हिंदी फ़िल्म इंडस्ट्री ने 2013 में अपने सौ साल पूरे कर लिए थे। अपनी तमाम सीमाओं के बावजूद पूरी दुनिया में इसकी पहचान अपनी खास तरह की फिल्मों के लिए रही है। यह हमारे उन चंद पेशेवर स्थानों में है, जो समावेशी है और जिसका दरवाजा सभी के लिए खुला है। यही बात बहुसंख्यक दक्षिणपंथियों को हमेशा से ही खटकती रही है। इसलिए आज वे बॉलीवुड को भी अपना भोंपू बना लेना चाहते हैं और इसके लिए वे हर हथकंडा अपना रहे हैं।
जावेद अनीस
कहना अतिरेक नहीं कि यह भारतीय राजनीति, और समाज व संस्कृति के लिए काफी उठापटक भरा दौर है। सिनेमा जगत भी इसका हिस्सा रहा है। साल 2014 के बाद से एक राष्ट्र और समाज के तौर पर भारत को पुनर्परिभाषित करने के सुनियोजित प्रयास किये गए हैं। इसके लिए फिल्मों का सहारा भी लिया गया है।सनद रहे कि यह केवल एक-दो या तीन फिल्मों का मसला भर नहीं है। हकीकत तो यह है कि 2014 में केंद्र में मोदी सरकार के आने के बाद हिंदी फिल्म इंडस्ट्री का एक खेमा संघ और भाजपा विचारधारा पर केंद्रित फिल्मों का निर्माण कर रहा है।
दरअसल, इस दौरान भारत का ‘सॉफ्ट पॉवर’ कहे जाने वाले हिंदी सिनेमा को सॉफ्ट टारगेट बनाया गया। कभी देवताओं की तरह पूजे जाने वाले उसके सितारों को घृणा और बॉयकॉट अभियानों का शिकार बनाया गया। खासकर हिंदी सिनेमा को हिंदू-मुस्लिम के सांप्रदायिक दलदल में ढकेला गया। देश में अचानक ऐसी फिल्मों की बाढ़ आ गई, जिसमें मुसलमानों, वामपंथियों और उदारवादियों को खलनायक के तौर पर पेश किया गया। संज्ञेय यह कि इन सबका जुड़ाव 2014 के भगवा उभार, बॉलीवुड में ‘खान’ (शाहरूख खान, सलमान खान और आमिर खान जैसे) सितारों के वर्चस्व व फिल्मी दुनिया की धर्मनिरपेक्ष मिजाज से है, जो ब्राह्मणवादियों को कभी भी रास नहीं आई।
बड़े पर्दे पर ऐसी दिखी सांस्कृतिक वर्चस्व की लड़ाई
दरअसल पिछले दस वर्षों में हिंदी सिनेमा को सांस्कृतिक वर्चस्व की लड़ाई का मैदान बना दिया गया है। इसके पीछे कई कारण हैं। इसमें कोई संदेह नहीं कि आजादी के बाद दशकों तक भारतीय सिनेमा पर नेहरूवादी समाजवाद और वामपंथी प्रभाव रहा। इसका असर भी समाज में खूब देखा गया। लेकिन सत्ता के केंद्र में आने के बाद ब्राह्मणवादी ताकतें सिनेमा के इस सॉफ्ट पॉवर को सीधे तौर पर नियंत्रित करते हुए इसका अपने तरीके से उपयोग करना चाहती हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) जो खुद को एक सांस्कृतिक संगठन के तौर पर पेश करता है, बॉलीवुड को धर्मनिरपेक्षता के गढ़ के रूप में देखता रहा है और लंबे समय से इसके मिजाज को बदलने का मंसूबा पाले हुए है।
