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धार की कमल मौला मस्जिद का हाल बाबरी जैसा करने की कवायद में हिंदू समूह

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हरतोष सिंह बल 

धार में हिंदू समूहों का दावा है कि कमल मौला मस्जिद ग्यारहवीं शताब्दी की एक संरचना है, जिसे भोजशाला कहा जाता है, जो मध्यकालीन सम्राट भोज द्वारा संचालित एक स्कूल था और यह देवी सरस्वती के मंदिर का स्थान था, जिसे वाग्देवी भी कहा जाता है.

सितंबर 2023 में मध्य प्रदेश चुनाव से बमुश्किल दो महीने पहले पुलिस ने धार शहर में कमल मौला मस्जिद के परिसर में सरस्वती की मूर्ति रखने की कोशिश करने के आरोप में चार लोगों को गिरफ्तार किया. गिरफ्तार किए गए लोग राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़ी हिंदू राष्ट्रवादी पार्टी अखिल भारत हिंदू महासभा से थे. हिंदू महासभा ने बाद में दावा किया कि मंदिर के भीतर सरस्वती की एक मूर्ति अपने आप ही प्रकट हो गई थी.

यह घटना उस बात की एक भयानक याद दिलाती है जब 1949 में बाबरी मस्जिद में एक मूर्ति के प्रकट होने का ऐसा ही दावा किया गया था. उसमें भी हिंदू महासभा के सदस्य शामिल थे. 1949 की उस घटना ने एक दशक लंबे राजनीतिक और सामाजिक विवाद को जन्म दिया. धार में हिंदू समूहों का दावा है कि कमल मौला मस्जिद दरअसल ग्यारहवीं शताब्दी की एक संरचना है, जो भोजशाला है. यह एक स्कूल था जिसे मध्यकालीन सम्राट भोज चलाते थे और यह देवी सरस्वती के मंदिर का स्थान था, जिसे वाग्देवी के रूप में जाना जाता है. उत्तर प्रदेश में अयोध्या, वाराणसी और मथुरा में विवादित मस्जिदों से आगे बढ़ते हुए हिंदुत्व संगठनों ने धार्मिक मान्यताओं के नाम पर राजनीतिक लामबंदी की चाह में अपना ध्यान कमल मौला मस्जिद और कर्नाटक में बाबा बुदनगिरी दरगाह पर टिका दिया है.

पिछले तीन दशकों में, खासकर 1998 से 2003 तक जब तक मध्य प्रदेश में कांग्रेस की सरकार थी, धार में हिंदू समूहों ने इस जहग पर दावा करने के कई कोशिशें कीं, जिससे प्रदर्शनकारियों और पुलिस के बीच कई बार टकराव के हालात बने. भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के जारी दिशानिर्देशों का पालन करते हुए अप्रैल 2003 में, राज्य सरकार ने हिंदुओं को मंगलवार को इस जगह पर प्रार्थना करने की और मुसलमानों को शुक्रवार के दिन मस्जिद में नमाज अदा करने की इजाजत दी. कांग्रेस की सरकार के दौरान हुई लामबंदी के बाद मंदिर पर ज्यादातर तनाव शिवराज सिंह चौहान के नेतृत्व वाली भारतीय जनता पार्टी सरकार के दौरान हुआ, जिसने सत्ता में अपने दो दशकों के दौरान यथास्थिति को बनाए रखा.

सितंबर में इस तरह की खबरें स्थानीय मीडिया में दर्ज की गई थी, लेकिन, राष्ट्रीय स्तर पर यह चुनाव अभियान के शोर में खो गईं. हालांकि, ये दक्षिणपंथी समाचार वेबसाइट ऑपइंडिया की नजर से बच नहीं पाईं. ऑपइंडिया की रिपोर्ट के मुताबिक, “9 सितंबर की रात को सोशल मीडिया पर एक वीडियो वायरल हुआ, जिसमें दावा किया गया कि ग्यारहवीं सदी के स्मारक में देवी की एक मूर्ति ‘प्रकट’ हुई है. उसी रात इसी तरह के दावे वाला एक और मेसेज व्हाट्सएप पर भी वायरल हुआ. उस वीडियों को सुबह लगभग 4 बजे भोजशाला परिसर में बनाया गया था और क्लिप के इंटरनेट पर वायरल होने के बाद एक अनजान जगह पर रख दिया गया… पुलिस अधीक्षक इंद्रजीत बाकलवार ने इसे शरारती लोगों की साजिश बताया है और कहा है कि कुछ लोगों ने परिसर की सुरक्षा के लिए लगाए गए तार को तोड़ कर वहां सरस्वती की मूर्ति रख दी.”

राज्य में चुनाव अभियान पर रिपोर्टिंग करते हुए, हम हिंदू महासभा के कार्यकर्ता शिव कुमार भार्गव का पता लगा पाए, जिन्हें मस्जिद परिसर में मूर्ति रखने के आरोप में गिरफ्तार किया गया था. भार्गव ने हमें बताया कि देवी ने उन्हें सपने में दर्शन दिए थे और बताया था कि वह परिसर में खुद प्रकट हुई हैं.

भार्गव उस वक्त मध्य प्रदेश के हरदा में हिंदू महासभा की बैठक में भाग ले रहे थे. उन्होंने अपने साथ वालों को अपनी देखी बात बताई और उन्हें देवी के दर्शन के लिए दो सौ किलोमीटर दूर स्थित धार की यात्रा पर ले गए. “वह आंगन के अंदर दिखाई दी थीं. हमने मूर्ति उठाई, उसे गर्भगृह के पास रखा और वापस आ गए,” भार्गव ने कहा. “पुलिस और प्रशासन वहां पहुंचे और उन्होंने मूर्ति हटा दी. बाद में हमें पता चला कि एएसआई ने कहा था कि वहां कोई मूर्ति नहीं थी. हम फिर धार गए और उन्हें बताया कि हमने मूर्ति देखी है और हमने दर्शन किए हैं. उन्होंने हमारी बात सुनने से इनकार कर दिया और हमें गिरफ्तार कर लिया गया.”

हमने उनसे पूछा कि देवी केवल हिंदू महासभा के सदस्यों के ही सपनों में क्यों आती हैं? उन्होंने जवाब दिया, “यह सच है कि अयोध्या में भी ऐसा ही हुआ था लेकिन फिर आपको देवी के प्रकट होने के लिए तैयार रहना चाहिए.”

कमल मौला मस्जिद परिसर का मामला इस बात का सबूत है कि कैसे हिंदुत्व समूह राजनीतिक मकसद के लिए विवादास्पद मुद्दे गढ़ते हैं और इन्हें तब तक भड़काते रहते हैं जब तक उबाल न आ जाए. समय के साथ, ये समूह उन तीर्थस्थलों के आसपास बेदखली के किस्से गढ़ने में कामयाब रहे हैं जहां इतिहास इतना धुंधला है कि घटनाओं की अलग-अलग व्याख्या के लिए स्पेस मिल जाता है. लेकिन कमल मौला मस्जिद परिसर का मामला एक कदम आगे चला जाता है, जहां विवाद एकदम शून्य से गढ़ा गया है- एक मनगढ़ंत कहानी जिसका इतिहास या मिथक में कोई वजूद नहीं है.

