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क्या चुनाव नतीजों ने चार जून को जगी उम्मीदों पर पानी फेर दिया है?

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सत्येंद्र रंजन

क्या हरियाणा और जम्मू-कश्मीर के चुनाव नतीजों ने चार जून 2024 को जगी उम्मीदों पर पानी फेर दिया है? चार जून को लोकसभा चुनाव के नतीजे आए, तो उनसे संकेत मिला था कि आखिरकार भारतीय मतदाताओं के एक बड़े हिस्से ने अब सांप्रदायिक या जातीय पहचान की दमघोंटू सियासत से बाहर निकलने और रोजी-रोटी के बुनियादी सवालों पर राजनीतिक निर्णय देने की शुरुआत कर दी है।

तब भारतीय जनता पार्टी की हिंदुत्व का ओवरडोज देने की रणनीति कई राज्यों में विपरीत परिणाम देती नजर आई थी। उन राज्यों में हरियाणा भी शामिल था, जहां 2019 की तुलना में भाजपा के वोट भी घटे और सीटें भी। हालांकि मतदान प्रतिशत के लिहाज से कांग्रेस 44 प्रतिशत वोट के साथ फिर भी भाजपा से दो फीसदी पीछे रही, लेकिन सीटें उसने भाजपा के बराबर यानी पांच जीत लीं। 

लोकसभा चुनाव के बाद हुए कुछ उपचुनाव नतीजों से भी यही संकेत मिला था। इसलिए आठ अक्टूबर को (जिस रोज हरियाणा और जम्मू-कश्मीर विधानसभा चुनाव के नतीजे आए) निगाहें इस पर टिकी थीं कि क्या उपरोक्त संकेत अब एक रुझान बनता हुआ दिखेगा? लेकिन ऐसा नहीं हुआ।

इन चुनाव नतीजों ने फिर से राजनीतिक कथानक को सांप्रदायिक और जातीय गोलबंदी पर केंद्रित कर दिया है। हरियाणा और जम्मू-कश्मीर घाटी के चुनाव नतीजों की व्याख्या उचित ही इन्हीं गोलबंदियों से संबंधित शब्दावली में की जा रही है। अगर यही गोलबंदियां चुनावों में निर्णायक हैं (या आगे रहेंगी), तो कहा जा सकता है कि इस राजनीति में फिलहाल भाजपा का कोई तोड़ नहीं है।

हरियाणा में भाजपा 2019 की तुलना में अधिक सीटों और वोट प्रतिशत के साथ सत्ता में लौट आई है। इस तरह लगातार तीसरी बार इस राज्य में सरकार बनाने का उसने रिकॉर्ड बनाया है। उसकी जीत के जो कारण समझे गए हैं, उनमें जातीय समीकरण की बेहतर रणनीति सबसे प्रमुख है। मसलन,

  • भाजपा जाट समुदाय के खिलाफ गैर-जाट गोलबंदी करने में सफल रही। 
  • ओबीसी सैनी समुदाय के एक अपेक्षाकृत कम चर्चित नेता को मुख्यमंत्री बना कर उसने जो दांव चला, वह कारगर रहा। 
  • ओबीसी और दलित जातियों के एक बड़े हिस्से में वह जाटों से पुराने सामाजिक बैर की याद ताजा कराने में सफल रही। 
  • दलित जातियों के अंदर वर्गीकरण के सुप्रीम कोर्ट के हालिया फैसले पर अमल का इरादा जता कर उसने बाल्मीकि, धानक, मजहबी सिख, खटिक आदि दलित जातियों को अपने पक्ष में लाने में वह कामयाब हो गई। 
  • कांग्रेस ने सारा दांव जाट समुदाय पर लगाया, जो हानिकारक साबित हुआ। यहां तक कि कई जाट बहुल सीटों को भी गैर जाट ध्रुवीकरण के कारण उसे गंवाना पड़ा। 
  • कांग्रेस ने जातीय जनगणना और आरक्षण की सीमा बढ़ाने जैसे वादे जरूर किए, लेकिन विभिन्न ओबीसी एवं दलित जातियों को संगठन के अंदर तथा टिकट बंटवारे में प्रतिनिधित्व देने में वह पिछड़ गई। 

