अग्नि आलोक
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यहीं स्वर्ग, है नर्क यहीं

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      डॉ. विकास मानव 

शतपथ ब्राह्मण (६/५/४/८) में कहा गया है कि पुण्य कर्म करने वाले स्वर्गलोक को जाते हैं- पुण्यकृतः स्वर्ग लोकं यन्ति ।
वाल्मीकीयरामायण, अयोध्याकांड, (१०९/३१) के अनुसार :
सत्यं च धर्म च पराक्रमं च भूतानुकम्पां प्रियवादितां च।
द्विजातिदेवातिथिपूजनं च, पन्थानमाहुस्त्रिदिवस्य सन्तः॥

 अर्थात सत्य, धर्म, पराक्रम, समस्त प्राणियों पर दया, सबसे प्रिय वचन बोलना एवं देवताओं, अतिथियों तथा ब्राह्मणों की पूजा करना- इन सबको संतों, सत्पुरुषों ने स्वर्गलोक का मार्ग बताया है। इसी तरह पद्मपुराण, ४/९२/५८ में कहा गया है कि निर्धन को दान, समर्थ को क्षमादान, युवा तपस्वियों और ज्ञानियों को मौन, सुख-सुविधाओं के इच्छा की निवृत्ति एवं प्राणियों पर दया, मनुष्य को स्वर्ग दिलाते हैं। 

     मनुस्मृति ८/३१३ कहती है कि पीड़ितों से आक्षेप प्राप्त कर, जो सहन कर लेता है, वह स्वर्ग में महत्ता प्राप्त करता है, किंतु ऐश्वर्य के मद के कारण, जो व्यक्ति क्षमा नहीं करता है, वह नरक में जाता है। 

    इस तरह शास्त्रों में स्वर्ग-नरक प्राप्ति के अनेक कारण गिनाए गए हैं, किंतु सबसे अहम सवाल यह है कि यह स्वर्ग क्या है, कहाँ है और कैसा है? ये प्रश्न ऐसे हैं, जिनके उत्तर पाने के लिए मनुष्य अनादिकाल से प्रयासरत है। ‘स्वर्ग’ का शाब्दिक अर्थ हैं- देवतानामालयं – देवताओं का निवास स्थान। 

     महाभारत के अनुसार स्वर्गलोक यहाँ से बहुत दूर ऊपर की ओर है, जहाँ पहुँचने के लिए मार्ग सीधे ऊपर को जाता है। यह सप्तलोकों में से तीसरा है, जिसका विस्तार सूर्यलोक से ध्रुवलोक तक है। पुण्यकर्म करने वाले शरीर त्याग के बाद यहाँ आते हैं और अनंतकाल तक अर्थात पुण्य क्षीण होने तक निवास करते और दुःख- क्लेष रहित सुख का भोग करते हैं। 

  पद्मपुराण, भूमि खंड, अ० ९५ के अनुसार :

 नन्दनादीनि रम्याणि दिव्यानि विविधानि च। 

      तत्रोद्यानानि पुण्यानि सर्वकाम युतानि च॥

  विमानानि सुदिव्यानिसे–बहवो गुणाः स्वर्गस्य भूपते॥ 

    स्वर्ग में नंदन आदि विविध दिव्य एवं रमणीय उद्यान हैं तथा पुण्यात्माओं के विहारस्थल हैं। वहाँ सभी कामनाओं को पूर्ण करने वाले कल्पवृक्ष एवं कामधेनु हैं। दिव्य विमान हैं, जहाँ सुकर्म करने वाले यथा सुख विचरण करते हैं। स्वर्ग में न कोई नास्तिक है, न नृशंस, न कृतघ्न और न अहंकारी। रोग, शोक, जरा, मृत्यु, भूख, प्यास, सरदी, गरमी आदि से रहित है स्वर्गलोक। सभी शुभ कर्म करने वाले पुण्यकर्मियों को स्वर्ग प्राप्त होता है।

      वे अमृतपायी होते हैं। पुण्यकर्मों का भोग समाप्त होने पर वे पुनः धरती पर जन्म धारण करते और कर्मक्षेत्र में प्रवृत्त होते हैं। महाभारत वनपर्व २६१/३५ में कहा गया है कि यह भूलोक कर्मभूमि है तथा स्वर्गलोक फलभूमि है। हे मुनिश्रेष्ठ ! मनुष्य इस लोक में जो भी कर्म करता है, उसका फल परलोक में मिलता है।

