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“थूक जेहाद” का हिंदुत्व प्रोपेगेंडा:मुसलमानों और दलितों की आर्थिक कमर तोड़ने की साजिश

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डॉ. अभय कुमार

हाल के दिनों में भाजपा-शासित राज्यों ने खाद्य पदार्थों में “थूक” और “मूत्र” मिलाने की कथित घटनाओं को रोकने के लिए सख्त दिशा निर्देश जारी किए हैं। इसके अलावा, होटल कर्मचारियों का पुलिस सत्यापन करने और रसोई में सी.सी.टी.वी. कैमरे लगाने का भी आदेश दिया गया है।

उत्तराखंड की पुष्कर सिंह धामी सरकार ने घोषणा की है कि खाद्य पदार्थों में थूकने के अपराध पर एक लाख रुपये तक का जुर्माना लगाया जा सकता है।

हालांकि इससे पहले ही योगी आदित्यनाथ की सरकार ने उत्तर प्रदेश में इसी तरह के सख्त दिशा निर्देश जारी किए थे, जिसमें कर्मचारियों की उचित पहचान सुनिश्चित करने को कहा गया था, ताकि कोई “घुसपैठिया” या “अवैध विदेशी” होटल या ढाबों में न छुप सके।

प्रशासन का दावा है कि यह कदम खाद्य पदार्थों में किसी भी प्रकार की मिलावट या प्रदूषण को रोकने के लिए उठाए जा रहे हैं। हालांकि, इन दिशानिर्देशों की पूरा विवरण सामने नहीं आया है, लेकिन यह स्पष्ट है कि इन फैसलों की आड़ में किस समुदाय को निशाना बनाया जा सकता है।

अगर भाजपा सरकार की मंशा साफ होती, तो इस दिशा निर्देश को “थूक जिहाद” के खिलाफ अभियान नहीं कहा जाता। ऐसे फरमान सांप्रदायिक साजिश का हिस्सा नज़र आते हैं, जिनका इस्तेमाल वंचित समुदायों, खासकर मुसलमानों और दलितों के खिलाफ किया जा सकता है, और इससे उनकी आर्थिक कमर तोड़ी जा सकती है।

इसके अलावा, यह निर्णय समाज में पहले से मौजूद पूर्वाग्रहों को और बढ़ावा देगा। यह अछूत प्रथा और जातिवाद को बढ़ावा देगा। यह फैसला समानता के आंदोलन को कमजोर करेगा और प्रतिक्रियावादी ताकतों को मज़बूत करेगा।

वास्तव में, “थूक” और “जिहाद” के बीच कोई संबंध नहीं है। जिहाद के बारे में इस्लामिक विशेषज्ञ आपको बेहतर तरीके से समझा सकते हैं। हालांकि, हममें से अधिकांश लोग इस बुनियादी तथ्य से अवगत हैं कि जिहाद का हिंसा से कोई लेना-देना नहीं है, न ही जिहाद गैर-मुसलमानों के खिलाफ इस्तेमाल किया जाने वाला कोई हथियार है।

सरल शब्दों में, जिहाद का अर्थ है नेक मकसद के लिए प्रयास या संघर्ष करना। अन्याय और ज़ुल्म के खिलाफ संघर्ष ही जिहाद है। इस्लाम के खिलाफ यह गलत प्रचार किया गया है कि मुसलमानों की पवित्र किताब उन्हें गैर-मुसलमानों और “काफिरों” के खिलाफ (हिंसक) जिहाद छेड़ने का आदेश देती है।

जबकि सच्चाई यह है कि पैगंबर मुहम्मद साहेब का संदेश पूरी इंसानियत के लिए था। अपनी ज़िंदगी में उन्होंने गैर-मुसलमानों के साथ दोस्ती और संधि किए। उन्होंने हमेशा युद्ध से बचने की कोशिश की।

इतिहास इस बात का गवाह है कि मुसलमानों के शासनकाल में गैर-मुसलमानों को सुरक्षा दी गई और उन्हें अपने धर्म का चलने की पूरी आजादी मिली।

सच तो यह है कि जिहाद की घोषणा के पीछे कई शर्तें होती हैं। कोई भी मुसलमान यूं ही एक दिन नींद से उठकर जिहाद का ऐलान नहीं कर सकता। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि कुछ मुसलमान ऐसे भी होंगे, जिन्होंने जिहाद की अवधारणा की गलत व्याख्या की और इसका राजनीतिक इस्तेमाल किया।

लेकिन हम उन्हें किसी भी तरह से इस्लाम का प्रतिनिधि नहीं मान सकते। हर धर्म में अच्छे और बुरे लोग होते हैं, इसलिए सभी मुसलमानों को “जिहादी” कहना पूरी तरह से गलत है।

