रामचन्द्र शुक्ल
हमारे देश में हिन्दू-मुसलमान सदियों से मिलकर रहते आये हैं. एक दूसरे के लिए खून बहाते आये हैं. टीपू सुल्तान का जनरल एक ब्राह्मण था. महाराणा प्रताप के तोपखाने का मुखिया एक पठान था, जिसने प्रताप के लिए अकबर के खिलाफ शहादत दी थी. अकबर महान का सेनापति महाराजा मानसिंह थे. हल्दीघाटी युद्ध में महाराणा को परास्त उन्होंने किया था. इसी प्रकार शिवाजी के मुख्य सेनानायक मुस्लिम समुदाय के थे.
बहादुर शाह ज़फ़र 81 साल के बुजुर्ग थे, जब उन्हें 1857 में आज़ादी के दीवाने सैनिकों ने अपना मुखिया चुना था और उन्होंने इस पद को स्वीकार किया था – इस देश की स्वतंत्रता के लिए, इस देश की आज़ादी के लिए. वे स्वीकार न करते तो उनका तो वजीफा और महल (लाल किला) और घर के लोग सलामत ही थे. और उनके वे दो बच्चे भी सलामत रहते जिनके सिर थाली में रखकर कपड़े से ढक खाना खिलाने के नाम पर उनके सामने रखे गए थे. किसी भी संघी हिन्दू को यह कभी याद नहीं आता कि वो बूढ़ा बादशाह इस देश की मिट्टी में दफन होने के लिए तरसता ही चला गया.
‘है कितना बदनसीब ज़फ़र
दफन के लिए,
दो ग़ज़ ज़मीन भी न मिली
कूए यार में.’
किसी भी संघी हिन्दू को उस दर्द का एहसास कभी नहीं हो सकता, अपने देश के लिए वो शिद्दत और वो जज़्बा कहां से आएगा क्योंकि इन्होंने आज़ादी की लड़ाई लड़ी ही नहीं. ये अंग्रेजों की ग़ुलामी ही करते रहे. अगर इनमें से कोई बलिदान देता तो इन्हें देश प्रेम का पता चलता. इन्हें पता चलता कि देश का अर्थ क्या होता है.
अशफ़ाक उल्लाह और राम प्रसाद बिस्मिल ने एक ही दिन बलिदान दिया था लेकिन अलग अलग जेलों में दिया था. उन दोनों को इसी बात का अफसोस था कि उन दोनों को एक साथ बराबर में खड़ा करके फांसी क्यों नहीं दी जा रही थी. पंडित रामप्रसाद बिस्मिल ब्राह्मण और अश्फाक उल्लाह पठान दोनों एक साथ फांसी पर चढ़ना चाहते थे. इसको कहते है हिन्दू मुस्लिम प्रेम, जिये भी साथ-साथ शहीद भी साथ-साथ हुए.
ये संघी हिन्दू आज देश भक्त बन गए. ये सत्ता में आकर भी देश के साथ दुश्मनी कर रहे हैं क्योंकि ये लोगों को हिन्दू मुसलमान में बांट रहे हैं। दोनों में आपस में नफरत फैला रहे हैं. इन्हें यह नहीं पता कि हिन्दू मुसलमान थे इतने ही अलग है जितने दो मां जाए भाई. इनको जन्म देने वाली धरती मां एक ही है. कई सदियों का प्रेम है. इसी मिट्टी की गोद में साथ ही खेले भी हैं, लड़े भी हैं और एक साथ मिलकर देश के लिए खून भी बहाया है.
संघी हिंदुओं को पता चलना चाहिए कि हिन्दू मुसलमान भारत की दो आंखें हैं. इन संघी हिन्दुओं की एक आंख का कारोबार नहीं चलेगा. मुसलमानों का हिंदुस्तान से प्रेम तो महज इसी बात से सिद्ध हो जाता है कि कुछ अपवादों को छोड़ कर सभी मुस्लिम जो आये वो यहां के दीवाने हो गये और इसी मिट्टी में अपनी ही मर्ज़ी से चैन से सो गए. आज भी वही सोए हुए हैं.