ब्रिटिश म्यूजियम के क्यूरेटर माइकल विलिस ने 2012 में “जर्नल ऑफ रॉयल एशियाटिक सोसाइटी” में “धार, भोज, एंड सरस्वती: फ्रॉम इंडोलॉजी टू पॉलिटिकल माइथोलॉजी एंड बैक,” शीर्षक से एक लेख लिखा था. इस लेख में विलिस बताते ​हैं ​कि किस तरह हिंदूवादी संगठनों ने भोजशाला का विचार गढ़ा. यह लेख “जेआरएएस” के एक खंड में छपा जो मध्यकालीन भारत और परमार राजवंश को समर्पित था.

विलिस के अनुसार, औपनिवेशिक अभिलेखों में संरचना का पहला जिक्र 1822 में प्रकाशित मालवा प्रांत पर जॉन मैल्कम की रिपोर्ट में मिलता है, जहां इसे “एक बर्बाद मस्जिद” बताया गया है. उस समय के लिखित अभिलेखों की जांच से भोजशाला का कोई जिक्र नहीं मिलता है. “इस बिंदु पर चुप्पी…,” विलिस ने निष्कर्ष निकाला, “दिखाती है कि उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य के दशकों में भोजशाला के बारे में कोई जीवित परंपराएं नहीं थीं.”

इस इतिहास में अगले महत्वपूर्ण व्यक्ति एलोइस एंटोन फ्यूहरर हैं, जो एक एएसआई कर्मचारी और जर्मन इंडोलॉजिस्ट हैं, जिन्होंने 1893 में मस्जिद के बारे में लिखा था, “मस्जिद के केंद्रीय गुंबद को सहारा देने वाले दो स्तंभों पर व्याकरण के कुछ सूत्र अंकित हैं, मुमकिन है कि वे किसी शैक्षिक इमारत का हिस्सा थे.” संरचना के सन्दर्भ में यह किसी स्कूल का पहला उल्लेख है. 1898 में, इतिहासकार और सिविल सेवक विंसेंट स्मिथ ने फ्यूहरर के काम की जांच की. विलिस के शब्दों में, स्मिथ ने “खराब विद्वता और खराब पुरातात्विक समझदारी को पेश किया है.” फ्यूहरर को आखिर में एएसआई से इस्तीफा देने के लिए मजबूर होना पड़ा.

इसके बाद विलिस ने परिसर के लिए हिंदू दक्षिणपंथियों द्वारा इस्तेमाल किए गए शब्द भोजशाला को तलाशना शुरू किया जो उन्हें 1903 की एक रिपोर्ट में मिला. यह राज्य के शिक्षा अधीक्षक केके लेले द्वारा नवंबर 1903 में धार, सी.आई. के भोज शाला (कमल मौला मस्जिद) में पाए गए नाटकीय शिलालेख का सारांश था.

लेले के लिए मूल पहेली यह थी कि अगर उस दायरे में कमल अल-दीन की मस्जिद की व्याख्या करनी है जहां इसे हिंदू इमारतों के इस्तेमाल से बनाया बताया जा रहा था, तो ‘भोज के स्कूल’ की जगह पर किसी तरह का संस्कृत आधार ढूंढना होगा. ‘राजा भोज का मदरसा’ उर्दू हो जाने से उनका काम नहीं बनता. लेले ने ‘भोजशाला’ शब्द का आविष्कार करके समस्या का हल तलाश लिया. हालांकि यह संस्कृतिकरण का एक चतुर नमूना था. आम बोलचाल की भाषा में या शिल्प-ग्रंथों से ज्ञात वास्तुशिल्प प्रकारों में इसका कोई आधार नहीं था. धर्मशाला तीर्थयात्रियों के लिए ठहरने का एक प्रसिद्ध स्थान था और है और भी कई तरह की इमारतें होती हैं जिनके लिए शाला कहा जाता है, जैसे वर्कशॉप के लिए कर्मशाला है. लेकिन कहीं भी संस्कृत के इस शाला (विद्यालय, विद्यापीठ या ज्ञानपीठ की तरह) जैसी कोई चीज नहीं है और राजा के नाम पर कोई शाला नहीं है.

जैसा कि विलिस ने बताया कि हिंदुत्व की अब इस पहेली का एकमात्र हिस्सा रहा गया था देवी सरस्वती से इसका कथित संबंध. विलिस ने बताया कि यह कोई संयोग नहीं कि “भोजशाला” शब्द चार्ल्स हेनरी टॉनी द्वारा प्रबंध-चिंतामणि के अंग्रेजी अनुवाद के प्रकाशन के तुरंत बाद सामने आया. यह 1304 में जैन विद्वान मेरुतुंगा की लिखी रचना थी. इसमें पौराणिक और अर्ध-ऐतिहासिक जीवनियों का एक संग्रह है. इसे मेरुतुंगा ने पहले के लिखित अभिलेखों पर आधारित किया था. विलिस ने कहा कि इस रचना में धार में सरस्वती मंदिर में भोज की यात्राओं के कई संदर्भ हैं. “मेरुतुंगा मंदिर को सरस्वतीकं थाभरण या सरस्वती का हार कहते हैं.” उन्होंने आगे कहा कि चौदहवीं शताब्दी की इस रचना में एक कहानी का जिक्र है, जिसमें एक जैन विद्वान और लेखक धनपाल ने भोज को “सरस्वती मंदिर में कुछ स्तुति पट्टिकाएं दिखाईं, जिन पर उनकी पहले जिना पर कविता अंकित थी.” जिना कविता केवल उसी स्मारक में दिखाई दे सकती थी जो जैनियों के लिए पवित्र था. इससे साफ है कि विचाराधीन मंदिर एक जैन संरचना थी.

यह तथ्य उस मूर्ति के सवाल को समझने के लिए जरूरी है जो आज ब्रिटिश संग्रहालय में है और जिसे हिंदुत्व संगठन भारत वापस लाना चाहते हैं. 1924 में, एएसआई के तत्कालीन महानिदेशक सहित भारतीय विद्वानों ने दावा किया था कि धार से बरामद जो मूर्ति ब्रिटिश संग्रहालय में गई थी, वह सरस्वती की थी. उन्होंने दावा किया कि देवी की मूर्ति किसी वक्त भोजशाला में मौजूद थी. हिंदुत्व की कल्पना में भोजशाला, आविष्कार और किंवदंती की खिचड़ी से, एक मंदिर और स्कूल दोनों बन गई.