तसव्वुर-ए-जिहाद का एक हिस्सा जहां सांसारिक मामलों से संबंधित है, वहीं दूसरा और सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा ‘नफ़्स’ (Self) से संबंधित है।

इस्लाम ज़ोर दे कर कहता है कि दुनिया को सुधारने से पहले हर इंसान को अपने भीतर झांकना चाहिए और अपनी ख़ुद की बुराइयों को दूर करना चाहिए। इस्लाम का पैगाम है कि हमें पहले अपने भीतर की बुराइयों के विरुद्ध जिहाद छेड़ना होगा।

मगर इन हक़ीक़तों को सांप्रदायिक मीडिया दबा देता है और मुस्लिम मुख़ालिफ़ प्रोपेगेंडा को बढ़ाता है। यही वजह है कि दुनिया भर में इस्लामोफोबिया बढ़ रहा है। भारत में स्थिति कोई बेहतर नहीं है।

हिंदुत्ववादी शक्तियां राजनीतिक लाभ के लिए जिहाद का डर पैदा करती हैं। ऐसा कर वे गैर-मुसलमानों को मुसलमानों के बारे में गुमराह करती हैं और उनके दिलों में नफरत पैदा करती हैं। जब से बीजेपी सत्ता में आई है, मुस्लिम विरोधी पूर्वाग्रह बढ़ता जा रहा है।

अब यह ज़हर हमारे समाज में बहुत हद तक फैल गया है। फिरकापरस्त ताकतों की बात तो छोड़िए, सेक्युलर पार्टियों के भीतर भी मुस्लिम विरोधी पूर्वाग्रह मौजूद है।

अभी हाल ही में, कांग्रेस शासित हिमाचल प्रदेश के एक मंत्री ने भी होटलों और ढाबों में काम करने वाले कर्मचारियों को अपनी ‘नेमप्लेट’ प्रदर्शित करने के लिए कहा है।

न केवल आरएसएस और भाजपा ने विदेशों में चल रहे जिहाद के बारे में दुष्प्रचार को अपनाया है, बल्कि इसमें कुछ और बातें जोड़कर इसे और अधिक खतरनाक बना दिया है। 1990 के दशक में जब शीत युद्ध की समाप्ति हुई, उसके बाद से दुनिया भर में मुसलमानों का डर फैलाया जाने लगा।

इस विमर्श की आलोचना करने के बजाय, भारत में मौजूद दक्षिणपंथी ताकतों ने इसका इस्तेमाल मुस्लिम-विरोधी एजेंडा फैलाने के लिए किया। पश्चिम में बैठे इस्लाम और मुस्लिम विरोधी लेखक को हिंदुत्व की ताक़तें पढ़ती हैं और फिर उन कचरों को भारत में फैलाती हैं।

देश का मुख्यधारा मीडिया भी फिरकापरस्तों के इशारे पर जिहाद से जुड़े नफरत भरे प्रचार को फैलाने में जुटा हुआ है। उदाहरण के लिए, एक प्रमुख हिंदी समाचार चैनल के ‘एंकर’ ने जिहाद पर एक विशेष कार्यक्रम किया और जिहाद के विभिन्न प्रकार गिनाए।

सांप्रदायिक शक्तियों के ‘नैरेटिव’ को दोहराते हुए, एंकर ने कहा कि मुसलमान अर्थव्यवस्था, इतिहास, मीडिया, संगीत, गीत, धर्मनिरपेक्षता, जनसंख्या, प्रेम और शिक्षा जैसे कई क्षेत्रों में जिहाद छेड़ रहे हैं।

एंकर के अनुसार, मुसलमान जिहाद के माध्यम से हिंदुओं को हर क्षेत्र में कमजोर करने और उनकी पहचान मिटाने का कुकृत्य कर रहे हैं। मुमकिन है कि कुछ दिन बाद एंकर महोदय “थूक जिहाद” पर भी एक ख़ास प्रोग्राम कर दें।

याद रहे कि पिछले महीनों में मुजफ्फरनगर पुलिस ने एक नोटिस जारी कर होटल और ढाबा चलाने वालों से कहा था कि वे अपना और अपने ‘स्टाफ’ नाम ज़ाहिर करें ताकि हिंदू तीर्थयात्रियों उनकी [जात और धर्म की] पहचान कर सके।

उसी दौरान, आगरा में एक सभा में बोलते हुए, उत्तर प्रदेश के एक मंत्री ने हिंदुत्व शक्तियों के विभाजनकारी एजेंडे को स्पष्ट रूप से सामने रखा और कहा कि हिंदू भक्तों को मुस्लिम होटलों में बैठने और खाने से बचना चाहिए, इसलिए मुस्लिम दुकानदारों और कर्मचारियों को अपना नाम उजागर करना चाहिए।

