स्वदेश कुमार सिन्हा
जर्मनी की राजधानी बर्लिन में एक युद्ध स्मारक और संग्रहालय है, जिसमें द्वितीय महायुद्ध के दौरान फासीवादियों द्वारा हत्या किए गए लाखों यहूदियों की यादें सुरक्षित हैं। रखी गई सामग्रियों में तस्वीरों के अलावा बच्चों के खिलौने, टूथब्रश, वृद्धों के दांतों के सेट आदि भी हैं। लेकिन सबसे लोमहर्षक एक मानव खोपड़ी है, जिसके अंदर तार आदि डालकर उसे एक टेबुललैंप में बदल दिया गया है। इसके बारे में बतलाया जाता है कि हिटलर उसे अपने पढ़ने वाली मेज पर रखता था। इसके बारे में एक नाज़ी जर्मनी के विशेषज्ञ इतिहासकार ने लिखा है कि “यह खोपड़ी उस यहूदी पुरुष की है, जिसने एक जर्मन स्त्री से विवाह किया था। यहूदियों के प्रति इस तरह की नस्लवादी घृणा ने तात्कालीन जर्मन लोगों के दिमाग़ में एक मानसिक विकृति पैदा कर दी थी।” इस कारण वहां इस तरह की घटनाएं आम थीं तथा इसे व्यापक जनसमर्थन भी प्राप्त हो रहा था।
आज जर्मनी के हालात बदल गए हैं। वहां के लोगों में अपने अतीत के प्रति शर्मिंदा का भाव है तथा मृत यहूदियों की याद में जगह-जगह स्मारक भी बने हैं। लेकिन इसके ठीक विपरीत भारत सहित एशिया के कई देशों में जाति और धर्म को लेकर इस तरह की या इससे मिलती-जुलती बर्बरता अभी भी कायम है। विशेष रूप से अगर दो स्वतंत्र स्त्री-पुरुष के विवाह का मामला हो और उनकी जाति या फिर धर्म अलग-अलग हो, तब यह बर्बरता उभरकर बिलकुल सामने आ जाती है।
भारत की बात करें तो हमारे लोकसमाज में इस तरह की बर्बरता की जड़ें हज़ारों साल पुरानी हैं, लेकिन कुछ वर्षों में जब शिक्षा के प्रसार के साथ-साथ नौकरी और शिक्षा आदि में साथ काम कर रहे लड़के-लड़कियों के बीच मित्रता, प्रेम और शादियां अधिक होने लगीं, विशेष रूप से अंतर्जातीय और अंतर्धार्मिक विवाह, तब इस तरह की सामाजिक बर्बरता खुलकर सामने आ रही है।
इसमें और इजाफा तब हुआ जब वर्ष 2014 में भाजपा और आरएसएस को सत्ता मिली। जिस प्रकार दलितों, आदिवासियों, ओबीसी व अल्पसंख्यकों के ख़िलाफ़ योजनाबद्ध रूप से नफ़रत फैलाई जाने लगी। खासकर तब जब लड़का मुसलमान और लड़की हिंदू हो तो इसे लव जिहाद का नाम दे दिया जाता है। इस प्रकार के विवाह में तो यह नफ़रत और घृणा अपने चरम पर पहुंच जाती है। ऐसे में हमें जर्मनी के उस दौर की याद आती है, जब गैस चैंबरों में डालकर लाखों लोगों की हत्या कर दी गई थी।
वेब पत्रिका ‘नुक्ता-ए-नज़र’ के मुताबिक, उत्तराखंड के पौड़ी में होने वाले एक विवाह का कार्ड सोशल मीडिया पर चर्चा का विषय है। आलम यह है कि तरह-तरह के ‘मीम’ (संपादित वीडियो) और कार्टून के जरिए इस प्रेम विवाह का मजाक बनाया जा रहा है। इसकी वजह यह है कि लड़की हिंदू और लड़का मुसलमान है। दोनों सहकर्मी हैं। दोनों की शादी का कार्ड इस बात की तस्दीक करता है कि उनकी शादी से उनके परिजनों को किसी तरह की परेशानी नहीं है।
वहीं सोशल मीडिया पर इस पूरे मामले को ऐसे प्रस्तुत किया जा रहा है जैसे यह प्रेम विवाह ही उत्तराखंड के लिए सबसे बड़ा विषय बन गया है। कुछ लोगों को इसमें ‘लव जिहाद’ दीख रहा है तो कुछ को आफ़ताब पूनावाला की याद आ रही है, जिसने अपने सहजीवी श्रद्धा वाकर के शरीर के पैंतीस टुकड़े करके अनजान जगहों पर फेंक दिया था। लेकिन ऐसा कहनेवाले भूल रह हैं कि इसी उत्तराखंड की राजधानी देहरादून में वर्ष 2010 में राजेश गुलाटी ने अपनी पत्नी अनुपमा गुलाटी के 72 टुकड़े किये थे।
और कोई कैसे भूल सकता है दलित वर्ग के जगदीश चंद्र को। वह तो मुस्लिम भी नहीं था, वह एक राजनीतिक कार्यकर्ता था। उसकी हत्या 1 सितंबर, 2022 कर दी गई। उसका गुनाह यह था कि उसने सवर्ण जाति की लड़की से विवाह किया था।
ये चंद उदाहरण मात्र हैं। जबकि ऐसे उदाहरणों से समाज भरा पड़ा है। पत्रकारिता करने तथा वामपंथी राजनीति में सक्रियता के दौरान मैंने ऐसे ढेरों उदाहरण देखे, जिसमें पुलिस, प्रशासन, न्यायपालिका और पत्रकार, सभी हत्यारों के पक्ष में खड़े दिखते हैं।
पांच वर्ष पहले की गोरखपुर की घटना में एक हिंदू युवती और एक मुस्लिम युवक के विवाह कर लेने के कुछ माह बाद लड़की के घरवालों ने लड़के को घर पर बुलाया और चाकू से गोद-गोदकर उसकी हत्या कर दी। यह घटना हज़ारों लोगों के सामने हुई, लेकिन कोई कुछ नहीं बोला। मैं उस समय अख़बार में नौकरी कर रहा था। मैंने देखा कि अधिकांश पत्रकार हत्यारों के पक्ष में खड़े हुए हैं। मेरे बहुत ज़ोर देने पर इस घटना का एक बहुत छोटा-सा समाचार लगाया गया। कुछ ही समय बाद सभी हत्यारे सबूतों के अभाव में बरी कर दिये गये।
भाजपा के शासनकाल में इन सब मामलों में एक दुखद बात यह हुई है कि सरकार संविधान में दिए गए मौलिक अधिकारों को धता बताकर ख़ुद ही अंतर्जातीय और अंतर्धार्मिक विवाहों का विरोध कर रही है। उत्तर प्रदेश में तो अंतर्धार्मिक विवाहों को बाकायदा ‘लव जिहाद’ का नाम दे दिया गया है। कहना अतिरेक नहीं कि शासन-प्रशासन द्वारा ऐसे समाज और मानवद्रोही परंपराओं का समर्थन करने वाले तत्वों को संरक्षण और समर्थन देना देश को जर्मन फासीवादी युग की ओर ढकेलना है।