एक और कारण बॉलीवुड के शीर्ष तीन “खान” सुपरस्टार हैं, जो नब्बे के दशक से बॉलीवुड और दर्शकों के दिलों पर राज कर रहे हैं तथा जिनके प्रशंसक धार्मिक सीमा रेखाओं से परे हैं। इन तीन सितारों की अभूतपूर्व लोकप्रियता हैरान कर देने वाली है और वे हमें पुरानी सुपरस्टार तिकड़ी राज कपूर, देव आनंद और दिलीप कुमार की याद दिलाते हैं। इतने व्यापक ध्रुवीकरण वाले समय में भी हिंदी सिनेमा के इस अनोखी स्थिति को लेकर ब्राह्मणवादियों की चिढ़ समझी जा सकती है। इसलिए पिछले एक दशक से खान सितारे लगातार उनके निशाने पर बने रहे हैं। इस दौरान सोशल मीडिया पर उन्हें ट्रोल किया जाना या उनकी फिल्मों के बहिष्कार की मांग बहुत आम रही है।
दिवंगत अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की खुदकुशी के बाद तो बॉलीवुड के खिलाफ सुनियोजित बॉयकॉट अभियान चलाया गया, जिसमें पूरी फिल्म इंडस्ट्री को नशेड़ी और अपराधियों के बीच सांठ-गांठ के तौर पर पेश करने की कोशिश की गई। इस संबंध में ब्रिटिश ब्रॉडकास्टिंग कारपोरेशन (बीबीसी) द्वारा किए गए एक पड़ताल में पाया गया कि बॉलीवुड और उसके कलाकारों के ख़िलाफ़ किसी योजना के तहत एक नकारात्मक अभियान चलाया गया और ऐसा करनेवाले वाले अधिकतर लोग बहुसंख्यक दक्षिणपंथी विचारधारा के हैं तथा उनका जुड़ाव सत्ताधारी पार्टी से भी है।
सांस्कृतिक वर्चस्व की इस लड़ाई में आज हमारे समाज की तरह बॉलीवुड भी खेमों में बंट गया है। यहां भी हिंदू-मुस्लिम का सवाल आम हो चुका है और पूरी इंडस्ट्री जबरदस्त वैचारिक दबाव के दौर से गुजर रही है।
सत्ता का सचेत हस्तक्षेप
अभी हाल ही में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गत 3 मई को कर्नाटक में एक चुनावी जनसभा में ‘द केरल स्टोरी’ फिल्म का जिक्र करते हुए कहा कि इस फिल्म में केरल में चल रही ‘आतंकी साजिश’ (लव जिहाद) का खुलासा किया गया। इससे पूर्व फरवरी, 2024 में प्रधानमंत्री जम्मू कश्मीर की एक सभा में लोगों को ‘आर्टिकल 370’ फिल्म देखने की सलाह देते हुए कह चुके हैं कि “मैंने सुना है कि इस हफ्ते ‘आर्टिकल 370’ पर एक फिल्म रिलीज होने वाली है… यह अच्छी बात है, क्योंकि इससे लोगों को सही जानकारी हासिल करने में मदद मिलेगी।”
दरअसल पिछले एक दशक में ब्राह्मणवादी एजेंडे पर आधरित फिल्मों को भाजपा के केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा जबरदस्त तरीके से प्रचारित किया जाता रहा है जिसमें प्रधानमंत्री से लेकर मुख्यमंत्री तक शामिल रहते हैं।