    स्वर्ग के संबंध में मनुष्य की तीन तरह की कल्पनाएँ सामने आती हैं। एक तो वह, जहाँ देवता रहते हैं- इंद्रलोक। दूसरा वह, जहाँ मरणोपरांत पुण्यात्माएँ निवास करती हैं। तीसरी मान्यता यह है कि यदि स्वर्ग कहीं है, तो वह धरती पर ही कहीं है, जो सुख, समृद्धियों से भरपूर है। जैन धर्म के अनुसार स्वर्ग बारह हैं।

       ये हैं- सौधर्म, ऐशान, सानत्कुमार, माहेंद्र, ब्रह्मलोक, लांतव, महाशुक्र, सहस्रार, आनंत, प्राणत, आरण, अच्युत । अमरावती भी इसी को कहते हैं, जहाँ देवताओं के राजा इंद्र का निवास है। नंदन वन नामक जिस जगह में देवराज इंद्र रहते हैं, वहाँ ‘सर्वकामधुक’, कामधेनु नामक गाय एवं कल्पवृक्ष हैं, जो उनके सभी मनोरथों को पूर्ण करते हैं। अन्यान्य धर्मावलंबियों में ‘स्वर्ग’ की अलग-अलग मान्यताएँ- कल्पनाएँ हैं।

     मुसलमानों का जन्नत भी कुछ इसी तरह सुख-सुविधाओं से भरा हुआ है, जहाँ पहुँचने वाली पुण्य आत्माओं का हूरों द्वारा स्वागत-सत्कार किया जाता है।

    चीनियों का मत है कि स्वर्गलोक ‘खुनलुन’ नामक कठिन चोटी पर स्थित है, जो सदैव चमकता रहता है। वहाँ पर ‘थी वांग मू’ नामक देवी विराजती है। माणिक्य- रत्नों से भरे एवं चमकते हुए सरोवर के मध्य यह स्वर्ग स्थित है। स्वर्ग की देवी का वाहन मोर जैसा पक्षी ‘फेनिक्स’ है। 

     वहीं ग्रीक लोगों का स्वर्ग बादलों से भी ऊँचे स्थान ‘आलिमपाश’ में है, जहाँ पर उनके ईश्वर ‘जीऊ’ अपने महल में निवास करते हैं। वहीं देवता भी रहते हैं। बादलों को पार करके ही वहाँ पहुँचा जा सकता है। केवल पुण्यात्माएँ ही वहाँ प्रवेश पाती हैं, हर कोई वहाँ नहीं पहुँच सकता।    

       विश्वविजेता सिकंदर मानता था कि स्वर्ग ऊपर नहीं, वरन इस धरती पर ही कहीं है और वह पूर्व की ओर है। यही कारण था कि उसने पूर्व की ओर अपने विजय अभियान की शुरुआत की।

    स्वर्गारोहण के मार्ग भी अनेक हैं। कुछ धर्मावलंबी मानते हैं कि बादलों की सवारी गाँठकर सशरीर स्वर्ग तक पहुँचा जा सकता है। तो कुछ की मान्यता है कि पर्वतशृंगों पर चढ़कर स्वर्ग में प्रवेश किया जा सकता है। पांडवों ने इसी मार्ग का अनुसरण किया था। प्राचीन समय में. विशेषकर पौराणिक काल में ऐसे विमानों का निर्माण किया गया था, जिनमें सवार होकर प्रतापी राजा देवताओं के निमंत्रण पर स्वर्गलोक की यात्रा करते थे। बाइबिल में भी स्वर्गारोहण के लिए एक ऊँची मीनार बनाने की बात कही गई है, जिस पर चढ़कर छलाँग लगाकर स्वर्ग में प्रवेश पाया जा सके, परंतु यह प्रयास भी असफल रहा।

       मनुष्य ने आज तक स्वर्ग तक पहुँचने के लिए कितने ही प्रयत्न किए हैं, पर सफलता विरले ही पा सके हैं।

    वस्तुतः स्वर्ग यहीं धरती पर ही है और वह भी मनुष्य के अपने ही भीतर, अपनी ही भावनाओं में, अपने ही सत्कर्मों में, अपने ही सदुद्देश्यों और सत्प्रयासों में। जो व्यक्ति हर युवती को अपनी पुत्री की तरह देख सके, पराए पैसे को ठीकरी जैसा समझे, अपने स्वल्प उपार्जन से सादगी का जीवन जीते हुए संतुष्ट रहे, चरित्र उज्ज्वल रखे और दूसरों के प्रति स्नेह-सहयोग भरा दृष्टिकोण रखे, तो उसे निरंतर अपने भीतर एक अमृत जैसी निर्झरिणी कल-कल ध्वनि से प्रवाहित होती हुई अनुभव होगी और लगेगा कि भावना-क्षेत्र में स्वर्गीय सुषमा ही प्रादुर्भूत हो रही है। तब लगेगा कि स्वर्ग यहीं धरती पर और इसी जीवन में है।

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