इनके लिए होली का मतलब है जंग का मैदान। हवा में टाप देते घोड़े, दो-दो घोड़ों पर एक-एक घुड़सवार, तलवारबाजी और हवा में उड़ते-रंग गुलाल। नगाड़े बज रहे। बोले सो निहाल, सतश्री अकाल… के जयकारे लग रहे। ऐसा लगता है जैसे हम किसी और दुनिया में आ गए हैं। दुल्हन की तरह पूरा शहर सजा है। बच्चे, बूढ़े, नौजवान, महिला हर किसी का जोश देखते ही बनता है।

कुछ इस तरह ट्रैक्टर पर सवार होकर सिख हला मोहल्ला के लिए आनंदपुर साहिब पहुंचे।
चंडीगढ़ से करीब दो घंटे की दूरी पर है आनंदपुर साहिब, सिखों का सबसे पवित्र शहर। आज सड़कें गुलजार हैं। जहां तक नजर जा रही, कोई नीले रंग के चोगे में है तो कोई केसरिया चोगे में।
ट्रैक्ट्रर, ट्रॉली, बाइक… इतनी गाड़ियां कि कई किलोमीटर तक पैर रखने की जगह नहीं है। हजारों की संख्या में लोग आनंदपुर साहिब के लिए निकले हैं। किसी ने सिर पर गठरी बांध रखी है तो किसी ने बाइक के पीछे बिस्तर बांध रखा है। यानी पूरी तैयारी के साथ आए हैं।
जगह-जगह बड़े-बड़े म्यूजिक सिस्टम लगे हैं। गायक दीप सिंह और सिद्धू मूसे वाला की तस्वीरें टंगी हुई हैं। पंजाबी गाने बज रहे हैं।
कहीं गन्ने का रस, लस्सी, चाय-पकोड़े तो कहीं मटर पनीर, शाही पनीर और लड्डू-जलेबी के लंगर। ना खाने वालों की गिनती की जा सकती है ना खिलाने वालों की। लोग लंगर छकते (खाते) हुए आनंदपुर साहिब गुरुद्वारे की ओर पैदल जा रहे हैं।
होला मोहल्ला का तीसरा दिन। रेशमी चुन्नियों और फूलों से आनंदपुर साहिब गुरुद्वारा साहिब सजा हुआ है। एक तरफ मंच पर पॉलिटिकल स्पीच हो रही है, तो दूसरी तरफ जंग के प्रदर्शन की तैयारी। घोड़े हवा में टाप दे रहे हैं। नीले और केसरिया चोगे में निहंग तलवारबाजी कर रहे हैं। ये जंग भले ही प्रदर्शन के लिए है, लेकिन देखने पर लगता है असल में युद्ध छिड़ा है।

