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क्या सियासी टकटकी का केंद्र बना बंगाल चुनाव…?

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 सज्जाद हैदर

सियासत एक ऐसी प्रयोगशाला है जिसमें तमाम राजनेता अपना-अपना करतब बखूबी दिखाते हैं। सियासत की सधी हुई तस्वीर को नेतागण प्रतिदिन नए सिरे से गढ़ने का भरपूर प्रयास करते हैं। क्योंकि राजनीति की दुनिया में सभी नेता अपनी-अपनी योजना के अनुसार सत्ता की कुर्सी की परिकरमा के लिए सब कुछ कर गुजरने के लिए आतुर रहते हैं। यह अलग बात है कि पर्दे के पीछे से गढ़ी हुई सियासत में कोई प्रत्यक्ष रूप से सत्ता की कुर्सी पर पहुंचने का प्रयास करता है तो कोई रणनीति के अंतर्गत परोक्ष रूप से। लेकिन पूरा समीकरण सत्ता की कुर्सी को ही ध्यान में रखकर गढ़ा जाता है। जिसका रूप बड़ी ही बारीक नज़रों से ही देखा जा सकता है। क्योंकि सियासत की दुनिया में गढ़ा हुआ समीकरण पूर्ण रूप से बहुत ही सधा हुआ होता है। जोकि मंझे हुए सियासी महारथियों के द्वारा गढ़कर तैयार किया जाता है। देश की जनता धरातल पर सभी दृश्यों को दर्शक बनकर मात्र निहारती रहती है। क्योंकि इस गढ़े हुए समीकरण में जनता का कहीं दूर-दूर तक किसी भी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं होता। लेकिन खास बात यह है कि गढ़े हुए सभी समीकरणों बड़ी चतुराई से राजनेताओं के द्वारा जनता के सिर के ऊपर रणनीति के तहत पूरी तरह से थोप दिया जाता है।
वर्तमान समय में देश की राजनीति में बड़ी तीव्रता के साथ बदलाव की आहट महसूस की जा रही है। क्योंकि देश की राजनीति ने पिछले दशक से जिस प्रकार से जातीय आधार पर अपने पैर पसार लिए हैं उसे नकार नहीं जा सकता। क्योंकि राजनीति के गढ़े हुए ढ़ाँचे का रूप जिस प्रकार से देश में अपने पैर पसार रहा है वह प्रत्येक स्थानों पर दिखाई दे रहा है। गाँव की चौपालों से लेकर चकाचौंध भरे महानगरों के बंगलों तक। प्रत्येक स्थानों पर जातीय आधार पर मतों का आंकलन किया जाना अब साधारण विषय हो चुका है। देश की बदलती हुई राजनीति अब पूरी तरह से जातीय आधार पर गढ़ी जाने लगी है। मतदाताओं को अपने ओर आकर्षित करने के लिए नीति-नीयत एवं कार्यों से दो कदम आगे बढ़कर जातीय आधार पर साधे जाने का भरसक प्रयास किया जाता है। इसी कड़ी में तीव्रता के साथ देश की बदलती हुई राजनीति में एक और नया अध्याय जुड़ता हुआ दिखाई दे रहा है। क्योंकि बिहार के चुनाव से लेकर हैदराबाद के चुनाव तक। अगर सभी चुनावी दृश्यों को पैनी नज़र से देखा जाए तो देश की अंदर एक नई सियासत की रूप रेखा गढ़ती हुई दिखाई दे रही है। जिस प्रकार से बिहार के चुनाव में उभरकर परिणाम आए हैं वह साफ एवं स्पष्ट संदेश देते हुए दिखाई दे रहे हैं जिसकी पुष्टि हैदराबाद के चुनाव ने भी कर चुका है। इसी कारण मौजूदा सियासी टकटकी का केंद्र पश्चिम बंगाल बन चुका है। जिस पर देश के सभी सियासी विशेषज्ञों की नजरें टिकी हुई हैं। क्योंकि बंगाल के चुनाव से भविष्य की सियासी तस्वीर का चेहरा पूरी तरह से साफ हो जाएगा। क्योंकि यह एक ऐसी नई तस्वीर होगी जिससे के देश की कई राजनीतिक पार्टियों का भविष्य भी खतरे में पड़ना तय माना जा रहा है। क्योंकि जातीय आधार पर अपना वोट बैंक समझने वाली पर्टियों को भारी झटका लग सकता है। क्योंकि जातीय आधार पर फिर से नए समीकरणों को गढ़ना इतना सरल नहीं होगा। इसलिए राजनीति में उन सभी सियासी योद्धाओं को भारी संघर्ष करना तय माना जा रहा है जोकि अबतक जातीय आधार पर सियासी रोटियों को सेंक रहे थे। इसलिए नई सियासत का पहला पड़ाव बंगाल का चुनाव माना जा रहा है। क्योंकि नई सियासत ने जिस प्रकार से बिहार एवं हैदराबाद की धरती को अपनी प्रयोगशाला बनाकर परीक्षण किया है। उसका अगला पड़ाव बंगाल का चुनाव है। जिसकी सियासी रस्साकशी भी शुरू हो चुकी है।