संघी हिन्दू क्या मुकाबला करेंगे आज़ादी के दीवाने हिन्दू और मुसलमानों का. इन्हें सिर्फ छल आता है. झूठ बोलना आता है. हिंसा आती है. देश को धर्मों और जातियों में विभाजित करना आता है. ये सारी अदाएं अंग्रेजों की रही है. ईस्ट इंडिया कंपनी की तरह ये आम आदमी का शोषण करते हैं.
संघी हिंदुओं ने सत्ता में आते ही नोटबन्दी से लोगों का शोषण आरम्भ कर दिया था. किसी के पास पैसा छोड़ा ही नहीं. मज़दूर बेकार हो गए, छोटा व्यापारी मर गया. जीएसटी में व्यापारी का दम निकाल लिया. मज़दूर और बेकार हो गए. बैंकों का दिवाला निकल गया लाखों करोड़ NPA हो गया. व्यापारी बैंकों के पैसे लेकर विदेशों में भाग गए. कारखाने, फैक्टरियां, अन्य संस्थान बन्द हो गए.
किसान मारा गया. उसे भाव नहीं मिला उसकी फसल का. आत्महत्या कर रहा है किसान. 700 से ज्यादा किसान पिछले एक साल तक चले आन्दोलन में शहीद हो गये. विद्यार्थियों के लिए स्कूल बंद कर रहे हैं, ग़रीब के बच्चे कहां पढ़ेंगे, सरकारी स्कूलों को बंद कर रहे हैं. उनमें टीचर नहीं है. बिल्डिंगे नहीं हैं. कॉलेज और विश्वविद्यालयों का भी यही हाल है.
अब देश के लिए NRC और CAB ला रहे हैं. विश्वविद्यालयों के छात्र और टीचर आंदोलनरत हैं, NRC पर और CAB पर भी आंदोलन हो रहे हैं. खेती व किसान विरोधी तीन काले कानूनों के विरुद्ध एक साल तक चला अहिंसक आन्दोलन इस बात का सबूत है कि संघी किसानों की एकता को तमाम तरह के षड्यंत्रों के वाबजूद खंडित नहीं कर सके और इन काले कानूनों को निरस्त करना पड़ा. संघी हिंदुओं की सरकार को आम आदमी का दर्द न तो दिखाई दे रहा है, न कराहने की आवाज़ सुनाई दे रही है. इन्हें हिन्दू मुसलमान व पाकिस्तान व चीन करना है, बस और सब काम खत्म.
डॉ. कैलाश देवी सिंह का यह लेख शायद अंधभक्तों की आंखें खोले. वे लिखते हैं – मुस्लिम समुदाय के कट्टरपंथी वर्ग में जहां हिंदू धर्म के साथ-साथ भारतीय संस्कृति, इतिहास, परंपराएं-सब कुछ गैर इस्लामी है, वहां ऐसे भी लोग हैं जो आस्थावान मुसलमान होने के बावजूद भारतीय संस्कृति से भी अभिभूत हैं. उसके प्रति उनका सम्मान और अपनत्व का भाव है. उनकी दृष्टि में इतिहास, परंपराएं आदि बातें मजहब के आड़े कहां आती हैं ?
