाल होता है। जिस साल संयुक्त राज्य अमेरिका आज़ादी के मुहाने पर था, फ़्रांस अपने शासक के शासकीय अक्षमता से परेशान था और वहां के आम लोग भोजन पाने के बुनियाद संकट से बेतरह दो-चार थे। उस समय फ्रांस के राज थे-लुई सोलवां और उनकी पत्नी थीं- रानी मैरी-एंटोनेट।

एंटोनेट ने उस समय कथित तौर पर यह बात कही थी जब उसे बताया गया था कि किसानों के पास रोटी नहीं है। कथित तौर पर इसलिए, क्योंकि इतिहास में इसका कोई साक्ष्य नहीं है। यह वाक्य असल में दार्शनिक जीन-जैक्स रूसो की पुस्तक कंफेशंस में एक ऐसी महिला से कहलवाया गया है, जो कुलीन है, प्रचुरता में जीने वाली एक ऐसी क्वीन, जो हक़ीक़त से अनजान है। रूसो ने यह किताब 1766 के आसपास लिखी थी। उस समय मैरी एंटोनेट की उम्र महज़ 11 साल की थी, जबकि 1770 में 14 साल की उम्र में उसकी शादी लुई सोलहवें से हुई थी। ज़ाहिर है रूसो ने यह वाक्य लुई सोलहवें की क्वीन के लिए तो बिल्कुल नहीं कही होगी। मगर, साहित्य और दर्शन होने वाली घटना को भांप लेते हैं।

क्वीन एंटोनेट स्वभाव से कोमल और और मिज़ाज से मस्त थी। उसने अपने महल में उन तमाम ऐश्वर्य की व्यवस्था कर रखी थी,जो किसी रानी की भव्यता को आम प्रजा तक ले जाता है। उसे नहीं मालूम था कि महल के भीतर की हक़ीक़त क्या है। चूंकि जीन-जैक्स रूसो की किताब कंफेशंस में हक़ीक़त से अनजान कुलीन महिला पात्र से जो बात कहलवायी गयी है, वह मैरी-एंटोनेट पर पूरी तरह फिट बैठती है। इसलिए, “क्विल्स मैंग्ड डे ला ब्रियोचे”, यानी कि जब रोटी नहीं है, तो वे (लोग) केक क्यों नहीं खाते, यह वाक्य मैरी-एंटोनेट के मुंह में ठूंस दिया गया एक ऐतिहासिक मुहावरा बन गया।

आज भी जब आर्थिक, राजनीति, सामाजिक और पारिवारिक वास्तविकताओं से अनजान होकर टिप्पणी करने वाले या रणनीति बनाने वाले किसी शख़्स, संस्था या संगठन को परिस्थिति से असंगत ठहराने के लिए सटीक अभिव्यक्ति की आवश्यकता होती है,तो कह दिया जाता है-“क्विल्स मैंग्ड डे ला ब्रियोचे”। अर्थात् -जब रोटी नहीं है,तो वे केक क्यों नहीं खाते !

हरियाणा चुनाव, चुनाव में अपनायी गयी रणनीति और सामने आये परिणाम को अगर कांग्रेस के संदर्भ में एक वाक्य में अभिव्यक्त किया जाए, तो उसी फ्रेंच मुहावरे का सहारा लिया जाएगा -“क्विल्स मैंग्ड डे ला ब्रियोचे”। अर्थात् -जब रोटी नहीं है, तो वे केक क्यों नहीं खाते !

कांग्रेस ने जुलाना सीट से विनेश फ़ोगाट को खड़ा किया। विनेश एक साथ कई अस्मिताओं का प्रतीक बन गयी थीं-महिला पहलवानों के साथ हुए भेदभाव का प्रतीक, जाट समाज में महिला अस्मिता का प्रतीक और हरियाणा के राज्य स्तर पर एक महिला खिलाड़ी के साथ निष्ठुर व्यवहार का प्रतीक। मगर, लगभग 70 प्रतिशत इस जाट बहुल विधानसभा क्षेत्र से विनेश महज़ 6 हज़ार वोटों से जीत दर्ज कर सकी। बीजेपी अपनी हार के मार्जिन को बहुत ही कम कर गयी। पिछली बार वह बड़ी मार्जिन से हारी थी।

जलेबी की फ़ैक्ट्री लगाने की बात राहुल गांधी ने गोहाना में कही थी। यह बयान वायरल हो गया था। मगर, गोहाना का रिज़ल्ट कांग्रेस के सिर्फ़ ख़िलाफ़ ही नहीं गया, बल्कि 19 साल बाद यहां से बीजेपी ने अपनी जीत दर्ज कर डाली।

10 साल पहले कांग्रेस ने हरियाणा में अपनी सत्ता गंवा दी थी और इसका ज़िम्मेदार भूपेंद्र हुड्डा को ठहराया गया था। हुड्डा की छवि रोहतक के मुख्यमंत्री की बन गयी थी। हुड्डा जाटों की उस छवि का भी प्रतीक बन गये थे, जिसकी मनमानी से हरियाणा की बाक़ी जातियां त्रस्त रही हैं। हुड्डा कांग्रेस की तरफ़ से एक बार फिर मुख्यमंत्री के उम्मीदवार बना दिए दिए, जबकि बीजेपी ने अलोकप्रिय हो चुके अपने मुख्यमंत्री मनोहरलाल खट्टर को हटाकर एकदम से फ़्रेश चेहरा नायब सिंह सैनी को सामने रख दिया था।