यह अवश्य ध्यान में रखना चाहिए कि राज्य में बहुसंख्या गैर-जाट जातियों की ही है। भाजपा ने अपने उभार के मौजूदा दौर में अपनी रणनीति हमेशा इन जातियों के इर्द-गिर्द बनाई है। ऐसे में उसे पराजित तभी किया जा सकता था, जब विमर्श जातीय समीकरण से हटता। मगर किसी ने इसका प्रयास ही नहीं किया। 

कांग्रेस ने भी हाल के वर्षों में अपने को लगभग पूरी तरह जातीय विमर्श में समेट दिया है। जातीय जनगणना कांग्रेस नेता राहुल गांधी का सर्व प्रमुख मुद्दा बना हुआ है। मगर इस विमर्श के अनुरूप जमीन पर रणनीति बनाने की कांग्रेस में भाजपा जैसी क्षमता या इच्छाशक्ति नहीं है। नतीजतन, जब कभी चुनावी राजनीति में यह ध्रुवीकरण निर्णायक होता है, कांग्रेस की हार होती है। 

जम्मू-कश्मीर के चुनाव नतीजों पर गौर करें, तो वहां भी पहचान आधारित ध्रुवीकरण निर्णायक साबित हुआ दिखता है। वहां सांप्रदायिक एवं जाति के अलावा क्षेत्रीय आधार पर भी गोलबंदी होने के संकेत हैं। नतीजतन, मुस्लिम बहुल कश्मीर घाटी में नेशनल कांफ्रेंस के पक्ष में एकतरफा जनादेश उभरा।

उसके साथ गठबंधन में होने के कारण इसका रुझान का लाभ कांग्रेस ने भी उठाया। लेकिन जहां भाजपा को टक्कर देने की जिम्मेदारी कांग्रेस के कंधों पर थी, वहां वह बुरी तरह पिट गई। जम्मू के हिंदू बहुल जिलों में भाजपा का सिक्का चला।

धारा 370 की समाप्ति के बाद नई व्यवस्था में अनुसूचित जातियों को आरक्षण देने का फायदा भी उसे मिला। उसने इन जातियों के लिए आरक्षित सभी सीटें जीत लीं। लेकिन जन-जातियों के लिए आरक्षित सीटें एकतरफा ढंग से नेशनल कांफ्रेंस- कांग्रेस गठबंधन के पक्ष में गईं।

यहां ये पहलू ध्यान में रखना चाहिए कि जम्मू-कश्मीर में ज्यादातर जनजातियां इस्लाम धर्मावलंबी हैं।

ये चर्चा खूब थी कि धारा 35-ए हटने का जम्मू के व्यापारियों को बहुत नुकसान हुआ है। इसके अलावा महंगाई और बेरोजगारी जैसी समस्याएं तो हर जगह की तरह वहां भी आम हैं। इसी आधार पर ये अनुमान भी लगाया गया था कि इस चुनाव में वहां भाजपा को मुश्किल होगी।

लेकिन चुनाव अभियान के दौरान विमर्श को सांप्रदायिक, क्षेत्रीय एवं जातीय मुद्दों पर केंद्रित करने में भाजपा सफल रही। इसके अलावा जम्मू क्षेत्र में खासकर हिंदू मतदाताओं ने धारा 370 की समाप्ति के प्रति अपने समर्थन का इजहार भी संभवतः किया। नतीजा हुआ कि भाजपा इस इलाके में अपने वोटों और सीटों दोनों में बढ़ोत्तरी करने में कामयाब हुई। 

दूसरी तरफ कश्मीर घाटी में भाजपा का तो कोई नामलेवा नज़र नहीं ही आया, जिन क्षेत्रीय पार्टियों के बारे में ये धारणा बनीं कि वे अंदरखाने भाजपा की सहयोगी हैं, उनका भी सफाया हो गया।