यहां बात अमीर खुसरो, रहीम, जायसी या रसखान जैसे प्राचीन कवियों या चिंतकों की नहीं है बल्कि वर्तमान युग के मुस्लिम मनीषियों या सामान्य जनों की है. बेगम अख्तर सिर्फ भारत की ही शीर्ष गजल गायिका नहीं थी बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उनका बहुत सम्मान था. आजादी के समय जब देश का बंटवारा हुआ तो उनके कुछ संबंधियों ने उन्हें पाकिस्तान जाने की सलाह दी. बेगम का जवाब था-
‘मियां पुरखों की कब्रें तो यहां हैं. पैदा यहां हुए हैं. इसे छोड़कर कहां जाएं ? यहां इबादत पर पाबंदी है क्या ? कुछ लोग शिव पर जल चढ़ाकर इबादत करते हैं तो कुछ गीता पढ़कर इबादत करते हैं और हम नमाज अदा करके करते हैं- इनमें फर्क क्या है ?’
बेगम अख्तर आस्थावान मुसलमान थी. रोज नमाज पढ़ती थीं और तीन बार हज कर आई थी लेकिन दीवाली पर घर पर दिया भी जलाती थी. अपनी शिष्याओं (जिनमें अधिकांशतः हिंदू थीं) के साथ रक्षाबंधन भी मनाती थीं और बसंत पंचमी पर बसंती रंग की साड़ी भी पहनती थी. उनकी भतीजी शमां अख्तर लिखती हैं कि –
‘बेगम साहिबा, दीवाली में घर में भी खास- खास जगहों पर, यहां तक कि तिजोरी पर भी दिए रखवाती थीं और रक्षाबंधन पर अपनी जमादारिन से भी टीका करवातीं, राखी बंधवातीं और उसे पैसे देती थीं.’
ऐसे ही एक विद्वान हुए हैं- बशीर अहमद मयूख. श्री मयूख एक आस्थावान मुसलमान और 5 वक्तों के नमाजी थे (या हैं) किन्तु भारतीय उपनिषद, पुराण और वेदों के वे गहन अध्येता थे. ऋग्वेद के हिंदी में अनेक अनुवाद हुए हैं लेकिन ऋग्वेद का एकमात्र काव्यानुवाद श्री बशीर अहमद मयूख ने ही किया है और वह भी इतनी परिष्कृत हिंदी और मोहक शैली में कि मुग्ध कर लेता है. ऋग्वेद में वर्णित प्रातः या उषाकाल का श्री मयूख द्वारा किये गये काव्यात्मक भावानुवाद का एक उदाहरण द्रष्टव्य है —
‘लो, उषा आई कि जैसे
आंख से आंसू गिराती,
छोड़ पीहर चली दुल्हन
ओस से भूलोक भीगा.
पंख फैलाकर पखेरू
उड़ चले हैं घोंसलों से
लो उगा दिन.’
क्लिष्ट होने के कारण ऋग्वेद की मूल ऋचा नहीं दिया है.
उर्दू के जाने-माने लेखक राही मासूम रजा घोर कम्युनिस्ट थे, जो धर्म को नकरता है लेकिन अन्य मार्क्सवादियों की तरह उनके लिए न तो राष्ट्रवाद की भावना संकीर्ण थी और न ही भारतीय संस्कृति के प्रति निष्ठा रखना पिछड़ेपन की निशानी थी. उनके लिए उनकी जन्मभूमि (गाजीपुर) तीर्थ थी तो गंगा, मां और मोक्षदायिनी थी. यह भाव उनकी नज़्म ‘वसीयत’ में देखिए –
‘मुझे ले जाके गाजीपुर में
गंगा की गोदी में सुला देना
वो मेरी मां है,
मेरे बदन का जहर पी लेगी.’
भारतीय संस्कृति के प्रति निष्ठा का भाव राही मासूम रजा के उपन्यास ‘आधा गांव’ में भी परिलक्षित होता है.
किसी समय की शीर्ष अभिनेत्री नरगिस ने भी लिखा है कि ‘मैं नियमित रूप से ध्यान करती हूं.’ उन्होंने लिखा है कि ‘जब हमारी फिल्म ‘रेशमा और शेरा’ डूब गई तो हम करीब-करीब दिवालिया हो चुके थे. पूरी तरह कर्ज में डूबे हुए हम मानसिक रूप से विचलित हो गए थे, तब मुझे गुरु मुक्तानंद ने ध्यान लगाने की सलाह दी जिससे मुझे अपूर्व मानसिक शांति मिली. तब से नियमित ध्यान लगा रही हूं. इससे मेरी सोच और व्यक्तित्व में अद्भुत परिवर्तन आया है.’
