अग्नि आलोक
script async src="https://pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js?client=ca-pub-1446391598414083" crossorigin="anonymous">

नव-वर्ष पर हुआ हिंदी-उर्दूवाद हमारा उत्थान दर्शाता है या पतन 

Share

 पुष्पा गुप्ता 

     नए साल पर एक मित्र का फोन आया। मैंने कहा- नववर्ष की बधाई। मित्र ने चुटकी लेने की कोशिश की- ‘आपको तो मुबारकबाद पर भरोसा है, बधाई क्यों? मैंने हंसते हुए बता दिया कि दोनों शब्दों के अर्थ बिल्कुल एक हैं। कहीं अगर अंतर है तो उनके दिमाग़ में है।  

       लेकिन यह मामला हंसने का नहीं है। फिर सवाल ये भी है कि भाषा अगर दिमाग़ में नहीं होती तो कहां होती है? शब्द तो बस माध्यम होते हैं। वे जो अर्थ संप्रेषित करते हैं, वह हमारे दिमाग़ में ही बनते हैं। मगर वह दिमाग़ कहां से बनता है जो बधाई और मुबारकबाद में अंतर देखता है? बहुत सारे लोग मानते हैं कि ‘बधाई’ हिंदी शब्द है और ‘मुबारकबाद’ उर्दू।

        वे शायद नहीं जानते कि बहुत सारे शब्द दोनों भाषाओं में साझा हैं और दोनों भाषाएं एक-दूसरे की लगभग हमशक़्ल हैं क्योंकि एक ही विरासत की जायी हैं। जिन्हें उर्दू शब्द कहते हैं, उन्हें अगर हिंदी से निकाल दिया जाए- जिसकी वकालत बहुत सारे लोग करते हैं- तो जो हिंदी बचेगी, वह बहुत सारे लोग बोल नहीं पाएंगे और बहुत सारे दूसरे लोग समझ नहीं पाएंगे।

      इसके अलावा बहुत सारे ऐसे शब्द युग्म हैं जिनमें एक शब्द हिंदी का है और दूसरा उर्दू का- और उनमें कोई फ़र्क महसूस नहीं होता। ‘फ़र्क’, ‘महसूस’, ‘कोशिश’ या ‘भरोसा’ जैसे शब्द अगर उर्दू के मान लिए जाएंगे तो हिंदी बहुत आधी-अधूरी और कृत्रिम जान पड़ेगी। इसी तरह उर्दू को हिंदी से पूरी तरह विच्छिन्न कर दिया जाएगा तो वह कुछ अजनबी और दूर खड़ी ज़ुबान दिखेगी।

 हिंदी और उर्दू के इस रिश्ते को भगवतीचरण वर्मा की कहानी ‘दो बांके’ अपनी शुरुआत में बहुत प्यारे ढंग से पकड़ती है। लेखक ‘बांके’ शब्द की बात करता है- बताता हुआ कि उर्दू वाले इसे बांकपन से जोड़ कर अपना बताते हैं, जबकि हिंदी वाले याद दिलाते हैं कि ‘बांका’ शब्द संस्कृत के ‘बंकिम’ से आया है और इसलिए हिंदी का है।

      दरअसल हिंदी-उर्दू की इस अपरिहार्य-अविभाज्य साझेदारी को लेकर तथ्यात्मक, भावुक, साहित्यिक और राजनीतिक- हर तरह की दलीलें आती रही हैं। फ़िराक़ गोरखपुरी ने अपनी किताब ‘उर्दू भाषा और साहित्य’ में ऐसे सैकड़ों शब्द युग्मों के उदाहरण दिए हैं जिनमें हिंदी-उर्दू के शब्दों को अलगाना संभव नहीं है।

         दुष्यंत कुमार ने अपने ग़ज़ल संग्रह ‘साये में धूप’ की भूमिका में लिखा है कि हिंदी और उर्दू जब अपने सिंहासनों से उतर कर आती हैं तो वे आम आदमी की ज़ुबान बन जाती हैं। संस्कृत के ब्राह्मण और  ऋतु बिरहमन और रुत बन जाते हैं।