फिर नस्लवाद और मुसलमानों के आर्थिक बहिष्कार वाले इस फरमान को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई। देश की सर्वोच्च अदालत ने भी इस आदेश पर रोक लगा दी, क्योंकि एक धर्मनिरपेक्ष देश में ऐसी सांप्रदायिक नीतियों के लिए कोई जगह नहीं हो सकती है।

लेकिन यह दुख की बात है कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले का पालन करने के बजाय, भाजपा सरकार खाने-पीने की वस्तुओं में प्रदूषण रोकने के नाम पर धार्मिक भेदभाव पर आधारित नीतियां बना रही हैं।

हैरानी की बात यह भी है कि इन दिनों ऐसे कई वीडियो वायरल किए जा रहे हैं, जिनमें कुछ मुस्लिम दुकानदार या स्टाफ को खाने में थूकते हुए दिखाया गया है। प्रोपेगेंडा फैलाया जा रहा है कि केवल मुसलमान ही इस “घिनौने” कार्य में लिप्त हैं।

लंबे समय से सांप्रदायिक ताक़तें यह अफवाह फैलाती रही हैं कि मुसलमान गैर-हिंदुओं को खाना खिलाने से पहले उस पर थूकते हैं।

मुसलमानों के प्रति हिंदुत्व ताक़तों की यह नफरत, दलितों के प्रति उनके भेदभाव के समान है, जिनके साथ खाना-पीना उन्हें पसंद नहीं है। आपने गौर किया होगा कि सवर्णों के खाने-पीने की दुकानों में सभी जाते हैं, मगर वही सवर्ण समाज के कुछ लोग जब यह जान लेते हैं कि कोई दुकान किसी दलित या मुसलमान की है, तो वहां जाने से कतराते हैं।

अछूत प्रथा की वजह से ही दलितों को व्यापार करने में काफी कठिनाई होती है, और “थूक जिहाद” का प्रोपेगेंडा इस कठिनाई को और भी बढ़ा देगा।

हाल ही में, सुप्रीम कोर्ट ने ‘जेल मैनुअल’ को बदलने की बात कही थी क्योंकि उसमें जातिगत भेदभाव के खिलाफ कोई आदेश नहीं था।

यह पाया गया कि जेलों में दलितों से सफाई का काम करवाया जाता है, जबकि ऊंची जाति के लोगों से प्रशासनिक कार्य लिए जाते हैं। अर्थात् जातिगत भेदभाव भारत की असली सचाई है।

बीजेपी सरकार के ज़रिये होटल मालिकों और स्टाफ़ के नाम उजागर करने के पीछे असल मकसद यह है कि लोगों को यह बताया जा सके कि कौन-सी दुकानें दलित और मुसलमान चला रहे हैं।

ऐसे कानूनों का वास्तविक उद्देश्य उपभोक्ताओं के स्वास्थ्य की सुरक्षा करना या भोजन को दूषित होने से बचाना नहीं है, बल्कि पहले से ही कमजोर मुस्लिम समुदाय और दलितों की आर्थिक रूप से कमज़ोर करण है।

जो सरकार उपभोक्ताओं को “थूक” और “पेशाब” मुक्त खाना मुहैया कराने के लिए इतनी बेचैन है, वह कभी यह नहीं जानने की कोशिश करती कि होटलों में काम करने वाले मजदूरों की मज़दूरी क्या है और उन्हें किस अमानवीय स्थिति में काम करने को मजबूर किया जाता है।

क्या यह कड़वी सच्चाई किसी से छुपी है कि ज्यादातर होटलों और ढाबों में बाल मजदूरी पाई जाती है? मगर उसे खत्म करने के लिए सरकार ज़रा भी संजीदा नहीं दिखती।

क्या इस बात से इंकार किया जा सकता है कि ज़्यादातर बहुजन समाज के लोगों का ही शोषण होटलों में हो रहा है, जो दिन रात जूठे बर्तन धोने के लिए मजबूर हैं और उनकी उंगलियां तक पानी से सड़ जाती है? भाजपा की सरकार उनके कल्याण के लिए कुछ क्यों नहीं करती?

दरअसल हिंदुत्व का हमला चौतरफा होता है। वह समाज में जाति प्रथा को बनाये रखना चाहती और और अल्पसंख्यक को कमज़ोर करना चाहती है। पहले उन्होंने “हलाल” फूड पर हमला किया था और मुसलमानों से उनकी रोजी-रोटी छीनी थी।

अब ये नए दिशानिर्देश, पहले से कहीं ज़्यादा, मुसलमानों और दलितों को आर्थिक रूप से तोड़ कर रख देंगे। ऐसे दिशानिर्देश न सिर्फ़ सामाजिक दूरी को भी बढ़ाएंगे और राष्ट्रीय एकता पर चोट करेंगे।

लोकतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष और सामाजिक न्याय की ताकतों को ऐसी विभाजनकारी और ब्राह्मणवादी नीतियों के खिलाफ आवाज उठानी चाहिए।

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