विलिस इस दावे को भी खारिज करते हैं. ऐतिहासिक रिकॉर्डों से पता चलता है कि 1875 में मूर्ति मस्जिद परिसर से नहीं बल्कि पुराने शहर के महल के मलबे से बरामद की गई थी, जिसे उस वक्त फिर से बनाया जा रहा था. जबकि ब्रिटिश संग्रहालय की मूर्ति पर शिलालेख क्षतिग्रस्त है, इसमें भोज और वाग्देवी का उल्लेख है, जो सरस्वती का दूसरा नाम है. मूर्ति के बाद के अध्ययन से मामला और साफ हो गया. विलिस ने यह भी ​दर्ज किया कि विद्वानों ने शिलालेख की फिर से जांच की और 1981 में अपने निष्कर्ष प्रकाशित किए और पाया कि “यह शिलालेख तीन जिना और वाग्देवी के निर्माण के बाद अंबिका की मूर्ति बनाने का रिकॉर्ड देता है.” अंबिका जैन देवी का संदर्भ है. “दूसरे शब्दों में, हालांकि वाग्देवी का वास्तव में जिक्र किया गया है, शिलालेख का मुख्य उद्देश्य अंबिका की एक छवि को रिकॉर्ड करना है, यानी, वह मूर्ति जिस पर रिकॉर्ड खुदा हुआ है.” उन्होंने कहा कि मूर्तिकला में विभिन्न प्रतीकात्मक विवरण इस बात की पुष्टि करते हैं कि मूर्ति अंबिका की है, न कि सरस्वती की.

यहां जो एकमात्र निष्कर्ष निकलता है वह यह कि: रिकॉर्ड केवल यही दर्शाते हैं कि धार में एक जैन मंदिर का अस्तित्व रहा, जहां मुमकिन है कि भोज ने दौरा किया था, और शहर से अंबिका की एक जैन मूर्ति की बरामदगी हुई थी. मूर्ति को मंदिर से या मंदिर को मस्जिद परिसर से जोड़ने का कोई विश्वसनीय ऐतिहासिक साक्ष्य नहीं है और किसी भी​ किस्म के स्कूल का कोई रिकॉर्ड नहीं है. जाहिर है, भोजशाला के रूप में कमल मौला मस्जिद का विचार एक महान राजा के काम को उजागर करने के इरादे से नहीं, बल्कि झूठ का प्रचार करके राजनीतिक लाभ कमाने की इच्छा से गढ़ा गया मिथक है.

मस्जिद परिसर का वास्तविक इतिहास ज्यादा सीधा है. इसके लिए आरएसएस के अपने प्रचार विभाग, विश्व संवाद केंद्र, से बेहतर कोई स्रोत कोई और नहीं हो सकता. वीएसके की भोपाल वेबसाइट उस दावे से शुरू होती है जो पहले ही ऊपर दिया जा चुका है: कि भोजशाला भोज द्वारा निर्मित एक संस्कृत शिक्षा केंद्र था, जिसमें सरस्वती का एक मंदिर था, जिसकी एक मूर्ति थी जो अब भारत के बाहर ब्रिटिश संग्रहालय में है.

यह दावा किया जाता है कि चौदह सौ प्रमुख बुद्धिजीवियों, धार्मिक विद्वानों और कवियों ने भोजशाला में समय बिताया है, जिनमें कवि कालिदास और बाणभट्ट जैसी हस्तियां भी शामिल हैं. इसका बेतुकापन इस तथ्य से जाहिर है कि ये दोनों हस्तियां भोज से कई शताब्दियां पहले की थीं.

वीएसके का कहना है कि कमल मौलाना 1239 में धार आए और इस्लाम में धर्मांतरण कराना शुरू किया. इस तरह, वीएसके का दावा है, उन्होंने मध्यकालीन सम्राट अलाउद्दीन खिलजी के लिए मालवा पर चढ़ाई करने की जमीन तैयार की. इस कथा में, भोजशाला का विनाश कमल मौलाना के समय में शुरू हुआ और 1404 में दिल्ली सल्तनत से जुड़े शासक दिलावर खान के हमले के साथ खत्म हुआ. खान ने कथित तौर पर सूर्यमार्तंड मंदिर को तबाह कर दिया और भोजशाला परिसर के एक हिस्से में एक मस्जिद का निर्माण किया. यही कमल मौला मस्जिद है. वीएसके का दावा है कि खिलजी के हमले के दौरान वनवासियों ने भोजशाला की रक्षा के लिए अपनी जान दे दी. इसमें यह भी लिखा है कि बारह सौ लोगों को कुरान और “तलवार” के बीच चुनने को कहा गया और उन्होंने मौत को चुना.

दरअसल इनमें से किसी का भी कोई आधार नहीं है. इस दावे की हास्यास्पदता 1392-93 के एक शिलालेख से जाहिर होती है. मस्जिद परिसर के बगल में एक छोटी सी संरचना है जिसमें कमल मौलाना की कब्र है और उसके बगल में एक कब्रिस्तान है. यहीं शिलालेख खोदा गया था. इसमें दर्ज है कि धार की मस्जिदें जीर्ण-शीर्ण हो गई थीं और दिलावर खान ने उनका नवीनीकरण कराया था. यह शिलालेख दिलावर खान को धार का राज्यपाल नियुक्त किए जाने के एक साल बाद का है. एक दशक बाद वह मालवा का शासक बन गया. उसने एक नई मस्जिद का निर्माण किया लेकिन वह किले की दीवारों के करीब, कमल मौला मस्जिद परिसर से काफी दूरी पर स्थित थी. शिलालेख इस बात की पुष्टि करता है कि खान की नियुक्ति के समय तक कमल मौला मस्जिद पहले ही अनुपयोगी हो चुकी थी और इसकी जगह मुख्य मस्जिद ने ले ली थी, जिसका वीकेएस की भोजशाला की संरचना से कोई लेना-देना नहीं था.

भोजशाला पर आरएसएस का नजरिया एकदम बेतुका है लेकिन कई प्रचार आउटलेटों द्वारा इसे तथ्य के रूप में दोहराया जाता है जो ऐसे मिथकों को बढ़ाने का काम करते हैं. घटनाओं का वस्तुतः एक ही संस्करण ऑपइंडिया रिपोर्टों में हिंदी और अंग्रेजी दोनों में पाया जा सकता है. इस विषय पर ऑपइंडिया का एक अन्य लेख एक कदम आगे बढ़ कर पूरी तरह से गलत दावा करता है कि “1875 में भोजशाला में खुदाई की गई थी और देवी सरस्वती की भव्य मूर्ति की खोज की गई थी. अंग्रेज इसे ब्रिटेन ले गए और अब यह लंदन के एक संग्रहालय में रखी हुई है.”

