ब्रह्माकुमारीज के मीडिया सम्मेलन में पत्रकारों ने माना
डा. श्रीगोपाल नारस
इस समय संकट के दौर से गुजर रही हिंदी पत्रकारिता को बचाने की आवश्यकता है।पिछले पांच वर्षों में ढाई लाख से ज़्यादा पत्र-पत्रिकाओं का बंद होना जहां चिंता का विषय है,वही पत्रकारिता से जुड़े लोगों पर व्याप्त रोजी रोटी के संकट ने पत्रकारिता के मूल मिशनरी स्वरूप को हमसे छीन लिया है।रही सही कसर उन कुछ पूंजीपति मीडिया मालिकों ने पूरी कर दी जो स्वार्थ के चक्कर मे सत्ता के साथ बह गए और निष्पक्ष पत्रकारिता का बीच चौराहे पर चीर हरण होता सब देखने को मजबूर है।
कुछ समय पहले कोरोना महामारी ने पत्रकारिता पर कुठाराघात कर छोटे, मझोले अखबारो को प्रायः निगल लिया था।क्षेत्रीय ,प्रादेशिक व राष्ट्रीय अखबार लॉक डाउन में सिमट कर रह गए थे।उसके बाद से मीडिया स्वयं को स्वावलंबी बना ही नही पाया।सरकार की उपेक्षा और घटती पठनीयता से इतिहास बनती हिंदी पत्रकारिता को बचाने के लिए आज विचार करने की आवश्यकता है। हमे सोचना चाहिए कि वास्तव में सुबह का अखबार कैसा हो? समाचार चैनलों पर क्या परोसा जाए? क्या नकारात्मक समाचारों से परहेज कर सकारात्मक समाचारों की पत्रकारिता संभव है ?क्या धार्मिक समाचारों को समाचार पत्रों में स्थान देकर पाठको को चारित्रिक रूप से सम्रद्ध बनाया जा सकता है ? हाल ही में देश के साढ़े चार सौ पत्रकारों ने ब्रहमाकुमारीज के माउण्ट आबू स्थित ज्ञान सरोवर में हुए एक मीडिया सम्मेलन में एक स्वर में निर्णय लिया गया है कि व्यक्तिगत एवं राष्टृीय उन्नति के लिए उज्जवल चरित्र व सांस्कृतिक निर्माण के सहारे सकारात्मक समाचारों को प्राथमिकता देकर मीडिया सामग्री में व्यापक बदलाव लाने का काम किया जाएगा। इस मीडिया सम्मेलन में विकास व चरित्र निर्माण से सम्बन्धित समाचारों,स्वच्छता,संस्कृति,नैतिकता और आध्यात्मिक मूल्य जैसे मुददों का समावेश कर स्वस्थ पत्रकारिता का लक्ष्य निर्धारित करने की भी पहल की जाएगी ।सम्मेलन में ऐसे समाचारों को परोसने से परहेज करने की सलाह दी गई जिसको चैनल पर देखकर या फिर अखबार में पढकर मन खराब होता हो या फिर दिमाग में तनाव उत्पन्न होता हो या फिर ऐसी खबरों से समाज पर कोई विपरीत प्रभाव पड़ता हो।
ब्रह्माकुमारीज के मीडिया सम्मेलन में आए पत्रकारों ने माना कि बदलते दौर में हिन्दी पत्रकारिता के भी मायने
बदल गए है। दुनिया को मुठठी में करने के बजाए पत्रकारिता गली मोहल्लो तक सिकुडती जा रही है। अपने आप को राष्टृीय स्तर का बताने वाले समाचार पत्र क्षेत्रीयता के दायरे में और क्षेत्रीय स्तर का बताने वाले समाचार पत्र स्थानीयता के दायरे में सिमटते जा रहे है। जो पत्रकारिता के लिए शुभ संकेत नही है। सही मायने में पत्रकारिता का अर्थ अपनीऔर दुसरों की बात को दूर तक पंहुचाना है।साथ ही यह भी जरूरी है कि किस घटना को खबर बनाया जाए और किसे नही,इस पर भी विचार करना होगा।पत्रकारिता में भी यह ध्यान रखना जरूरी है कि देश और समाज हित सर्वपरि है।