ओवैसी बनाम ममता का जिस प्रकार से रूप बंगाल के चुनाव में दिखाई दे रहा है। वह कई राजनीतिक पार्टियों के लिए किसी खतरे की घंटी से कम नहीं है। ममता बनर्जी को जिस प्रकार से मतदाओं को अपने पाले में करने के लिए कठिन संघर्ष करना पड़ रहा है वह किसी से भी छिपा हुआ नहीं है। ममता बनर्जी जिस प्रकार से धर्मगुरुओं को आधार बनाकर डायमेज कंट्रोल करने की कोशिश कर रही हैं वह पूरी तरह से साफ दिखाई दे रहा है। अतः धर्म गुरुओं को आधार बनाकर वोट बैंक को एक जुट करने का प्रयास कितना सफल होगा इसकी तस्वीर परिणाम के बाद ही पूरी तरह से साफ हो पाएगी। लेकिन उथल-पुथल एवं उहापोह की स्थिति से सभी सियासी पार्टियों की घंटी बजना स्वाभाविक है।
एआईएमआईएम चीफ असदउद्दीन ओवैसी को बड़ा झटका देने की कोशिश में ममता ने राज्य के पार्टी प्रदेशाध्यक्ष एसके अब्दुल कलाम को तृणमूल कांग्रेस में शामिल किया जिससे की बंगाल के मतदाताओं में साफ संदेश जाए कि ममता मजबूती के साथ चुनाव में टिकी हुई हैं। लेकिन यह संदेश कितनी दूर तक जाएगा यह तो भविष्य ही तय करेगा। एक बात तो साफ है कि ममता के डायमेज कंट्रोल प्रोग्राम से बंगाल का सियासी हवा तेजी के साथ गर्म हो रही है। क्योंकि ममता जिस प्रकार से ओवैसी को झटका देने का प्रयास कर रही हैं वह बहुत दूर तक सियासत की दुनिया में साफ संकेत माना जा रहा है। क्योंकि पश्चिम बंगाल के चुनाव में असदुद्दीन ओवैसी की एंट्री राजनीतिक समीकरण के आधार पर अहम है। लेकिन ममता इसे लगातार कमजोर करने के लिए लग चुकी हैं। जिसमें टीएमसी ने इमाम एसोसिशन का भी सहारा लिया। जिसमें इमाम एशोसिएशन ने ममता के लिए चुनाव में उतरकर सहयोग के संकेत भी दिए हैं। लेकिन यह भी कितना कारगर साबित होगा यह भी भविष्य के गर्भ में है। इसका मुख्य कारण यह है कि अभी हाल ही में असदुद्दीन ओवैसी दरगाह पहुँचे थे जिसमें उन्होंने प्रभावशाली मुस्लिम धर्मगुरु अब्बास सिद्दीकी से मुलाकात की थी सिद्दीकी से मुलाकात कर ओवैसी ने चुनावी बिगुल के बड़े संकेत दिए थे। इसलिए इमाम एसोशिएशन का मुद्दा धर्म गुरू बनाम धर्म गुरू की काट के रूप में देखा जा रहा है।
अतः जिस प्रकार से राजनीति की नई प्रयोगशाला गढ़ी जा रही है उससे देश की कई सियासी पार्टियों की नींदें उड़ना स्वाभाविक है। यह अलग बात है कि किस क्षेत्र का नंबर पहले आता है और किस क्षेत्र का नंबर बाद में आता है। क्योंकि बदलते हुए सियासी समीकरण से कई राजनीतिक पार्टियों को अपने जनाधार के खिसकने का डर अभी से ही सताने लगा है। बात करते हैं अगर उत्तर प्रदेश की तो उत्तर प्रदेश की सियासत में भी ओवैसी ने अपनी रणनीति के अंतर्गत सियासी जमीन को तलाशना आरंभ कर दिया है। जिसमें मोर्चे से लेकर गठबंधन तक की रूप रेखा अभी से दिखाई देना आरंभ हो गई। इसलिए अब यह कहना शायद गलत नहीं होगा कि इस बार का बंगाल चुनाव राजनीति की नई यात्रा तय करता हुआ दिखाई दे रहा है। क्योंकि अगर औवैसी बिहार और हैदराबाद की तर्ज पर बंगाल के वोट बैंक में सेंध लगाने में सफल हो जाते हैं तो इसका प्रभाव निश्चित ही कई प्रदेशों की राजनीति पर सीधा-सीधा पड़ना तय माना जा रहा है। राजनीति के जानकार तो यहाँ तक कहते हैं कि अगर ओवैसी की पार्टी ममता के वोट बैंक में सेंध लगाने में सफल हो जाती है तो इसका सीधा असर उन पार्टियों पर पड़ेगा जोकि भाजपा के विरोध में खड़े होकर प्रदेशों में राजनीति चमका रही थीं। खास करके उत्तर प्रदेश दिल्ली असम बिहार सहित कई प्रदेशों की राजनीति में उलटफेर होना आरंभ हो जाएगा।
उत्तर प्रदेश की राजनीति में सपा एवं बसपा दोनो पार्टी दशकों से राजनीति के मुख्य केंद्र में रहती आई हैं। लेकिन औवैसी के प्रवेश से इन पार्टियों का नुकसान होना स्वाभाविक है। इसलिए बंगाल का चुनाव देश की राजनीति में उन सभी पार्टियों के सियासत का भविष्य तय कर देगा जोकि जातीय आधारित वोट बैंक की अब तक राजनीति करती आई हैं। जिसका सियासी लाभ ओवैसी तथा भाजपा को सीधा-सीधा होना तय है। जिससे कि तमाम तरह की सियासी पार्टियों का पतन होना तय भी तय माना जा रहा है। क्योंकि जातीय समीकरणों को फिर से नए स्तर से गढ़ना इतना सरल नहीं होगा। इसीलिए बंगाल का इस बार का चुनाव पूरे देश की सियासी टकटकी का केंद्र बन गया है। जिस पर सभी राजनेता एवं विशेषज्ञ अपनी पैनी नजरों को गड़ाए हुए हैं।

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