वीकेएस के दावों पर फिर से जान फूंकने वाले अंग्रेजी भाषा के ऑपइंडिया लेख में 1200 लोगों की हत्या का भी जिक्र है और इसकी हिंदी लेख का लिंक दिया गया है. हिंदी लेख इस दावे को हिंदू जनजागृति समिति की वेबसाइट से जोड़ता है. इस हिंदुत्ववादी संगठन का लक्ष्य हिंदू राष्ट्र की स्थापना करना है. इसके बाद कड़ी कहीं आगे नहीं जाती. हालांकि, हिंदू जनजागृति समिति का एक अलग वेबपेज है जो इसी सामग्री का ज्यादातर भाग बिना स्रोत के उपलब्ध कराता है. विडंबना यह है कि एचजेएम पेज पर आगे पढ़ने पर हमें बिल्कुल उसी विलिस के लेख को पढ़ने को कहा जाता है जिसे यहां उद्धृत किया गया है. तब यह कहना ज्यादा ठीक होगा कि यहां हिंदुत्ववादी संगठनों द्वारा किए गए दावों का खंडन उस सामग्री पर आधारित है जिसे उन्होंने खुद लोगों से पढ़ने के लिए कहा है.

हिंदू महासभा के कार्यकर्ता शिव कुमार भार्गव को सितंबर 2023 में कमल मौला मस्जिद परिसर में सरस्वती की मूर्ति रखने के आरोप में गिरफ्तार किया गया था..
हिंदू महासभा के कार्यकर्ता शिव कुमार भार्गव को सितंबर 2023 में कमल मौला मस्जिद परिसर में सरस्वती की मूर्ति रखने के आरोप में गिरफ्तार किया गया था.

मस्जिद कैसे बनाई गई यह सवाल हमें भारतीय उपमहाद्वीप में बनी शुरुआती मस्जिदों की संरचना की विशिष्टता की ओर ले जाता है. यहां कमल मौला मस्जिद के विभिन्न घटकों के बारे में विलिस के विवरण को उद्धृत करना उचित होगा.

इमारत में इस्तेमाल किए गए विभिन्न प्रकार के खंभे और दीवारों के साथ प्रदर्शित अन्य शिलालेखों के साथ फर्श पर अभी भी दिखाई देने वाली गुदी हुई पट्टियों की संख्या से पता चलता है कि इस इमारत के लिए सामग्री एक विस्तृत क्षेत्र में कई पुराने स्थलों से एकत्र की गई थी. मस्जिद के निर्माण का दृष्टिकोण जानबूझ कर दिल्ली के कुतुब में किए गए कार्यों की नकल करता है. दोनों इमारतों में केवल इसलिए मंदिर सामग्री का उपयोग नहीं किया गया क्योंकि कुछ और उपलब्ध नहीं था या क्योंकि मंदिर के स्तंभों का उपयोग इस्लामी वर्चस्व का विजयी प्रदर्शन था. बल्कि पुराने मंदिर के हिस्सों का पुन: उपयोग अतीत के संसाधनों- वास्तुशिल्प और सांस्कृतिक दोनों- के व्यापक विनियोग और इस्लाम की उपस्थिति से पहले भारत में अज्ञात एक नए प्रकार के पवित्र स्थान में उनके कट्टरपंथी पुनर्निर्माण का प्रतिनिधित्व करता था. जिस प्रकार व्यक्ति मुस्लिम बनना चुन सकते हैं और नई इस्लामी व्यवस्था में जगह पा सकते हैं, उसी तरह खंभे, बीम और स्लैब को भी परिवर्तित किया जा सकता है और नई वास्तुकला में उचित भूमिका मिल सकती है.

भोजशाला के नाम पर मस्जिद को फिर से हासिल करने के लिए हिंदुत्ववादी संगठनों द्वारा चलाया जा रहा तीखा अभियान हिंदुत्व परियोजना की राजनीतिक जरूरतों के आधार पर उतरता-चढ़ता है और दशकों से ऐसा किया जा रहा है. वर्तमान स्थिति यह है कि एएसआई मुसलमानों को हर शुक्रवार को नमाज की इजाजत देता है, और हिंदुओं को- इस जगह पर उनके दावे के विश्वसनीय सबूत की कमी के बावजूद- मंगलवार और बसंत पंचमी के त्योहार पर पूजा करने की अनुमति है. इससे अनिवार्य रूप से बड़ी कानून-व्यवस्था की समस्याएं पैदा होती हैं और जब भी बसंत पंचमी शुक्रवार को पड़ती है तो हिंदुत्ववादी लामबंदी का बहाना बनता है.

मंदिर तक पहुंच के अधिकारों को धीरे-धीरे, लेकिन लगातार, हिंदुओं के पक्ष में संशोधित किया गया है. यह संघ परिवार द्वारा दो चरणों में सांप्रदायिक लामबंदी के जरिए लगातार दबाव का नतीजा है- पहला बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद और फिर 2003 के विधानसभा चुनाव से पहले जब कांग्रेस सरकार अभी भी राज्य में शासन कर रही थी.

इन सालों में धार शहर में बसंत पंचमी समारोह का उपयोग संघ परिवार द्वारा रैली अभियान चलाने के लिए किया जाता था और उग्र संगठन विश्व हिंदू परिषद के नेता प्रवीण तोगड़िया सहित कट्टरपंथी हिंदुत्ववादी लोगों ने कई दौरे यहां किए.

इस लेख के लेखकों में से एक, हरतोष सिंह बल, 2003 की लामबंदी के दौरान धार में मौजूद थे और उन्होंने इंडियन एक्सप्रेस के लिए इस पर रिपोर्ट की थी. उस साल की बसंत पंचमी पर, जो 6 फरवरी को थी, संघ परिवार द्वारा जुटाए बीस हजार से ज्यादा लोग शहर में आए. हिंदू जागरण मंच नामक एक प्रमुख संगठन के माध्यम से संघ ने दस दिनों तक जिले में रथयात्रा निकाली और हर गांव तक सहायक यात्राएं निकालीं. ज्यादातर भक्तों ने लंबी कतार में इंतजार करने के बाद, एक किलोमीटर से ज्यादा दूर, तोगड़िया द्वारा संबोधित एक धार्मिक सभा, धर्म संगम में जाने से पहले, विवादित मंदिर में प्रार्थना की, जो सुरक्षा बलों की भारी सुरक्षा में था. तोगड़िया ने भीड़ से कहा, ”यहां मंदिरों को तोड़ कर मस्जिद बना दिया गया. धार में सरस्वती की पूजा की इजाजत नहीं है, यह हिंदुस्तान है या अरबिस्तान?” बाद में उन्होंने एक संवाददाता सम्मेलन को संबोधित किया, जहां उन्होंने कहा, “अगर हिंदुओं की पूजा पर प्रतिबंध में ढील नहीं दी गई, तो मैं धार को दूसरी अयोध्या में बदल दूंगा.”

दस दिन से कुछ बाद, 18 फरवरी को, एचजेएम ने भारी पुलिस तैनाती के बीच उस जगह पर धावा बोलने की कोशिश की. उस समय के मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने पहले ही प्रशासन को साफ कर दिया था कि प्रदर्शनकारियों को किसी भी बहाने से जगह पर घुसने की इजाजत नहीं दी जानी चाहिए. पुलिस लाठीचार्ज के बाद, हिंदू कार्यकर्ताओं ने शहर भर में पथराव और आगजनी की घटनाओं को अंजाम देना शुरू कर दिया.