आज की पत्रकारिता बाजारवाद से ग्रसित होने के साथ साथमल्यों की दृष्टि से रसातल की तरफ जा रही है। बगैर कार्यक्रम हुए ही कपोल कल्पित कार्यक्रम की खबरे आज अखबारो की सुर्खियां बनने लगी है,सिर्फ नाम छपवाने के लिए जारी झूठीसच्ची विज्ञप्तियों के आधार पर एक एक खबर के साथ बीस बीस नाम प्रकाशित किये जाने लगे है जो पत्रकारिता की विश्वसनीयता कोन सिर्फ प्रभावित कर रहे है बल्कि ऐसी पत्रकारिता पर सवाल उठने भी स्वाभाविक है। इसके पीछे अक्सर यह तर्क दिया जाता है कि जितने ज्यादा नाम प्रकाशित होगे, उतना ही ज्यादा अखबार
बिकेगा, लेकिन यह पत्रकारिता के स्वास्थ्य के लिए ठीक नही है । ठीक यह भी नही है कि प्रसार संख्या बढाने की गरज से समाचार पत्र को इतना अधिक स्थानीय कर दिया जाए कि वह गली मोहल्ले का अखबार बन कर रह जाए। आज हालत यह है कि ज्यादातर अखबार जिले और तहसील तकसिमट कर रह गए है। यानि एक शहर की खबरे दूसरे शहर तक नही पंहुच पाती है।इससे पाठक स्वयं को ठगा सा महसूस करता है। ऐसा नही है कि स्थानीय खबरो की जरूरत न हो, लेकिन यदि एक अखबार में 4से 6 पेज तक स्थानीय खबरों के छपने लगे तो खबरों का स्तर स्वतः गिर जाएगा।आज पाठक को क्षेत्रीय,राष्टृीय औरअर्न्तराष्टृीय खबरे कम पढने को मिल रही है, जो उनके साथअन्याय है। वैसे भी खबर वही है, जो दूर तक जाए यानि दूरदराज के क्षेत्रो तक पढी जाए। दो दशक पहले तक स्थानीय खबरो पर आधारित अखबार बहुत कम थे। पाठक राष्टृीय स्तर के अखबारो पर निर्भर रहता था। वही लोगो की अखबार पढनेमें रूची भी अधिक थी। स्थानीय अखबारो ने पाठक संख्या तो बढाई है लेकिन पत्रकारिता के स्तर को कम भी किया है। आज पीत पत्रकारिता और खरीदी गई खबरो से मिशनरी पत्रकारिता को भारी क्षति हुई है। जिसे देखकर लगता है जैसे पत्रकारिता एक मिशन न होकर बाजार का हिस्सा बनकर गई हो।
पत्रकारिता में परिपक्व लोगो की कमी,पत्रकारिता पर हावी होते विज्ञापन,पत्रकारो के बजाए मैनेजरो के हाथ में खेलती पत्रकारिता ने स्वयं को बहुत नुकसान क्षति पहुंचाई है। आज जरूरी है पत्रकारिता निष्पक्ष हो लेकिन साथ ही यह भी जरूरी हैऐसी खबर जो सच होते हुए भी राष्टृ और समाज के लिए हानिकारक हो, तो ऐसी खबरो से परहेज करना बेहतर होता है। जस्टिस मार्कण्डेय काटजू कायह ब्यान कि पत्रकारिता को एक आचार संहिता की आवश्यता है,अपने आप में सही है, जरूरत इस बात कि है कि यह आचार संहिता स्वयं पत्रकार तय करे कि उसे मिशनरी पत्रकारिता को बचाने के लिए क्या रास्ता अपनाना चाहिए जिससे स्वायतता और पत्रकारिता
दोनो बची रह सके। इसके लिए जरूरी है कि पत्रकार प्रशिक्षित हो और उसे पत्रकारिता की अच्छी समझ हो,साथ ही उसे प्रयाप्त वेतन भी मिले।ताकि वह शान के साथ पत्रकारिता कर सके और उसका भरण पोषण भी ठीक ढंग से हो सके।तभी पत्रकारिताअपने मानदण्डो पर खरी उतर सकती है और अपने मिशनरी स्वरूप को इतिहास बनने से बचा सकती है।इस लक्ष्य तक पहुंचने में ब्रह्माकुमारीज का सकारात्मक पत्रकारिता मिशन कारगर हो सकता है।ब्रह्माकुमारीज ने विज्ञापन मुक्त मीडिया का उदाहरण स्वयं प्रस्तुत कर यह सिद्ध कर दिखाया है कि मीडिया की प्रकाशित या प्रसारित सामग्री अच्छी हो तो बिना विज्ञापन के भी मीडिया जीवित रहते हुए सशक्त बन सकता है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व 21 पुस्तकों के लेखक है)