     शमशेर बहादुर सिंह की मशहूर पंक्तियां हैं- ‘

   मैं हिंदी और उर्दू का दोआब हूं / मैं वो आईना हूं जिसमें आप हैं।’ महात्मा गांधी ने बाक़ायदा हिंदी-उर्दू को पीछे छोड़ हिंदुस्तानी को इस देश की ज़ुबान बनाने का सुझाव दिया था।  

लेकिन मामला हिंदी या उर्दू का नहीं है, उस दिमाग़ का है जो इन भाषाओं में सांप्रदायिकता देखता है। यह हमारा उत्थान नहीं, पतन दर्शाता है. इस दिमाग को उर्दू के शब्द पराये लगते हैं, उर्दू की किताबें संदिग्ध लगती हैं।

     यही दिमाग़ एक स्कूल में इक़बाल की नज़्म ‘लब पे आती है दुआ बनके तमन्ना मेरी’ गाए जाने को सांप्रदायिक मानता है और ‘मेरे अल्लाह बुराई से बचाना मुझको’ के अल्लाह को ‘अल्लाह-ईश्वर तेरो नाम’ की तजबीज के बावजूद पराया मानता है।  

यह सच है कि हिंदी और उर्दू को सांप्रदायिक पहचान के आधार पर बांटने वाली दृष्टि बिल्कुल आज की नहीं है। उसका एक अतीत है और किसी न किसी तरह यह बात समाज के अवचेतन में अपनी जगह बनाती रही है कि हिंदी हिंदुओं की भाषा है और उर्दू मुसलमानों की।

       हिंदी की नई-पुरानी ऐतिहासिक फिल्मों में हिंदू राजा ठेठ तत्समनिष्ठ हिंदी बोलते दिखाई पड़ते हैं जबकि मुस्लिम राजा नफ़ीस उर्दू। बल्कि हिंदू राजा को महाराज या सम्राट कहा जाता है और मुस्लिम राजा को बादशाह या शहंशाह।  

हिंदी-उर्दू के अलगाव के इस मासूम बेख़बर खेल में हिंदी का लोकप्रिय सिनेमा फंसता हो तो एक बात है, विष्णु खरे जैसे चौकन्ने कवि भी फंसते दिखाई प़डते हैं। उनकी बड़ी अच्छी कविता है- ‘गुंग महल।‘ इसमें एक लोककथा का सहारा लिया गया है। अकबर जानना चाहता है कि ईश्वर की ज़ुबान क्या है।

     पंडितों का दावा है कि यह देवभाषा संस्कृत है। मुल्ला कहते हैं कि अरबी है। अरबी में ही ‘कुन’ से क़ायनात वजूद में आई। कविता में अकबर कुछ नवजात बच्चों को एक गुंगमहल में रखता है जहां कोई बोलने वाला नहीं है। कई बरस बाद वह इन बच्चों की ज़ुबान सुनना चाहता है तो डर जाता है- वे बच्चे बस गोंगों कर रहे हैं। 

       लेकिन अकबर के प्रयोग की नियति और ईश्वर की ज़ुबान की बात करते हुए विष्णु खरे अपनी कविता के महीन शिल्प के बीच यह भूल गए कि न अकबर के दरबार के मुल्ले वैसी उर्दू बोलते थे जैसी उनकी कविता में है और न पंडित वैसी तत्समनिष्ठ हिंदी बोल सकते थे जो वे बोलते दिखते हैं। वह भाषा कुछ और थी जिस पर स्थानीय बोलियों का असर था और जिसे आने वाली सदियों में उर्दू या हिंदी के रूप में विकसित होना था। न अकबर उर्दू बोलते थे और न राणा प्रताप हिंदी बोलते थे।

       अकबर कैसी भाषा बोलता था, इसका कुछ सुराग शाज़ी ज़मां का उपन्यास ‘अकबर’ देता है जो काफ़ी गहन शोध के साथ लिखा गया है। 