शायर नजीर बनारसी ने भी कृष्ण को अपने आराध्य के रूप में देखा और लिखा है –
‘मन के आंगन में बंसी के बजैया आए.
मेरे गोकुल में मेरे कृष्ण कन्हैया आए.
जाने-माने शायर सरदार अहमद ‘अलीग’ भी तो दीवाली को रावण पर राम की विजय के उपलक्ष्य में उत्सव के रूप में देखते हैं –
‘दीवाली लिए आई-उजालों की
बहारें ।
हर सिम्स है पुरनूर चिरागों की
कतारें ।।
* * *
नेकी की हुई जीत,
बुराई की हुई हार ।
उस जीत का यह जश्न है,
उस फतह का त्यौहार ।।’
भारत से पाकिस्तान गईं वहां की शीर्ष कवयित्री फहमीदा रियाज वहां भी मां यमुना और भारत की प्राचीन सभ्यता को याद करती हैं –
‘इतिहास की घोर गुफाओं में
शायद पाए पहचान मेरी ,
था बीज में देश का प्यार घुला
परदेश में क्या-क्या बेल चढ़ी.’
भारत से ही गए पाकिस्तान के सुप्रसिद्ध शायर असद मोहम्मद खां न केवल भारत बल्कि देवी विंध्याचल भवानी को भी याद करते हैं –
‘मैं विंध्याचल की आत्मा
मेरे माथे चंदन की बिंदिया.’
आदि और उससे भी महत्वपूर्ण यह है कि इस पाकिस्तानी मुस्लिम शायर ने यह कविता उर्दू में नहीं बल्कि देवनागरी लिपि में लिखा है. उपर्युक्त आलेख में कुछ भी ऐसा नहीं है, जो अस्वाभाविक हो. अतीत की जड़े ढूंढना मानव की स्वाभाविक प्रवृत्ति है तो धार्मिक कट्टरता मानव का सामान्य स्वभाव नहीं है.
जैसे-जैसे शिक्षा का विस्तार होगा, स्वयं के अतीत में रुचि और विवेक की प्रवृतियां स्वत: जागृत होंगी. सिंध पाकिस्तान के प्रसिद्ध शायर इब्राहिम मुंशी भारत से पाकिस्तान नहीं गए बल्कि बंटवारे के बाद पूरा सिंध ही पाकिस्तान में चला गया. स्वाभाविक रूप से श्री मुंशी भी पाकिस्तानी हो गए. श्री इब्राहिम ने लिखा है –
‘मजहब का तहजीब (संस्कृति) से कोई ताल्लुक नहीं. मैं मुसलमान हूं लेकिन मेरी तहजीब सिंधी है. मोहनजोदड़ो की संस्कृति (अति प्राचीन भारतीय संस्कृति) हमारी है और हिन्दू राजा दाहिर हमारे पुरखे हैं.’
समाज और साहित्य भरा पड़ा है ऐसी घटनाओं से. बिहार में कैमूर जिले के अनेक गांवों में मुसलमान पहले निकाह करते हैं फिर हिंदू रीति से विवाह करते हैं. यह लोग 800 साल पहले मुसलमान बना दिए गए थे, जब इनके पूर्वज राजपूत सिपाही नालंदा विश्वविद्यालय जलाते समय बख्तियार खिलजी से पराजित हुए थे. उड़ीसा में कतिपय ऐसी जगहें हैं जहां मुसलमान गणेश पूजा करते हैं लेकिन पूजा में मंत्र नहीं बल्कि कुरान की आयतें पढ़ी जाती हैं.’