सनद रहे कि यह केवल एक–दो या तीन फिल्मों का मसला भर नहीं है। हकीकत तो यह है कि 2014 में केंद्र में मोदी सरकार के आने के बाद हिंदी फिल्म इंडस्ट्री का एक खेमा संघ और भाजपा विचारधारा पर केंद्रित फिल्मों का निर्माण कर रहा है। ये फिल्में राजनीतिक प्रोपेगेंडा के साथ ही अल्पसंख्यकों व आदिवासियों के विरूद्ध नॅरेटिव को बढ़ावा देती हैं। इन फिल्मों की सूची में ‘बुद्धा इन ट्रैफिक जाम’, ‘द एक्सिडेंटल प्राइम मिनिस्टर’, ‘द केरला स्टोरी’, ‘द कश्मीर फाइल्स’, ‘पीएम नरेंद्र मोदी’, ‘72 हूरें’, ‘द वैक्सीन वार’, ‘मैं अटल हूं’, ‘स्वातंत्रयवीर सावरकर’, ‘आर्टिकल 370’, ‘बस्तर-द नक्सल स्टोरी’ जैसी फ़िल्में प्रमुख रूप से शामिल हैं।
यह महज संयोग नहीं, बल्कि सुनियोजित साजिश ही है कि 2024 के लोकसभा चुनाव से ठीक पहले ‘बस्तर- द नक्सल स्टोरी’ रिलीज की गई है, जिसे लेकर दावा किया गया है कि यह फिल्म पिछले 60 वर्षों से भारत में सक्रिय उग्रवाद वामपंथ के गहरे गठजोड़ को उजागर करती है। फिल्म के निर्देशक सुदीप्तो सेन हैं, जिनकी पिछली फिल्म ‘द केरला स्टोरी’ भी काफी विवादित रही थी। इसी प्रकार से ‘जेएनयू : जहांगीर नेशनल यूनिवर्सिटी’ 5 अप्रैल को सिनेमाघरों में रिलीज होने वाली थी, जिसे बाद में स्थगित कर दिया गया। ऐसे ही गोधरा कांड पर बनी फिल्म ‘एक्सीडेंट ऑर कॉन्सपिरेसी गोधरा’ जो इस साल मार्च को रिलीज होने वाली थी, सेंसर बोर्ड से सर्टिफिकेट ना मिलने की वजह से तय समय पर रिलीज नहीं हो सकी।
कुछ और फिल्में भी कतार में हैं, जिसमें ‘रजाकर : साइलेंट जेनोसाइड ऑफ हैदराबाद’ प्रमुख रूप से शामिल है, जिसका निर्माण भाजपा तेलंगाना राज्य कार्यकारी समिति के सदस्य, गुडुर नारायण रेड्डी द्वारा किया गया है। इसके अलावा दीनदयाल उपाध्याय, आरएसएस के संस्थापक डॉ. हेडगेवार की जीवनी पर भी फिल्में बन रही हैं।
बॉलीवुड ने नहीं मानी है हार
लेकिन इन तमाम प्रयासों के बावजूद बॉलीवुड की पुरानी जमीन अभी भी बची हुई है। इस दिशा में साल 2023 के शुरू में रिलीज़ हुई फ़िल्म ‘पठान’ ने बॉयकॉट अभियान के चक्रव्यूह को तोड़ने का काम किया और एक प्रकार से मुश्किल में पड़े बॉलीवुड के वापसी में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इस फिल्म ने एक प्रकार से बॉलीवुड को लेकर ब्राह्मणवादियों द्वारा बनाए गए ख़ास नॅरेटिव को तोड़ा। शायद इसी वजह से फिल्मकार अनुराग कश्यप ने ‘पठान’ की सफलता को सोशियो-पॉलिटिकल उल्लास बताया था।
हिंदी फ़िल्म इंडस्ट्री ने 2013 में अपने सौ साल पूरे कर लिए थे। अपनी तमाम सीमाओं के बावजूद पूरी दुनिया में इसकी पहचान अपनी खास तरह की फिल्मों के लिए रही है। यह हमारे उन चंद पेशेवर स्थानों में है, जो समावेशी है और जिसका दरवाजा सभी के लिए खुला है। यही बात बहुसंख्यक दक्षिणपंथियों को हमेशा से ही खटकती रही है। इसलिए आज वे बॉलीवुड को भी अपना भोंपू बना लेना चाहते हैं और इसके लिए वे हर हथकंडा अपना रहे हैं।