मुझे यहां ऐसे कई सिख मिले, जिनके सिर पर बाज बैठा था।
तलवारबाजी के बाद ये लोग गतका खेलना शुरू करते हैं। गतका लोहे का भारी रिंग होता है, जिसे उठाना आम इंसान के वश की बात नहीं, लेकिन ये लोग उसे उठाकर हवा में लहारते हुए खेल रहे हैं।
गुरु गोबिंद सिंह स्डटी सर्किल के निदेशक सरदार मंजीत सिंह बताते हैं, ‘होला का मतलब आक्रमण होता है और मोहल्ला का मतलब इलाका, यानी आक्रमण करके इलाके को जीतना।
उन्होंने आनंदपुर साहिब में होलकर नाम की जगह से 17वीं सदी के आखिर में इसकी शुरुआत की थी। तब से हर साल इसे उत्सव के रूप में मनाया जाता है। आमतौर पर होली के दूसरे दिन इसकी शुरुआत होती है और यह तीन दिनों तक चलता है।’
दो-दो घोड़ों पर एक-एक घुड़सवार। निहंग अपनी इसी युद्ध कौशलता के लिए जाने जाते हैं।
इसके पीछे भी ऐतिहासिक कहानी है। उन दिनों मुस्लिम शासक, सिखों का जबरन धर्म परिवर्तन करा रहे थे। इसे रोकने के लिए ही गुरु गोबिंद सिंह ने इसकी शुरुआत की थी।
देश-विदेश में सिख इतिहास पर रिसर्च कर रहे प्रो. एचएस बेदी बताते हैं, ‘गुरु गोबिंद सिंह ने 1699 में खालसा पंथ की नींव रखी। खालसा पंथ यानी अपने धर्म और राष्ट्र की रक्षा के लिए बलिदान देने वालों की फौज।
उन्होंने दो तरह की फौज बनाई। एक को केसरिया बाना दिया और दूसरे को सफेद बाना। वे एक गुट को एक जगह पर काबिज करते थे और दूसरे गुट को उस कब्जे को छुड़वाने के लिए कहते थे।
जीतने वाले को सम्मानित किया जाता था। उस दिन फूलों से होली खेली जाती थी। रात में दिव्य दरबार लगता था। लोग उत्सव मनाते थे। तभी से ये परंपरा चली आ रही है। गुरु गोबिंद सिंह का मानना था कि दुनिया के रंग तो छूट जाते हैं, लेकिन अध्यात्म के रंग नहीं छूटते। ये बाना वहीं अध्यात्म का रंग था, जो उन्होंने सिखों को दिया था।’

ये जंग भले ही प्रदर्शन के लिए होती है, लेकिन इनका जज्बा देखकर लगता है कि असल में जंग छिड़ी है।
बाबा बलविंदर सिंह करोड़ी, चमकौर साहिब वाले बताते हैं, ‘उन दिनों देश में जातिवाद चरम पर था। होली भी जातियों के हिसाब से खेली जाती थी। निम्न जाति के लोग कीचड़ और गंदगी से होली खेलते थे। होला मोहल्ला के जरिए उन्हें समाज में बराबरी का दर्जा दिलाना था।
जो भी योद्धा युद्ध में अच्छा प्रदर्शन करेगा वह गुरु का सिख होगा, गुरु की आर्मी में होगा चाहे वह किसी भी जाति का हो। इस तरह होला मोहल्ला ने पंजाब में सिख समाज में जाति व्यवस्था को कम करने में भी अहम भूमिका निभाई है।’
गुरु गोबिंद सिंह ने यहां 13 लड़ाइयां लड़ीं और 14वीं लड़ाई में मुगलों और हिंदू राजाओं के कहने पर आनंदपुर साहिब इस शर्त पर छोड़ दिया कि वे लोग सिख फौज पर हमला नहीं करेंगे, लेकिन मुगलों की फौज ने सिख फौज पर हमला कर दिया। जिसका जिक्र गुरु गोबिंद सिंह ने औरंगजेब को लिखे जफरनामा में किया था।

होला मोहल्ला के दौरान सिख एक से बढ़कर एक करतब दिखाते हैं।
आज ना तो मुगल हैं और ना ही भारत गुलाम है, फिर जंग का अभ्यास क्यों?
खालसा पंथ से जुड़ी बीबी गुरलीन कौर बताती हैं, ‘हमें सिर्फ जंग के लिए ही तैयार नहीं रहना है। हर तरह की आपदा के लिए भी तैयार रहना है। हम अपने वॉलिंटियर्स को तैराकी, घुड़सवारी, भाला फेंकना, तलवार चलाना, प्राथमिक चिकित्सा और पहाड़ों पर चढ़ने की ट्रेनिंग देते हैं।
कहीं बाढ़ आए, भूकंप आए या जंग जैसे हालात हो, तो सिख वॉलिंटियर्स सबसे पहले पहुंचते हैं। पहले इसमें सिर्फ पुरुष शामिल होते थे, अब महिलाएं भी इसमें आ रही हैं।’
होला-मोहल्ला में सभी सिख भाग लेते हैं। विदेशों से भी लोग होला मोहल्ला देखने आते हैं, लेकिन इसमें जो जंग का अभ्यास करते हैं, प्रदर्शन करते हैं, वे निहंग सिख होते हैं।