इस नतीजे की एक व्याख्या यह है कि धारा 370 की समाप्ति के निर्णय को घाटी के लोगों ने ठुकरा दिया है। नेशनल कांफ्रेंस के जरिए उन्होंने असल में अपनी क्षेत्रीय अस्मिता को जताया है। जनादेश में यह क्षेत्रीय विभाजन इस केंद्र शासित राज्य के लिए एक नई चुनौती बन कर सामने आया है। 

हरियाणा और जम्मू-कश्मीर चुनाव नतीजों में संभवतः सामान्य पहलू यह है कि रोजी-रोटी के सवाल मतदाताओं के बड़े हिस्से के राजनीतिक निर्णय को प्रभावित नहीं कर पाए।

अगर यह आकलन सही है, तो सवाल उठेगा कि क्या चार जून को संकेत ग्रहण करने में जल्दबाजी बरती गई? या उस रोज इस स्तंभकार जैसे व्यक्तियों ने गलत संदेश ग्रहण किया, यानी क्या तब भी रोजी-रोटी के प्रश्न वास्तव में निर्णायक साबित नहीं हुए थे? 

फिलहाल, इन प्रश्न पर भ्रम बन गया है। मुमकिन है कि यह कहना अभी जल्दबाजी हो कि आठ अक्टूबर ने चार जून को नकार दिया है, फिर भी ताजा चुनाव नतीजों के बाद यह कहने का आत्म-विश्वास बहुत कम लोगों में अक्षुण्ण होगा कि महंगाई, बेरोजगारी, आम अवसरहीनता आदि से बना माहौल और इनसे पैदा हुए आक्रोश या असंतोष का असर अब चुनावी राजनीति पर पड़ने लगा है।

अगले महीने जब महाराष्ट्र और झारखंड के चुनाव नतीजे आएंगे, तब संभव है कि ताजा भ्रम कुछ हद तक छंटे।

फिलहाल, बात घूम-फिर कर वहीं पहुंच गई है, जहां लोकसभा चुनाव के पहले नजर आती थी। इसका एक प्रमुख कारण है कि राजनीतिक दल पहचान की राजनीति से बने वातावरण में एक तरह का सहूलियत महसूस करते हैं। यह उनके अपने अभिजात्य चरित्र के अनुरूप ही है।

यह सुविधाजनक राजनीति है। संभवतः राजनीतिक दल इस तथ्य से परिचित हैं कि शासक वर्ग ने रोजी-रोटी और विकास के मूलभूत मुद्दों को पृष्ठभूमि में डालने के लिए अस्मिताओं को जगाने, जताने और उसके अंदर ही न्याय ढूंढने की सियासत को प्रोत्साहित किया है। 

किसी एक अस्मिता को पकड़ कर उस पर मतदाताओं को गोलबंद करने की रणनीति में मूलभूत समस्याओं के हल की कोई योजना या कार्यक्रम पेश करने की जहमत नहीं उठानी पड़ती। मगर उससे भी महत्त्वपूर्ण पहलू यह है कि इस सियासत में अंतरराष्ट्रीय और देसी पूंजी तथा शासक वर्ग से टकराव की आशंका भी नहीं रहती है। 

लेकिन गैर-भाजपा दलों के लिए जोखिम यह है कि भाजपा/आरएसएस ने पहचान और प्रतिनिधित्व की राजनीति में इतनी महारत हासिल कर ली है कि अक्सर चुनावों में वह अपने प्रतिद्वंद्वियों पर भारी पड़ती है। जातीय पहचान और प्रतिनिधित्व के साथ सांप्रदायिक ध्रुवीकरण को जोड़ कर उसने फिलहाल मजबूत रणनीति अपना रखी है।

सांप्रदायिक ध्रुवीकरण भाजपा को ‘core vote bank’ प्रदान करता है, जबकि जातीय पहचान और प्रतिनिधित्व की सियासत उसमें plus vote जोड़ती है। रही-सही कमी भाजपा ‘रेवड़ियों’ का वादा कर पूरी कर लेती है। 

जातीय प्रतिनिधित्व के पैरोकार अन्य दलों के पास जो भी ‘core vote bank’ है, वह जातीय आधार पर ही बना हुआ है। ‘रेवड़ियों’ के वादे से वे कुछ और वोट जुटाते हैं, लेकिन सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का औजार उनके पास नहीं है।