संसदीय चुनाव में जिस तरह बीजेपी की सीट घट गयी थी, उससे स्वयं प्रधानमंत्री मोदी को यह खटका लगा था कि हरियाणा में उनका चुनाव प्रचार रिज़ल्ट पर नाकारात्मक प्रभाव डाल सकता है। लिहाज़ा चार चुनावी रैलियों के बाद वह पांचवीं रैली में कभी नज़र नहीं आए। जबकि हुड्डा की हनक-चुनाव प्रचार से लेकर प्रत्याशियों के सेलेक्शन तक-हर स्तर पर दिखती रही।

बीजेपी अपने कार्यकर्ताओं के ज़रिए यह मैसेज़ देने में सफल रही कि हुड्डा अगर सत्ता में आये, तो फ़िर नौकरियों में जाटों की पर्ची कटेगी, पैसों के बदले नौकरियां रेवड़ी की तरह बंटेंगी। दलितों को 2005 में हुए गोहाना और 2010 के मिर्चपुर कांड की याद दिलायी गयी। ये दोनों ही कांड हुड्डा के मुख्यमंत्री रहते हुए ही हुए थे।

क्या था 2010 का मिर्चपुर कांड

मिर्चपुर हरियाणा के हिसार ज़िले का एक गांव है, जहां दलितों की एक बस्ती थी। गांव में अधिकतर वाल्मीकि समाज के लोगों के घर थे। दलित बस्ती से गुज़र रहे दबंग समुदाय के दामाद पर कुत्ते ने महज़ भौंक दिया था। दामाद जी तमतमा गए थे और बात का बतंगड़ बन गया था। दबंगों ने दलित बस्ती में आग लगा दी और लपलपाती आग में 70 साल के बुज़ुर्ग ताराचंद तथा उनकी दिव्यांग बेटी को झोंक दिया गया था। दोनों जलकर खाक हो गए थे। उस अगलगी में लगभग 52 लोग झुलस गये थे।

क्या था 2005 का गोहाना कांड

सोनीपत का यह वही गोहाना है, जहां राहुल गांधी का दिया गया जलेबी वाला बयान वायरल हो गया था। 2005 में यहां दलितों के 50 घर जला दिए गए थे। आरोप एक बार फिर जाट समुदाय के लोगों पर लगे थे। माना जाता है कि वाल्मीकि बस्ती के पास के घड़वाल गांव के युवक बलजीत सिंह सिवाच की उसी के ऑफ़िस में बेरहमी से हत्या कर दी गई थी। प्रतिक्रिया 30 अगस्त को आयी। अनियंत्रित भीड़ ने पूरी की पूरी वाल्मीकि बस्ती को ही आग के हवाले कर दिया। चूंकि वाल्मीकि बस्ती के लोगों को इसकी भनक पहले ही लग चुकी थी। इसलिए वे सबके सब बस्ती ख़ाली कर कहीं और पलायन कर गये थे। बाद में इस मामले में सुबूत नहीं होने और गवाहों के पलट जाने के कारण सीबीआई की स्पेशल कोर्ट ने तमाम 11 आरोपियों को बरी कर दिया था।

बीजेपी ने इन दोनों कांडों में हुए आतंक की याद को भूपेंद्र हुड्डा से जोड़ दिया और एक-एक दलित बस्तियों-गांवों तक मैसेज पहुंचाने में सफल रही। आतंक का यह डर आरक्षण और संविधान को लेकर दिखाये गए डर के सामने ज़्यादा विराट और ख़ौफ़नाक़ दिखा।

गोहाना और मिर्चपुर के डर के उन तारों को सिर्फ़ प्रधानमंत्री ने ही नहीं छेड़ा, बल्कि हर स्तर के नेता से लेकर कार्यकर्ताओं तक ने दलित बस्तियों में पहुंचाया। बीजेपी के ख़िलाफ़ सत्ता विरोधी लहर जाटों से दलितों और पिछड़ों को दिखाये गए डर के सामने बौनी होती चली गयी। अगर हुड्डा न होते, तो शायद परिणाम थोड़े अलग होते। आश्चर्य है कि आख़िरी समय में बीजेपी ने हक़ीक़त को पहचानते हुए प्रधानमंत्री के प्रिय मुख्यमंत्री तक को बदलने में हिचक नहीं दिखायी, लेकिन कांग्रेस हुड्डा की पालकी ढोने से ख़ुद को बचा नहीं पायी।

सवाल है कि क्या कांग्रेस ज़मीनी वास्तविकताओं से कट गयी है। हरियाणा का चुनाव परिणाम तो यही संकेत देता है। तो क्या कांग्रेस के शीर्ष नेता लुई सोलहवें की पत्नी उस क्वीन मैरी-एंटोनेट की तरह कहीं वास्तविकता से अनजान तो नहीं, जहां खाने को रोटी तक नहीं है, मगर भूख से बिलबिलाये आम लोगों को वह केक खाने की हिदायत दे रही थी। “क्विल्स मैंग्ड डे ला ब्रियोचे”। यानी-जब रोटी नहीं है, तो वे केक क्यों नहीं खाते !

सियासत और आम ज़िंदगी में विरोधियों से भी सीखना एक कला है। लगता है कि कांग्रेस को यह कला सीखने से गुरेज़ है या अपनी भूल को दोहराने की आदत है, क्योंकि हरियाणा अकेले ऐसा उदाहरण नहीं है, ऐसे कई चुनाव परिणाम हैं, जिन्हें बीजेपी ने कांग्रेस के मुंह से निकाल लिया है।

(उपेंद्र चौधरी स्वतंत्र पत्रकार हैं)

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