उस स्थान पर तनाव महीनों तक जारी रहा. इसी बीच मध्य प्रदेश और तीन अन्य राज्यों में विधानसभा चुनाव हुए. 18 नवंबर को, गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी शहर में एक रैली को संबोधित करने पहुंचे.

इसने एक खास आवेग दिया. मध्य प्रदेश का मालवा क्षेत्र, जहां धार स्थित है, गुजरात से सटा हुआ है, एक ऐसा राज्य जहां ठीक एक साल पहले गोधरा कांड के बाद मुसलमानों के खिलाफ बड़े पैमाने पर हिंसा देखी गई थी. एक कट्टर हिंदू नेता के रूप में मोदी की प्रतिष्ठा हिंसा के बाद बनी.

मध्य प्रदेश में अपनी राजनीतिक सफलता को दोहराने की कोशिश में बीजेपी ने धार में चुनाव प्रबंधन का प्रभारी गुजराती विधायक मधु श्रीवास्तव को बनाया था जो गुजरात हिंसा में बेस्ट बेकरी मामले में मुख्य आरोपी था. (बेस्ट बेकरी में एक दर्जन से ज्यादा लोग, मुख्य रूप से मुस्लिम मारे गए थे.) परिसर का दौरा करने और धार में एक रैली आयोजित करने के बाद, मोदी ने उसी दिन इंदौर में एक प्रेस कॉन्फ्रेंस की. (यह वह समय था जब मोदी को प्रेस कॉन्फ्रेंस में सवालों का जवाब देने के लिए मजबूर होना पड़ता था.)

यह पूछे जाने पर कि धार के तनावपूर्ण माहौल में श्रीवास्तव जैसे लोगों को ऐसी जिम्मेदारी देकर पार्टी क्या संदेश देना चाहती है, मोदी अपना आपा खो बैठे. उन्होंने कहा, ”मधु श्रीवास्तव जैसे से आपका क्या मतलब है? वह एक निर्वाचित विधायक हैं. अगर कांग्रेस मधु श्रीवास्तव से इतनी डरती है, तो उसमें जहीरा को अपने स्टार प्रचारक के रूप में मैदान में उतारने की हिम्मत होनी चाहिए. वह बेस्ट बेकरी घटना की प्रत्यक्षदर्शी जहीरा शेख का जिक्र कर रहे थे, जिनके परिवार के सदस्य पीड़ितों में से थे. मोदी ने कहा, “अगर वे सामाजिक सद्भाव में विश्वास करते हैं, तो उसे उन्हें सभी चार राज्यों में ले जाना चाहिए.” फिर वह उठे और चले गए, ठीक उसी तरह जैसे वह तब गए थे जब कुछ साल बाद पत्रकार करण थापर ने उनसे 2002 की हिंसा के बारे में सवाल पूछे थे.

फरवरी 2003 में धार में भाषण देते विश्व हिंदू परिषद के नेता प्रवीण तोगड़िया. उन्होंने जमा भीड़ से कहा, "यहां मंदिरों को तोड़ दिया गया है और मस्जिद में बदल दिया गया है. धार में सरस्वती की पूजा की इजाजत नहीं है, यह हिंदुस्तान है या अरबिस्तान?" तोगड़िया ने बाद में एक संवाददाता सम्मेलन में कहा, "अगर हिंदुओं की पूजा पर प्रतिबंध में ढील नहीं दी गई तो मैं धार को दूसरी अयोध्या बना दूंगा." . एएफपी/गेटी इमेजिस
फरवरी 2003 में धार में भाषण देते विश्व हिंदू परिषद के नेता प्रवीण तोगड़िया. उन्होंने जमा भीड़ से कहा, “यहां मंदिरों को तोड़ दिया गया है और मस्जिद में बदल दिया गया है. धार में सरस्वती की पूजा की इजाजत नहीं है, यह हिंदुस्तान है या अरबिस्तान?” तोगड़िया ने बाद में एक संवाददाता सम्मेलन में कहा, “अगर हिंदुओं की पूजा पर प्रतिबंध में ढील नहीं दी गई तो मैं धार को दूसरी अयोध्या बना दूंगा.” एएफपी/गेटी इमेजिस

2003 के आखिर में जब राज्य में बीजेपी सत्ता में आई, तब तक इतिहास और तथ्यों को नुकसान हो चुका था. उस साल की शुरुआत में, एएसआई ने संघ के दबाव के आगे झुकते हुए जनादेश का पालन करने की मांग की. केंद्र की बीजेपी सरकार ने स्थल के वास्तविक इतिहास की पूर्ण अवहेलना करते हुए, मंदिर तक पहुंच के अधिकारों को हिंदुओं के पक्ष में बदल दिया था.

मई 2003 के फ्रंटलाइन पत्रिका के एक लेख में स्मारक पर पूजा करने के अधिकारों का इतिहास सूचीबद्ध किया गया है:

… 1904 में इस परिसर को मराठों और अंग्रेजों के अधीन एक संरक्षित स्मारक घोषित किया गया था. 1935 में पहली बार भोजशाला नाम आधिकारिक तौर पर कमल मौला से तब जुड़ा जब नागरिक प्रशासन ने परिसर के बाहर एक बोर्ड लगा दिया, जिसमें इसे भोजशाला-कमल मौला मस्जिद कहा गया… 1952 में, दोनों समुदायों के बीच तनाव तब सामने आया जब हिंदुओं ने संरचना पर भोज दिवस में जश्न मनाने की योजना बनाई. समारोह आयोजित करने की मंजूरी दे दी गई. इसने मुसलमानों को नवंबर 1953 में उर्स मनाने के लिए प्रेरित किया. 1995 तक, जबकि मुसलमानों को शुक्रवार की नमाज अदा करने की अनुमति थी, हिंदू बसंत पंचमी के दिन स्मारक पर जुटते थे.

2003 से पहले एएसआई का रुख कुछ साल पहले लिखे गए एक दस्तावेज में देखा जा सकता है. 1998 में, केंद्र में बीजेपी के नेतृत्व वाले गठबंधन के कार्यकाल के दौरान, एएसआई ने मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय में एक रिट के जवाब में एक विस्तृत लिखित जवाब पेश किया था. जवाब, जिसने सावधानीपूर्वक खुद को ऐतिहासिक रिकॉर्ड तक सीमित रखा और जिसे 2012 में इस फ्रंटलाइन के ही एक लेख में उद्धृत किया गया था, विस्तार से बताने लायक है.