अब हला मोहल्ला में महिलाएं भी शामिल होने लगी हैं।
तो चलिए निहंग कौन होते हैं और ये बाकी सिखों से क्यों अलग हैं, ये भी जान लेते हैं…
निहंग यानी संस्कृत में निडर और शुद्ध। फारसी में इसका मतलब है मगरमच्छ और तलवार। ये एक ऐसा पंथ है जिनकी बाणी यानी बोली और बाणा यानी पहनावा बाकी सिखों से अलग है। इनका खाना और नहाना भी अलग है। इनका कोई ठिकाना नहीं। ये लगातार चलते रहते हैं। जिस वजह से इन्हें चक्रवर्ती भी कहा जाता है।
करीब 400 साल पहले सिखों के दसवें गुरु गोबिंद सिंह ने इसकी नींव रखी थी। यह गुरु की ‘लाडली फौज’ है। ये आज भी फौज की तरह छावनी बनाकर रहते हैं और रेजिमेंटों में बंटे होते हैं। इनकी सबसे बड़ी रेजिमेंट है शिरोमणि अकाली बुड्ढा दल। इसका प्रमुख जत्थेदार होता है।
अभी देशभर में निहंगों के 14 प्रमुख दल हैं। ये सभी शिरोमणि अकाली बुड्ढा दल के अंडर ही काम करते हैं। दुनिया में इस पंथ के दस लाख से ज्यादा सिख हैं, जिनमें हर जाति के लोग हैं। देशभर में इनकी 700 से ज्यादा छावनियां हैं। निहंग अपने ठिकानों को छावनी कहते हैं। वहीं उनका गुरुद्वारा भी होता है।
सावन महीने में ही तोड़ते हैं भांग की पत्तियां, सालभर उसे ही पीते हैं
निहंग सिख भांग को शहीदी देग बोलते हैं। केवल सावन महीने में ही भांग की पत्तियां तोड़ी जाती हैं और फिर इन्हें सुखाकर रख दिया जाता है। भांग के इन पत्तों में काली मिर्च, बादाम और मेवे डालकर शरबत की तरह एक पेय बनाया जाता है। सुबह चार बजे और शाम के वक्त चार बजे निहंग इसे पीते हैं। पीने से पहले अरदास की जाती है।
ट्रेन में मुफ्त यात्रा करते हैं निहंग
निहंग देशभर में मुफ्त में कहीं भी ट्रेन से सफर कर सकते हैं। दरअसल 1952 में जत्थेदार महेंद्र सिंह ननकाना, प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू से मिले। पंडित नेहरू ने उनसे कहा कि निहंगों ने आजादी की लड़ाई में अहम भूमिका निभाई है। आप बताओ कि हम इनके लिए क्या कर सकते हैं।
बाबा महेंद्र सिंह ने कहा कि निहंग गरीब हैं, इनके पास जमीन-जायदाद नहीं है, इन्हें अपने गुरुओं के यहां आने-जाने का किराया माफ कर दीजिए। इसके बाद से निहंगों का किराया माफ हो गया।
निहंगों की अपनी खास बोली होती है। इसके पीछे भी एक दिलचस्प किस्सा है। गुरु गोबिंद सिंह की फौज मुगलों पर आक्रमण के लिए योजना बनाती थी, लेकिन कहीं न कहीं से योजना लीक हो जाती थी। इस वजह से उनकी फौज हार जाती।
इसका तोड़ निकालने के लिए निहंग सिखों ने अपनी नई वोकैबलरी तैयार की। इनमें करीब 600 से ज्यादा शब्द हैं। आज भी निहंग सिख उसी भाषा का इस्तेमाल करते हैं।
जैसे आप कहेंगे- लड़का पगड़ी बांध रहा है। निहंग कहेंगे- भुचंगी दस्तार सजा रहा है। औरत रोटी पका रही है, निहंग कहेंगे बीबी प्रसादे सजा रही है। हलवाई हलवा बना रहा है, निहंग कहेंगे- भाई देग सजा रहा है।