बहरहाल, हिंदी-उर्दू के ताज़ा विवाद पर लौटें। तब लोगों के अवचेतन में सम्राटों और बादशाहों के बीच बंटी हिंदी-उर्दू अपने चरित्र में सांप्रदायिक नहीं थी। कबीर और तुलसी जिस अवधी में लिखते थे, उसमें संस्कृत-अरबी-फ़ारसी सबकी छौंक हुआ करती थी।

       तुलसीदास दरिद्रनारायण नहीं, ग़रीबनवाज़ लिखते हैं- एक बार नहीं, बार-बार। बीती सदी के शुरू में जब राजा राधिकारमण प्रसाद सिंह ‘दरिद्रनारायण’ के नाम से राजा के कर्तव्य पर एक सुंदर सी कहानी लिखते हैं तो उर्दू की बहुत ख़ूबसूरत छौंक लगाते हैं।

      जबकि छायावादी कविता अपनी तत्समता के बावजूद मोटे तौर पर साहित्य की प्रगतिशील धारा है और उस दौर की उर्दू कविता तो अपनी प्रगतिशीलता और आधुनिकता में बेमिसाल है। दिनकर जब ‘रश्मिरथी’ लिखते हैं तो तत्समनिष्ठ शब्दावली के बावजूद उर्दू से परहेज नहीं करते। वे लिखते हैं :

    ‘ज़ंजीर बढ़ा कर साध मुझे / हां-हां दुर्योधन बांध मुझे।‘ वे ‘ज़ंजीर’ को किसी दूसरे शब्द से बदलने की परवाह नहीं करते। इससे पहले वह पांडव का संदेशा लाते हैं- ‘दो न्याय अगर तो आधा दो / पर इसमें भी यदि बाधा हो / तो दे दो केवल पांच ग्राम / रखो अपनी धरती तमाम / हम वही ख़ुशी से खाएंगे / परिजन पर असि न उठाएंगे।‘

     दिनकर यह कोशिश नहीं करते कि वे ‘तमाम’ की जगह ‘कुल’ शब्द का इस्तेमाल करें या ‘ख़ुशी’ की जगह ‘हर्ष’ लिखें। उन्हें भाषा का सहज प्रवाह मालूम है।  

मुश्किल यह है कि जो लोग आज मुबारकबाद की जगह बधाई के इस्तेमाल का सुझाव दे रहे हैं वे न कायदे की हिंदी जानते हैं न क़रीने की उर्दू। ये वे लोग हैं जो एक साथ ग़ालिब-दिनकर-बच्चन-महादेवी और गुलज़ार तक का दुरुपयोग करते हुए अधकचरे विचारों से भरी अधकचरी पंक्तियां सोशल मीडिया पर ठेलते रहते हैं और उस मिथ्या राष्ट्रवाद पर गुमान करते हैं जिसकी एक शाखा भाषाई विभाजन तक पहुंचती है।

     दुर्भाग्य से ये विद्वेष उन दिनों तक चला आया है जिन्हें हम बहुत ख़ुशी से मनाते हैं- चाहे वह नया साल हो या फिर होली-दिवाली।  

      दरअसल हमारी सामाजिकता में जो दरार पड़ी है, उसका असर हिंदी-उर्दू के रिश्ते पर दिख रहा है। हालांकि यह रिश्ता इतने धागों से बंधा है कि टूटेगा नहीं। इसे प्रेमचंद और मंटो जैसे लेखक बांधते हैं, कुर्रतुलऐन हैदर और इस्मत चुगतई जैसी लेखिकाएं और ग़ालिब-मीर से लेकर साहिर-क़ैफ़ी आज़मी जैसे शायर बांधते हैं, इसे वे तमाम ग़ज़लें और कव्वालियां बांधती हैं जिनके बिना हिंदुस्तान का सांस्कृतिक-साहित्यिक माहौल अधूरा है।

       मुनव्वर राना ने लिखा भी है :

   ‘लिपट जाता हूं मां से और मौसी मुस्कुराती है / मैं उर्दू में ग़ज़ल कहता हूं हिंदी मुस्कुराती है।‘

script async src="https://pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js?client=ca-pub-1446391598414083" crossorigin="anonymous">

Follow us

Don't be shy, get in touch. We love meeting interesting people and making new friends.

प्रमुख खबरें

चर्चित खबरें