एएसआई ने इसमें उल्लेख किया कि राज्य सरकार ने 1952 में, “भोजशाला और कमल मौला मस्जिद नामक वर्तमान संरचना” को पुरातत्व स्मारक के रूप में वर्गीकृत किया था. और इस तरह इसे मंदिर या पूर्ण मस्जिद में परिवर्तित करने के लिए हिंदुओं या मुसलमानों को नहीं सौंपा जा सकता है और उक्त संरचना में प्रवेश केवल दर्शनीय स्थलों की यात्रा के उद्देश्य से ही किया जा सकता है. मुस्लिम समुदाय शुक्रवार की नमाज अदा करना जारी रख सकता है.

स्मारक के इतिहास के बारे में एएसआई ने कहा,

यह अत्यंत विनम्रतापूर्वक प्रस्तुत किया गया है कि वर्तमान संरचना की तथ्यात्मक पहचान निश्चित रूप से ज्ञात नहीं है, न ही संरचना के अध्ययन से ही इसका पता लगाया जा सकता है … इस बात की पूरी संभावना है कि खंभे और छतें धार के आसपास की ध्वस्त इमारतों से इकट्ठा की गई होंगी और सामग्री आसानी से उपलब्ध होने के चलते कमल मौला की मस्जिद के निर्माण के लिए इसका उपयोग किया गया होगा.

एएसआई ने लिखा, “मूल भोजशाला का वास्तविक स्थान एक रहस्य बना हुआ है जिसे सुलझाया जाना बाकी है. यह अत्यंत विनम्रतापूर्वक दोहराया जाता है कि वर्तमान में विवादित संरचना को भोजशाला और कमल मौला मस्जिद के रूप में संरक्षित घोषित किया गया था और इसलिए यह आज तक संरक्षित है.”

एएसआई के जवाब में ब्रिटिश संग्रहालय में मूर्ति की प्रकृति पर भी चर्चा की गई और कहा गया, “यह प्रस्तुत किया गया है कि वास्तव में ब्रिटिश संग्रहालय में देवी की एक प्रतिमा है, लेकिन दावा करना और इसे उसी प्रतिमा के रूप में पहचानना जो मूल रूप से वर्तमान संरचना में रखी गई थी, बर्दाश्त नहीं की जा सकती है.” इस मामले में, यह प्रस्तुत किया गया कि प्रसिद्ध भारतीय प्रतिमाविज्ञानी [एसआईसी] अभी भी प्रश्न के तहत मूर्ति की वास्तविक पहचान के बारे में एक आम राय पर नहीं आए हैं और इस मूर्ति की पहचान के बारे में परस्पर विरोधी राय मौजूद है, जिसमें एक नजरिया इसे वाग्देवी (सरस्वती) के रूप में देखता है जबकि दूसरा संप्रदाय इसे जैन यक्षी अंबिका का मानता है… यह प्रस्तुत किया गया है कि प्रदान की गई यह जानकारी भी… अपनी पूर्ण स्पष्टता में यह नहीं बताती है कि मूर्ति की खोज वर्तमान संरचना से की गई थी, लेकिन इसके विपरीत जानकारी में कहा गया है कि यह प्रतिमा धार में भोजशाला से सटे खंडहरों से मिली थी.

टेंट में विराजे रामलला. इसे हिंदू भीड़ द्वारा मस्जिद को ध्वस्त करने के कुछ ही दिनों बाद 8 दिसंबर को अयोध्या में बाबरी मस्जिद स्थल पर स्थापित किया गया था. मध्य प्रदेश में कमल मौला मस्जिद परिसर में हिंदू महासभा के कार्यकर्ताओं द्वारा सरस्वती की मूर्ति स्थापित करने का हालिया प्रयास 1949 की घटनाओं को दोहराने के लिए किया गया लगता है, जब महासभा के कार्यकर्ताओं ने राम की मूर्ति स्थापित करने के लिए बाबरी मस्जिद में तोड़-फोड़ की थी..  संजय शर्मा/हिंदुस्तान टाइम्स
टेंट में विराजे रामलला. इसे हिंदू भीड़ द्वारा मस्जिद को ध्वस्त करने के कुछ ही दिनों बाद 8 दिसंबर
को अयोध्या में बाबरी मस्जिद स्थल पर स्थापित किया गया था. मध्य प्रदेश में कमल मौला मस्जिद परिसर में हिंदू महासभा के कार्यकर्ताओं द्वारा सरस्वती की मूर्ति स्थापित करने का हालिया प्रयास 1949 की घटनाओं को दोहराने के लिए किया गया लगता है, जब महासभा के कार्यकर्ताओं ने राम की मूर्ति स्थापित करने के लिए बाबरी मस्जिद में तोड़-फोड़ की थी. संजय शर्मा/हिंदुस्तान टाइम्स

मार्च 2003 में हिंदू समूहों द्वारा उस जगह पर एक महीने तक विरोध प्रदर्शन करने के बाद, केंद्रीय पर्यटन और संस्कृति मंत्री जगमोहन ने राज्य सरकार को पत्र लिख कर मांग की थी कि भोजशाला परिसर को मंगलवार को हिंदुओं के लिए खोला जाए. 7 अप्रैल को एएसआई और केंद्र सरकार से लिखित निर्देश मिलने के बाद ही राज्य ने इसकी अनुमति दी.

सितंबर 2023 की घटनाएं 22 दिसंबर 1949 की रात बाबरी मस्जिद में जो हुआ उसे दोहराने के लिए बनाई गई लगती हैं. उस रात के मुख्य नायक अभिराम दास थे, जो हिंदू महासभा से जुड़े एक ब्राह्मण संन्यासी थे.

दास को एक दूसरे साधू वृन्दावन दास ने राम लला की एक मूर्ति सौंपी थी. दास भीतरी आंगन की ओर जाने वाली दीवार पर चढ़ गए और आधी रात से पहले मूर्ति मस्जिद में घुसा दी, इससे पहले कि गार्ड बदल जाता और एक मुस्लिम अबुल बरकत कार्यभार संभालाता. उस रात जो कुछ हुआ उसका विवरण 2012 की किताब ‘अयोध्या द डार्क नाइट: द सीक्रेट हिस्ट्री ऑफ राम्स अपीयरेंस इन बाबरी मस्जिद’ में विस्तार से दिया गया है, जिसके सह-लेखक धीरेंद्र के झा हैं, जो इस लेख के लेखक हैं.

अभिराम के चचेरे भाई इंदुशेखर झा, जो उस रात वहां मौजूद थे, ने बताया,

अभिराम दास बाबरी मस्जिद के केंद्रीय गुंबद के ठीक नीचे मूर्ति को मजबूती से अपने हाथों में पकड़ कर बैठ गए और हम सक्रिय हो गए. हमने [पिछले मालिकों के] सभी सामान, जिनमें उनके कलश, चटाइयां और साथ ही मुअज्जिन के कपड़े और बर्तन भी शामिल थे, फेंक दिए. फिर हमने मस्जिद की भीतरी और बाहरी दीवारों से खुरपी की मदद से कई इस्लामी नक्काशी को मिटा दिया और उन पर भगवा और पीले रंग से सीता और राम लिख दिया.