कांग्रेस के पास तो अब जातीय ‘core vote bank’ भी नहीं है। जातीय गोलबंदी की सियासत में वह नई दीक्षित हुई है, लेकिन यह दीक्षा अब तक तो पर्याप्त साबित होती नहीं दिखी है। 

इसके बीच कांग्रेस और अन्य गैर-भाजपा दलों के पक्ष में माहौल तभी बना है, जब रोजी-रोटी एवं विकास के आम सवालों पर उन्होंने मतदाताओं के असंतोष को भाजपा के विरोध में संगठित करने की रणनीति अपनाई।

लेकिन अपने वर्गीय चरित्र एवं सोच की सीमाओं के कारण वे कोई वैकल्पिक आर्थिक नीति एवं कार्यक्रम पेश करने में विफल हैं, इसलिए वे कोई विश्वसनीय कथानक खड़ा नहीं कर पाए हैं। 

चार जून और आठ अक्टूबर का साझा संदेश यह है कि ऐसी विश्वसनीयता हासिल किए बिना भाजपा को उस राजनीतिक स्थल से बेदखल करना बाकी दलों के लिए बेहद मुश्किल है, जिस पर वह काबिज हो चुकी है।

भाजपा ‘अच्छे दिन’, ‘विकसित भारत’ जैसे जुमलों और 15 लाख रुपये खाते में भेजने जैसे निराधार, अस्पष्ट वादों के जरिए plus vote जुटाने की कोशिश करती है, लेकिन इन मुद्दों पर साख खोने के बावजूद अब वह चुनावों में कामयाब होने लगी है। 

इस स्थिति में यह कांग्रेस जैसे दलों को तय करना है कि वे मौजूदा रणनीति पर चलते हुए कमजोर विपक्ष बने रह कर संतुष्ट हैं या उनके पास अभी भी केंद्रीय सत्ता में लौटने की महत्त्वाकांक्षा है? अगर महत्त्वाकांक्षा बड़ी है, तो उन्हें मोनोपॉली-कॉरपोरेट पूंजी से टकराने और अपनी राजनीति को नए धरातल पर ले जाने का साहस दिखाना होगा।

इसलिए कि भाजपा अब इन वर्गों का प्रमुख राजनीतिक औजार है। ये तबके किसी वैकल्पिक औजार की जरूरत महसूस करें, निकट भविष्य में तो ऐसा होता नहीं दिखता।  

इसलिए गैर-भाजपा दल अगर प्रासंगिक बने रहना चाहते हैं, तो मौजूदा comfort zone से बाहर निकल कर उन्हें राजनीति को नए सिरे समझने और परिभाषित करने की प्रतिभा दिखानी होगी।

फिलहाल, काल्पनिक “जन नायक” परिघटना में आबद्ध और हार के बनावटी बहाने ढूंढ कर आगे बढ़ने का आसान रास्ता अपनाने वाली पार्टी या पार्टियों से उपरोक्त अपेक्षा करना उनकी क्षमता से कुछ अधिक मांगने जैसा लगता है। बहरहाल, यहां सवाल मांगने वाले का नहीं, बल्कि खुद इन दलों के अपने वजूद का है। 

हरियाणा और जम्मू क्षेत्र ने इन दलों को झटका दिया है। इससे उनका नशा टूटना चाहिए। ताजा नतीजों को उन्हें पूरी गंभीरता से लेना चाहिए। अपनी कमजोरियों और कमियों पर परदा डालने की कोशिश कर वे कहीं नहीं पहुंचेंगे।

हार का ठीकरा निर्वाचन आयोग या ईवीएम पर फोड़ कर आगे बढ़ने की रणनीति खुद उनके लिए हानिकारक होगी। वैसे भी कांग्रेस इस मुद्दे को जनता के बीच ले जाकर स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनाव सुनिश्चित कराने के लिए जमीन पर जन अभियान छेड़ने का माद्दा रखती है, यह संदिग्ध है।

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