मिर्जा जवान बख्त और मिर्जा शाह अब्बास। दोनों आखिरी मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर के वंशज थे। 1858 में अंग्रेजों ने बहादुर शाह जफर को सरेंडर के बदले निर्वासन की शर्त रखी। जफर को बर्मा (अब म्यांमार) के रंगून भेजा गया। उनके साथ रंगून जाने वालों में मिर्जा जवान बख्त और मिर्जाशाह अब्बास, दोनों थे। जफर की तरह उनके बेटों ने भी रंगून में ही दम तोड़ा।
1857 की क्रांति के दौरान जब अंग्रेजों की जीत तय नजर आने लगी, बहादुर शाह जफर ने हुमायूं के मकबरे में शरण ली। मेजर विलियम हडसन की अगुवाई में ब्रिटिश फौज ने मकबरे को चारों तरफ से घेर लिया। 20 सितंबर 1857 को जफर ने हडसन के सामने आत्मसमर्पण कर दिया। शर्त यह रखी कि उनके परिवार की जिंदगी बख्श दी जाए। हडसन ने मुगल बादशाह के परिवार के करीब 16 सदस्यों को गिरफ्तार कर लिया। कुछ इतिहासकारों के अनुसार, इनमें जवान बख्त और शाह अब्बास भी शामिल थे।
अगले दिन हडसन ने तीन मुगल शहजादों- मिर्जा मुगल, मिर्जा खिज्र सुल्तान और जफर के पोते मिर्जा अबू बख्त का बिना शर्त आत्मसमर्पण की मांग रखी। हुमायूं का मकबरा ही आत्मसमर्पण की जगह के रूप में चुना गया। गिरफ्तार मुगल खानदान को पूरी सुरक्षा के बीच, बैलगाड़ियों में बिठाकर ले जाया जाने लगा। तारीख 22 सितंबर 1857 थी। काफिला जब दिल्ली गेट के पास पहुंचाया तो उसे हजारों मुसलमानों ने घेर लिया। सबने सिर पर कफन बांध रखा था।
ब्रिटिश इतिहासकार विलियम डेलरिम्पल ने अपनी किताब ‘द लास्ट मुगल’ में हडसन के हवाले से लिखा है, ‘चारों तरफ जिधर भी मेरी नजर जाती थी, गाजी ही गाजी दिखते थे।’ कहा जाता है कि हडसन ने उन तीन शहजादों को बैलगाड़ी से उतरने का फरमान सुनाया। उन्हें निर्वस्त्र करवाया और फिर पॉइंट ब्लैंक रेंज पर गोली मार दी। शवों को तीन दिन तक चांदनी चौक की एक कोतवाली के बाहर लटकाए रखा गया ताकि विद्रोह की बची-खुची आवाजें भी अंजाम सोचकर चुप हो जाएं।
हडसन के सामने रखी शर्त के अनुसार, बहादुर शाह जफर (तस्वीर में) को अंग्रजों ने मौत की सजा नहीं दी, बल्कि रंगून निर्वासित कर दिया। 7 अक्टूबर 1858 को जब आखिरी मुगलों ने रंगून का सफर शुरू किया तो बैलगाड़ियों में मिर्जा जवान बख्त और मिर्जा शाह अब्बास भी थे। रंगून में जफर की तबीयत दिन-ब-दिन खराब होती गई। 6 नवंबर 1862 को लकवे का तीसरा दौरा पड़ा। 7 नवंबर की सुबह 5 बजे आखिरी मुगल बादशाह ने दम तोड़ दिया।
मिर्जा जवान बख्त को इतिहासकारों ने जफर का लाडला बताया है। बख्त को मां जीनत महल इस तरह पाल-पोस रही थीं कि एक दिन उन्हें मुगलों की गद्दी पर बैठना है। हालांकि अंग्रेजों की नीति सबसे बड़े बेटे को राज सौंपने की थी, इसलिए जीनत की पेशकश ठुकरा दी गई। रंगून निर्वासित होने के बाद मिर्जा जवान बख्त को शराब की लत लग गई। 18 सितंबर 1884 को बेहद महज 43 साल की उम्र में लिवर सिरोसिस से मिर्जा जवान बख्त की मौत हो गई। दो साल बाद जीनत महल ने भी दम तोड़ दिया। मिर्जा शाह अब्बास की मौत 25 दिसंबर 1910 को हुई।
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