“डार्क नाइट” नोट करती है, “सुबह लगभग चार बजे, जबकि अभी भी अंधेरा था, घुसपैठियों ने… दीपक जलाया और आरती करना शुरू कर दिया. इससे अबुल बरकत भयभीत हो गया होगा जो पिछली रात के घटनाक्रम से पूरी तरह से अनजान था, क्योंकि अब उसके लिए यह बताना असंभव होता कि जब वैरागियों ने मस्जिद में घुसपैठ की तो वह क्या कर रहा था… यह कठिन परिस्थिति उस रात कुछ भी करने के लिए न केवल उसकी असमर्थता को स्पष्ट करती है बल्कि उसका बयान भी बहुत बाद में आया.”

मस्जिद में घुसपैठ करने और उसे अपवित्र करने के लिए अभिराम दास और अन्य के खिलाफ पहली सूचना रिपोर्ट के आधार पर 1 फरवरी 1950 को एक आरोप पत्र दायर किया गया था. इसमें बरकत को अभियोजन पक्ष के नौ गवाहों में से एक के रूप में नामित किया गया था. “डार्क नाइट” बरकत के बयान का अनुवाद उद्धृत करती है:

वह [अबुल बरकत] 22 और 23 दिसंबर, 1949 की रात को पुलिस चौकी राम जन्म भूमि पर ड्यूटी पर थे. उस रात ड्यूटी के दौरान, उन्होंने बाबरी मस्जिद के अंदर दिव्य प्रकाश की एक चमक देखी. धीरे-धीरे वह रोशनी सुनहरी हो गई और उसमें उसे चार-पांच साल के एक अत्यंत सुंदर देवतुल्य बालक की आकृति दिखाई दी, जैसा उन्होंने अपने जीवन में पहले कभी नहीं देखा था. इस दृश्य ने उन्हें अचेत कर दिया और जब उन्हें होश आया तो उन्होंने देखा कि (मस्जिद के) मुख्य द्वार का ताला टूटा हुआ था और हिंदुओं की एक बड़ी भीड़ इमारत में प्रवेश कर गई थी और “भयेप्रकटकृपाला दीन दयाला” का पाठ करते हुए सिंघासन पर रखी मूर्ति की आरती कर रही थी.

डार्क नाइट का कहना है, “मजिस्ट्रेट को दिए अपने बयान में उन्होंने जो कहा उससे हिंदू सांप्रदायिक लोग उत्साहित हो गए लेकिन कोई भी समझदार व्यक्ति इसे आसानी से समझ सकता था. तथ्य यह है कि चमत्कार सिद्धांत का प्रचार करने वाले भी बाद में इसका मजाक उड़ाते पाए गए.” एक अन्य तपस्वी भास्कर दास ने कहा, “अबुल बरकत और क्या कह सकते हैं? जब ड्यूटी पर रहते हुए उनके साथ ऐसी घटना घटी तो उनके पास खुद को बचाने के लिए वही कहने के अलावा कोई विकल्प नहीं था, जो उनसे कहा गया था.”

कमल मौला मस्जिद परिसर में मूर्ति रखने के आरोप में गिरफ्तार किए गए हिंदू महासभा के सदस्य भार्गव पंडिताई करते हैं. उन्होंने हमें बताया कि वह उन परिवारों से अच्छी कमाई करते हैं जो नियमित रूप से उनकी सेवाएं लेते हैं. हम उनसे भोपाल के एक छोटे से फ्लैट में मिले, जिसका इस्तेमाल महासभा के सदस्य गेस्टहाउस के रूप में करते थे. भार्गव से हमारा संपर्क हिंदू महासभा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष जयवीर भारद्वाज ने कराया था, जिनसे हमारी मुलाकात ग्वालियर में हुई थी. भारद्वाज की पहले भी नाथूराम गोडसे के लिए एक मंदिर बनाने के प्रयास के कारण प्रशासन से मुठभेड़ हुई थी.

घटनाओं के बारे में भार्गव के बयान की तालीम पहले ही दी जा चुकी थी जो 22 दिसंबर 1949 की रात की घटनाओं पर आधारित है. देवी ने उन्हें एक सपने में दर्शन दिए, “जैसे कि देवी ने खुद को उन लोगों के सामने प्रकट किया था जिन्होंने अयोध्या में राम लला की मूर्ति पाई थी,” भार्गव ने हमें बताया. “अगर देवी ने ऐसा नहीं किया होता तो कोई बात ही नहीं होती और कोई राम मंदिर नहीं होता.”

अप्रत्याशित रूप से, उन्होंने बाद में खुलासा किया कि बाबरी मस्जिद की घटना की तरह, कमल मौला मस्जिद में वाग्देवी की मूर्ति का प्रकटीकरण एक तयशुदा कार्रवाई थी. उन्होंने हमें बताया कि उन्होंने भोपाल के एक कारीगर को अठारह महीने पहले ही मूर्ति तैयार करने के लिए कहा था और कारीगर ने यह सुनिश्चित करने के लिए बहुत सावधानी बरती थी कि मूर्ति ऐसी न लगे कि इसे हाल ही में तैयार किया गया है, इसके लिए खास तरह का पत्थर तलाशा गया.

फरवरी 2016 में कमल मौला मस्जिद परिसर में भारी पुलिस बल तैनात किया गया. हिंदुओं को मंगलवार और बसंत पंचमी पर यहां प्रार्थना करने की अनुमति है और मुसलमानों को शुक्रवार को नमाज अदा करने की अनुमति है. 2006 में बसंत पंचमी का त्योहार शुक्रवार को पड़ा और हिंदू समूहों ने मांग की कि उन्हें इस स्थल पर विशेष पूजा आयोजित करने का विशेष अधिकार दिया जाए. राज्य में शिवराज सिंह चौहान के नेतृत्व वाली बीजेपी सरकार ने यथास्थिति बरकरार रखी. . शंकर मौर्य/हिंदुस्तान टाइम्स
फरवरी 2016 में कमल मौला मस्जिद परिसर में भारी पुलिस बल तैनात किया गया. हिंदुओं को मंगलवार और बसंत पंचमी पर यहां प्रार्थना करने की अनुमति है और मुसलमानों को शुक्रवार को नमाज अदा करने की अनुमति है. 2006 में बसंत पंचमी का त्योहार शुक्रवार को पड़ा और हिंदू समूहों ने मांग की कि उन्हें इस स्थल पर विशेष पूजा आयोजित करने का विशेष अधिकार दिया जाए. राज्य में शिवराज सिंह चौहान के नेतृत्व वाली बीजेपी सरकार ने यथास्थिति बरकरार रखी. शंकर मौर्य/हिंदुस्तान टाइम्स

हैरानी की बात है कि जो चीज दोनों घटनाओं को अलग करती है वह कोई दिखावा, चमत्कार या ऐतिहासिक विकृतियों का क्रम, या हिंदुत्व लामबंदी नहीं है, बल्कि प्रशासन की प्रतिक्रिया है. यह स्पष्ट करता है कि कैसे बाबरी मस्जिद का विनाश जिला प्रशासन और गोविंद वल्लभ पंत जैसे कांग्रेसी मुख्यमंत्री द्वारा संचालित राज्य प्रशासन की मिलीभगत से संभव हुआ, जो महासभा के उद्देश्यों के प्रति सहानुभूति रखते थे- भले ही वह गांधी की हत्या के दो साल से भी कम समय के बाद ऐसा हो रहा था, जब यह संगठन कांग्रेस के लोगों के लिए अभिशाप बन जाना चाहिए था. पंत सीधे उपप्रधानमंत्री और गृहमंत्री वल्लभभाई पटेल को रिपोर्ट करते थे, जो एक हिंदू राष्ट्रवादी थे. इसने उन्हें जवाहरलाल नेहरू की स्पष्ट इच्छा के विरुद्ध कार्य करने की अनुमति दी कि प्रशासन मूर्तियों को रखने के खिलाफ कार्रवाई करे.

ये घटनाएं फैजाबाद के जिला मजिस्ट्रेट, केकेके नायर की कार्रवाई, या कहें तो निष्क्रियता, से प्रेरित थीं, जिनकी राजनीतिक संबद्धता इस तथ्य से स्पष्ट होती है कि उनकी पत्नी हिंदू महासभा के टिकट पर गोंडा से 1952 में संसद सदस्य बनीं. 1967 में, नायर ने खुद आरएसएस और महासभा की शाखा, भारतीय जनसंघ, के टिकट पर बहराइच से लोकसभा चुनाव जीता.

डार्क नाइट दर्ज करती है:

रात के अंधेरे में अभिराम दास द्वारा ऑपरेशन सफलतापूर्वक पूरा करने के बाद फैजाबाद के जिला मजिस्ट्रेट घटनास्थल पर पहुंचने वाले पहले लोगों में से थे. उस समय मस्जिद में मुट्ठी भर लोग ही थे और अयोध्या सो रही थी. इस घटना के बारे में किसी को भी पता नहीं चलता या लोगों को इतनी देर से पता चलता कि कोई हंगामा संभव नहीं होता अगर जिला मजिस्ट्रेट ने त्वरित कार्रवाई की होती और मस्जिद से हिंदू देवी-देवताओं की मूर्ति और तस्वीरें हटा दी होती और दीवारों पर लिखे को खरोंच दिया होता. इसलिए, वह हिंदू विश्वासियों के बीच कोई उपद्रव पैदा किए बिना आसानी से मस्जिद की यथास्थिति बहाल कर सकते थे. देश में कहीं भी किसी भी जिला मजिस्ट्रेट से यही अपेक्षा की जाती थी… घटना की एफआईआर सुबह नौ बजे ही दर्ज की गई थी, हालांकि नायर पांच बजे घटनास्थल पर पहुंच गए थे. जिला मजिस्ट्रेट को संयुक्त प्रांत के प्रधानमंत्री, गोविंद बल्लभ पंत, साथ ही राज्य के मुख्य सचिव और गृह सचिव को एक संक्षिप्त रेडियो संदेश भेजने में डेढ़ घंटे का समय लगा.

उस समय फैजाबाद जिला कांग्रेस के सचिव अक्षय ब्रह्मचारी ने संयुक्त प्रांत के गृहमंत्री लाल बहादुर शास्त्री को एक ज्ञापन में लिखा था:

उसी सुबह से लाउडस्पीकरों पर भगवान के प्रकट होने की घोषणा की जाने लगी और सभी हिंदुओं से दर्शन के लिए आने का आह्वान किया जाने लगा. तनाव बढ़ता चला गया. नोटिस और हैंडबिल बांटे जाते रहे. फैजाबाद से भेजी गई कारों और सार्वजनिक वाहनों में हजारों लोग दर्शन के लिए शहर में आने लगे.

कमल मौला मस्जिद में जो हुआ उसकी तुलना इससे करें. “हम सभी जानते हैं कि मूर्ति लंदन के एक संग्रहालय में है. परिसर में प्रवेश करने के बाद हमें जो मूर्ति मिली वह मंदिर के ठीक बाहर प्रकट हुई थी. हमने इसे उठाया और गर्भगृह में ले गए,” भार्गव ने कहा. “जब हम बाहर आए तो एक सरकारी साजिश रची गई. जब लोगों ने मूर्ति के बारे में पता लगाना शुरू किया तो एएसआई ने लिखित में बताया कि ऐसी कोई मूर्ति नहीं मिली है. उन्होंने हमारे एक सहयोगी को भी गिरफ्तार कर लिया. अगले दिन हमने एसपी से बात की और पूछा, ‘अगर कोई मूर्ति नहीं थी तो उसे गिरफ्तार क्यों किया गया?’ फिर हम अपने सहयोगी के घर पहुंचे और पुलिस ने हमें गिरफ्तार कर लिया.”

भार्गव ने हमें बताया, “हर कोई जानता था कि यह महासभा द्वारा किया गया था. जो लोग भोजशाला आंदोलन का नेतृत्व कर रहे थे वे अप्रभावी थे. मैं समझ नहीं पा रहा हूं कि घंटियां बजाने और शोर मचाने का मतलब क्या है.” उन्होंने कहा कि उनसे कई बार पूछा गया कि उनके कृत्य का उद्देश्य क्या था, जबकि अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण पहले ही हो चुका था. “लेकिन इसमें पांच सौ साल लग गए. क्या हम प्रत्येक मंदिर के लिए पांच सौ का इंतजार करेंगे? हमने देश में ऐसी बयालीस हजार संरचनाओं की सूची तैयार की है. अगर हमने प्रत्येक पर पांच सौ साल खर्च किए, तो अपने लक्ष्य हासिल करने से पहले कितनी पीढ़ियां गुजर जाएंगी?”

ऐसे समय में जब नरेन्द्र मोदी सरकार बाबरी मस्जिद परिसर पर नियंत्रण पाने के लिए हिंदुत्व संगठनों द्वारा चलाए गए अभियान की सफल परिणति का जश्न मना रही है, यह गाथा इस बात का संकेत हो सकती है कि आगे क्या होने वाला है. राज्य में नई बीजेपी सरकार के शपथ लेने से कुछ समय पहले यह मामला तूल पकड़ गया. नए मुख्यमंत्री, मोहन यादव, संघ के एक भरोसेमंद सदस्य हैं, मुख्यमंत्री के रूप में उनका पहला कार्य मांस और मछली की खुली बिक्री पर प्रतिबंध लगाना था. यह राज्य में ऐसे मुद्दों पर बीजेपी की सख्त स्थिति के साफ संकेत हैं. यादव के पहले के प्रशासन ने परिसर से मूर्ति हटा दी थी. यादव सरकार इस मुद्दे पर किस तरह प्रतिक्रिया देती है, उससे साफ होगा कि मध्य प्रदेश में किए गए बदलवा के पीछे क्या है.

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